प्रधानमंत्री मोदी ने वर्ष 2025 को सुधारों के वर्ष के रूप में रेखांकित करते हुए यह जो कहा कि भारत रिफार्म एक्सप्रेस पर सवार हो गया है और इससे 2047 तक देश को विकसित बनाने के प्रयासों को मजबूती मिलेगी, उसकी सार्थकता तभी है, जब वास्तव में ऐसा होता हुआ दिखाई देगा। इससे इन्कार नहीं कि इस वर्ष कई बड़े सुधार हुए, जिनमें सबसे उल्लेखनीय रहा जीएसटी में व्यापक बदलाव। इसके अतिरिक्त बीमा क्षेत्र में सौ प्रतिशत विदेशी पूंजी निवेश को मंजूरी देने और श्रम सुधारों के तहत 29 कानूनों को चार आधुनिक कोड में समेटकर लागू करने को भी बड़े कदम की संज्ञा भी दी जा सकती है, लेकिन अभी तो इन सुधारों का प्रभाव सामने आना शेष है।

ठीक वैसे ही, जैसे इसका पता भविष्य में ही चलेगा कि मनरेगा में बुनियादी बदलाव कर वीबी-जीरामजी नामक जो नया कानून लाया गया, उसके कितने सकारात्मक नतीजे कब तक आएंगे। यही बात शिक्षा, कारोबारी सुगमता और परमाणु ऊर्जा से जुड़े कुछ उन सुधारों पर भी लागू होती है, जो इस वर्ष देखने को मिले। सुधार के इन कदमों को जिन उद्देश्यों के साथ लागू किया गया है, उनकी पूर्ति हर हाल में हो, यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए। सुधारों के सकारात्मक परिणाम केवल दिखने ही नहीं चाहिए, बल्कि वे आम आदमी को महसूस भी होने चाहिए।

विभिन्न क्षेत्रों में किए जाने वाले सुधारों को प्रभावी बनाने के लिए यह अनिवार्य है कि नौकरशाही के प्रत्येक स्तर पर सुधार हो। यह ठीक है कि केंद्रीय सत्ता से जुड़ी उच्च स्तर की नौकरशाही के तौर-तरीकों में कुछ बदलाव आया है, लेकिन निचले स्तर पर उसका रवैया जस का जस है। सबसे खराब बात यह है कि नौकरशाही का भ्रष्टाचार खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। इस कारण भी आम आदमी सुधारों के समुचित लाभ का अनुभव नहीं कर पा रहा है।

उसे अब भी कदम-कदम पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यह समझा जाए तो अच्छा कि हर क्षेत्र में सुधारों को सही तरह लागू करने के मामले में बहुत कुछ करने की जरूरत है। इसका संकेत कुछ ही दिनों पहले प्रधानमंत्री ने यह कह कर दिया था कि राज्यों को मैन्यूफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के साथ-साथ कारोबारी सुगमता में सुधार और सेवा क्षेत्र को मजबूत करने पर विशेष ध्यान देना होगा।

पांचवें राष्ट्रीय मुख्य सचिव सम्मेलन को संबोधित करते हुए उन्होंने शासन, सेवा और विनिर्माण, हर क्षेत्र में गुणवत्ता को प्राथमिकता बनाने पर भी जोर दिया था। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि अभी मेड इन इंडिया को गुणवत्ता का पर्याय नहीं बनाया जा सका है। इसी तरह शासन व्यवस्था में एक नई कार्यसंस्कृति विकसित करने की दिशा में कुछ कदम उठाए जाने के बाद भी अभी बात नहीं बन सकी है।