कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जिस तरह मनरेगा बचाओ अभियान छेड़ने की बात कही, उससे यही स्पष्ट होता है कि वे फिर से एक ऐसे मुद्दे को तूल देने जा रहे हैं, जिससे उन्हें और कांग्रेस को शायद ही कुछ राजनीतिक या चुनावी लाभ मिले। यह पहली बार नहीं, जब राहुल गांधी किसी ऐसे मुद्दे को छेड़ने जा रहे हैं, जिसमें जनता का ध्यान आकर्षित करने की क्षमता नहीं दिख रही है।

यह सही है कि मनरेगा का केवल नाम ही नहीं बदला गया है, बल्कि उसके कई प्रविधान भी बदल दिए गए हैं और वे भी कुछ इस प्रकार कि कानून रूपी यह योजना एक तरह से नई योजना बन गई है, लेकिन इसके आधार पर ऐसे किसी नतीजे पर पहुंचना सही नहीं कि ग्रामीण विकास और रोजगार गांरटी के इस कानून को खत्म कर गरीबों के अधिकारों पर कुठाराघात किया जा रहा है। राहुल गांधी मनरेगा बचाओ अभियान के जरिये कुछ ऐसी ही प्रतीति कराना चाहते हैं।

इसके लिए वे ऐसे भी तर्क दे रहे हैं कि प्रधानमंत्री ने मनरेगा की जगह वीबी जीरामजी लाने के पहले न तो कोई अध्ययन कराया और न ही कैबिनेट से किसी तरह का विचार-विमर्श किया। ऐसे तर्क हास्यास्पद ही हैं। ऐसे तर्क तभी दिए जाते हैं, जब सरकार के किसी फैसले, कार्यक्रम अथवा कानून का ठोस तर्कों के साथ विरोध करना कठिन होता है।

20 वर्ष पहले जब मनरेगा को लाया गया था, तब देश की परिस्थितियां भिन्न थीं। बीते दो दशकों में देश के जनजीवन के साथ ग्रामीण अर्थव्यवस्था में बहुत बदलाव आया है। इन बदलावों को देखते हुए मनरेगा जैसी योजना में हेरफेर करना आवश्यक ही नहीं अनिवार्य हो गया था। इसलिए और भी, क्योंकि समय के साथ मनरेगा में कई कमजोरियां घर कर गई थीं। इन कमजोरियों की चर्चा भी होती थी। प्रायः यह कहा जाता था कि आखिर मनरेगा के तहत कब तक गड्ढे खोदे और भरे जाते रहेंगे?

इसी तरह इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि मनरेगा में भ्रष्टाचार की शिकायतें आती रहती थीं। क्या कभी इसका आकलन किया गया कि आखिर मनरेगा से ग्रामीण जीवन में कितना बुनियादी बदलाव आ सका? यदि वीबी जीरामजी के तहत काम के दिन 100 से 125 किए जा रहे हैं और इस योजना के काम अधिक पारदर्शी ढंग से कराने के उपाय किए जा रहे हैं तो इसमें किसी को शिकायत क्यों होनी चाहिए?

इसी तरह आखिर इसमें क्या हर्ज है कि अब इस योजना के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में ठोस बुनियादी ढांचे का भी निर्माण कराया जाएगा और केंद्र के स्तर पर उसकी निगरानी बढ़ाई जाएगी? नई योजना की आलोचना का एक बिंदु यह है कि इसमें राज्यों का अंशदान बढ़ा दिया गया है, लेकिन ऐसा करके तो राज्यों में जिम्मेदारी का भाव जगाने के साथ उन्हें जवाबदेह भी बनाया जा रहा है।