भीम सिंह। अब जब जनगणना शुरू होने जा रही है, तब इस पर भी विचार होना चाहिए कि भारत में वास्तविक अल्पसंख्यक कौन है? क्योंकि सांप्रदायिकता और तुष्टीकरण का दुखद नतीजा मातृभूमि के बंटवारे में देखा जा चुका है। संविधान के अनुच्छेद 30 में अल्पसंख्यक शब्द का प्रयोग अवश्य है, पर उसमें अल्पसंख्यक की परिभाषा नहीं दी गई है। अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा देने का अधिकार अल्पसंख्यक आयोग अधिनियम, 1992 के तहत केंद्र सरकार को है। अभी छह समुदायों- मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध, जैन तथा पारसी को अल्पसंख्यक का दर्जा मिला है। इनमें यहूदी नहीं हैं। इस प्रकार अल्पसंख्यक का दर्जा देने का मानदंड क्या है, यह भी अस्पष्ट है।

अल्पसंख्यक समुदायों को कई प्रकार की सुविधाएं दी जाती हैं। इनमें धार्मिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक के साथ-साथ आर्थिक सुविधाएं भी शामिल हैं। अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों में न तो शिक्षा का अधिकार कानून लागू है और न ही आरक्षण के नियम। कई ऐसे राज्य भी हैं, जहां कुछ समुदाय राज्य स्तर पर बहुसंख्यक होने के बावजूद अल्पसंख्यक योजनाओं का लाभ लेते हैं। यदि लाभ वास्तविक वंचित वर्गों तक न पहुंचकर सामाजिक या क्षेत्रीय रूप से मजबूत समुदायों तक पहुंचते हैं, तो इससे अन्य जरूरतमंद वर्गों के अवसर प्रभावित होते हैं। इसके अतिरिक्त राज्य सरकारों पर अतिरिक्त वित्तीय दबाव पड़ता है और अल्पसंख्यकवाद की राजनीति को बल मिलता है।

2011 की जनगणना के अनुसार देश में विभिन्न धर्मावलंबियों की जनसंख्या इस प्रकार थी-हिंदू 79.8 प्रतिशत, मुसलमान 14.2, ईसाई 2.3, सिख 1.7, बौद्ध 0.7, जैन 0.4 तथा पारसी 0.006 प्रतिशत। लोकतंत्र में जनसंख्या के बल पर सरकार की नीतियों को प्रभावित किया जा सकता है और किया भी जाता है। अपनी संख्या के बल पर मुस्लिम एक समर्थ तथा प्रभावशाली समुदाय है। यह सरकार को झुक जाने को मजबूर करने में सक्षम है, यह हम शाहबानो मामले में देख चुके हैं। अल्पसंख्यक का दर्जा निर्धारण वर्तमान में राष्ट्रीय स्तर पर किया जाता है।

इसका परिणाम यह है कि जिन राज्यों में मुस्लिम बहुमत में हैं, जैसे लक्षद्वीप (96.58) और जम्मू-कश्मीर (68.31 प्रतिशत) वहां भी उन्हें अल्पसंख्यक का लाभ दिया जाता है। इनके अलावा छह ऐसे राज्य हैं जहां मुस्लिम आबादी राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है-असम (34.22 प्रतिशत), बंगाल (27.01), केरल (26.56), उत्तर प्रदेश (19.26), बिहार (16.9) और झारखंड (14.53 प्रतिशत)। क्या बड़ी आबादी वाले राज्यों में भी मुस्लिमों को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाना चाहिए?

अगर जिलों की बात करें तो बिहार में ऐसे 11 जिले हैं, जहां मुसलमानों की आबादी राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। किशनगंज में 67.98, कटिहार में 44.47, अररिया में 42.95 और पूर्णिया में 38.46 प्रतिशत है। यूपी में 15 ऐसे जिले हैं, जहां मुस्लिम आबादी राष्ट्रीय औसत से ऊपर है। मुरादाबाद और रामपुर में उनकी आबादी क्रमश: 50.80 तथा 50.57 प्रतिशत है। बिजनौर, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, अमरोहा (ज्योतिबा फुले नगर), बलरामपुर, बरेली, मेरठ तथा बहराइच जैसे जिलों में उनकी आबादी 30 प्रतिशत से ज्यादा है। अगर बंगाल की बात करें तो यहां 13 ऐसे जिले हैं, जहां मुसलमानों की आबादी राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है।

मुर्शिदाबाद तथा मालदा में वे बहुमत में हैं। यहां उनकी आबादी क्रमश: 66.27 तथा 51.27 प्रतिशत है। बिहार, उत्तर प्रदेश तथा बंगाल जैसी स्थिति देश के अन्य राज्यों में भी है। झारखंड के छह जिलों में उनकी आबादी राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है। असम में वे 11 जिलों में बहुमत में हैं। क्या सघन आबादी वाले जिलों में भी मुसलमानों को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाना चाहिए? अगर हम ईसाई जनसंख्या देखें तो उनकी आबादी तीन राज्यों में बहुमत और पांच अन्य राज्यों में सघन है। कुल 14 ऐसे राज्य हैं, जहां उनकी आबादी राष्ट्रीय औसत से ज्यादा है।

जब किसी राज्य की अल्पसंख्यक आबादी यह अनुभव करती है कि बहुसंख्यक होते हुए भी कुछ समुदाय विशेष रियायतें प्राप्त कर रहे हैं तो इससे सामाजिक असंतोष और असमानता की भावना उत्पन्न होती है। अल्पसंख्यक दर्जे का उद्देश्य सुरक्षा और अवसर प्रदान करना होना चाहिए, न कि स्थायी विशेषाधिकार। यदि यह धारणा बनती है कि मजहबी पहचान के आधार पर लाभ मिल रहा है, न कि वास्तविक पिछड़ेपन के आधार पर, तो इससे सामाजिक समरसता और समान नागरिकता की भावना कमजोर पड़ती है। आवश्यक है कि अल्पसंख्यक कल्याण नीतियों का निरंतर मूल्यांकन किया जाए। योजनाओं का आधार पंथ के बजाय सामाजिक-आर्थिक पिछड़ापन होना चाहिए। भारत की एकता उसकी विविधता में निहित है, परंतु नीति-निर्माण में न्याय, संतुलन और पारदर्शिता अनिवार्य है।

अल्पसंख्यक संरक्षण के साथ यह भी जरूरी है कि सरकारी संसाधनों का उपयोग वास्तविक अल्पसंख्यक समुदाय के लिए हो। संतुलित दृष्टिकोण ही राजकोषीय अनुशासन, सामाजिक समरसता और राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ कर सकता है। अल्पसंख्यक समुदाय का निर्धारण जिला न सही, कम से कम राज्य स्तर पर किया जाना चाहिए और यदि राष्ट्रीय स्तर पर ही करना हो तो जिस समुदाय की आबादी दो या इससे कम प्रतिशत में हो, उसे ही अल्पसंख्यक समुदाय का दर्जा दिया जाए।

(लेखक राज्यसभा के सदस्य हैं)