विचार: आवश्यक चुनाव सुधारों की प्रतीक्षा, एसआईआर प्रक्रिया तक सीमित रहना निराशाजनक
चुनाव सुधारों का नेतृत्व निर्वाचन आयोग ही करे। अपराधियों को चुनाव से अलग रखने का सख्त कानून असंभव नहीं है। व्यापक चुनाव सुधार समूचे देश की अभिलाषा है।
HighLights
निष्पक्ष चुनाव जनतंत्र की आत्मा है।
चुनाव में धनबल और माफिया की भागीदारी है।
चुनाव सुधारों की गति धीमी है।
हृदयनारायण दीक्षित। संसदीय जनतंत्र की सारी कार्रवाई दलतंत्र से होती है। निष्पक्ष चुनाव जनतंत्र का आत्मा है। जनतंत्र की सफलता का दारोमदार दलतंत्र पर है। आदर्श चुनाव प्रक्रिया से ही कार्यपालिका और विधायिका बनती है। इसी चुनावी प्रक्रिया में लोग जनप्रतिनिधि चुनते हैं, पर चुनाव में धनबल और माफिया की भी भागीदारी है। इसलिए चुनाव आदर्श तरीके से नहीं हो पाते। निष्पक्ष चुनाव कराना निर्वाचन आयोग का संवैधानिक कर्तव्य (अनुच्छेद 324) है। मतदाता सूची तैयार करने और चुनाव कराने की जिम्मेदारी भी आयोग की ही है। सभी मतदाताओं के नाम मतदाता सूची में सुनिश्चित करने के लिए विशेष गहन पुनरीक्षण (एसआइआर) अभियान जारी है, पर इसे लेकर विपक्ष अकारण वोट चोरी का आरोप लगा रहा है। विपक्ष और उसके नेता निर्वाचन आयोग के अधीन हुए चुनाव में दो सीटों से चुनाव लड़े थे। वोट चोरी होती तो विपक्ष की भारी संख्या में सीटें न होतीं।
संसद के बीते सत्र में चुनाव सुधारों पर बहस अवश्य हुई, लेकिन वह वास्तविक सुधारों को लेकर नहीं हुई। सारा ध्यान एसआइआर पर रहा। यह समझा जाना चाहिए कि चुनाव सुधारों की गति धीमी है। आदर्श चुनाव आचार संहिता 1967 में बनी थी। आचार संहिता का पालन सबका कर्तव्य है, मगर चुनाव अभियानों में अधिकांश दल आचार संहिता तोड़ते हैं। जनतंत्र में जन गण मन अपने भाग्य विधाता चुनते हैं, लेकिन चुनाव प्रक्रिया बाहुबल और धनबल के द्वारा सत्ता प्राप्ति का खेल बन गई है। राजनीतिक दल इस खेल में मुख्य खिलाड़ी हैं। दल अपने नियमित संचालन पर करोड़ों रुपये खर्च करते हैं, लेकिन विचार और कार्यकर्ता आधारित संगठन नहीं बनाते। चुनाव नजदीक आते ही जिताऊ प्रत्याशी की खोज शुरू हो जाती है। धनबल के दुरुपयोग होते हैं। खर्चीली रैलियां, होटल, वाहन और सैकड़ों चार्टर्ड विमान और आकाश में उड़ते हेलिकाप्टर चकित करते हैं। आखिरकार यह धन कहां से आता है? अधिकांश दल चुनाव में माफिया और धनबल का इस्तेमाल करते हैं। माफिया को टिकट देते हैं। अधिकांश दल पैसे वाले प्रत्याशी के साथ बाहुबली पर भी दांव लगाते हैं।
अपने देश में स्वस्थ-दलतंत्र का विकास नहीं हुआ। अनेक दलों में आजीवन/वंशानुगत राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। सभी दलों के संगठन चुनाव भी चुनाव आयोग को कराने के कानूनी प्रविधान होने चाहिए। उम्मीदवारों के पैनल भी स्थानीय समितियों, जिलों से होते हुए ऊपर आने चाहिए। जो दल अपने दल में जनतंत्र नहीं लाते, आय-व्यय का पूरा विवरण सार्वजनिक नहीं करते, चुनावी जीत के लिए माफिया/धनबली को उम्मीदवार बनाते हैं, उनसे ही चुनाव सुधारों की उम्मीद कैसे की जा सकती है? अब माफिया के निधन की स्थिति में पत्नी या पुत्र प्रत्याशी हो जाते हैं।
प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। वोहरा समिति (1993) ने संसदीय संस्थाओं में अपराधियों के प्रवेश पर गंभीर चिंता व्यक्त की थी। चुनाव में कालेधन के प्रभाव और माफिया की पकड़ को घेरना जरूरी है। आखिरकार चुनाव सुधारों पर गंभीरता से विचार क्यों नहीं होता? दलतंत्र के गलत आचरण से सुयोग्य और विचारनिष्ठ कार्यकर्ता पार्टी टिकट नहीं पाते। चुनाव में अंधाधुंध खर्च होता है। निर्धारित खर्च की सीमा से दस गुना, बीस गुना से भी काम नहीं चलता। सरकार द्वारा चुनाव खर्च उठाने की बहस पुरानी है। दिनेश गोस्वामी समिति (1990) ने भी ऐसी ही सिफारिशें की थीं। चुनाव आयोग ने चुनाव को निष्पक्ष बनाने के लिए 2006 में दलीय परामर्श लिया था, लेकिन चुनाव सुधारों पर कोई ठोस पहल नहीं हुई। सुझाव यह भी था कि प्रत्याशी और दलों को अतिरिक्त खर्च से रोककर सरकारी खर्च पर चुनाव की व्यवस्था की जाए। मुख्य चुनाव आयुक्त ने इसे व्यावहारिक नहीं माना। इंग्लैंड, आयरलैंड आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा की सरकारें सीमित चुनाव खर्च देती हैं। अमेरिका में चुनाव का खर्च निजी क्षेत्र ही उठाते हैं।
राजनीति का अपराधीकरण रोकने की दिशा में भी बहुत काम करना शेष है। जो धनबल, बाहुबल और भ्रष्टाचार के सहारे चुनाव जीत जाते हैं, उनसे कोई आशा कैसे की जा सकती है। माफिया जीतते हैं। मतदाता डरते हैं। पूंजीपति जिताऊ हैं। वे समर्थन खरीदते हैं। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने पालिटिकल डायरी (पृष्ठ 146) में लिखा है, ‘भारत में दल एक ही विचार करते हैं कि प्रत्याशी ऐसा हो जो चुनाव जीते।’ उन्होंने सभी दलों से अपील की थी कि ईमानदार पार्टी कार्यकर्ता को ही टिकट देना चाहिए। अगर प्रत्याशी आदर्श कार्यकर्ता नहीं है तो उसे वोट न दें।
संविधान निर्माता भविष्य के चुनावी भ्रष्टाचार और उसके परिणामों के प्रति सतर्क थे। सभा (16.6.1949) में हृदयनाथ कुंजरु ने आशंका व्यक्त की कि दोषपूर्ण निर्वाचन की व्यवस्था से लोकतंत्र विषाक्त होगा। केएम मुंशी ने कहा था, ‘भारत की जनता को अपने प्रतिनिधि संदेह और पक्षपात रहित स्वस्थ प्रणाली के माध्यम से चुनने का अधिकार होना चाहिए।’ प्रस्तावक डा. बीआर आंबेडकर ने कहा था, ‘मताधिकार ही जनतंत्र का प्राण है।’ संविधान सभा ने निष्पक्ष निर्वाचन प्रक्रिया पर लंबी बहस की। उन्होंने निर्वाचन आयोग को संवैधानिक संस्था बनाया, लेकिन पहले आम चुनाव (1952) से ही निर्वाचन में धांधली शुरू हो गई।
संविधान निर्माताओं की आशंका सच निकली। धांधली के आरोप प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी सहित बड़े-बड़ों पर भी लगे। जिस देश में प्रधानमंत्री को भी चुनावी कदाचरण का दोषी पाकर सदन की सदस्यता खारिज की गई हो, उसी देश में चुनाव सुधारों की धीमी गति से निराश होना स्वाभाविक है। चुनाव सुधारों पर समग्रता से विचार की गति बहुत धीमी क्यों है? जब दुनिया के कई देश निष्पक्ष चुनाव प्रणाली बनाने और उसे लागू करने में कामयाब रहे हैं, तो दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्री देश होने और आदर्श चुनाव प्रणाली विकसित करने का श्रेय भारत क्यों नहीं लेता? चुनाव सुधारों का नेतृत्व निर्वाचन आयोग ही करे। अपराधियों को चुनाव से अलग रखने का सख्त कानून असंभव नहीं है। व्यापक चुनाव सुधार समूचे देश की अभिलाषा है।
(लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं)

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