प्रो. संजीव कुमार शर्मा। जब लोकतंत्र के नाम पर लोक कल्याण का विरोध ही राजनीति हो जाए तो वैसा ही दृश्य उपस्थित होता है जैसा कि इस सप्ताह भारत की संसद में और बाहर देखने को मिला। ग्रामीण भारत की प्रगति तथा आर्थिकी को त्वरा देने हेतु प्रस्तुत एक महत्वाकांक्षी विधेयक ‘विकसित भारत - गारंटी फार रोजगार एंड आजीविका मिशन’ के गुण-दोष की विवेचना की जगह विपक्ष इसके संक्षिप्त नाम और पूर्वकालीन नाम की तुलना को ही अपने कर्तव्य की पूर्ति के रूप में प्रदर्शित करता रहा। विडंबना यह कि ऐसा उन महात्मा गांधी के नाम पर हुआ, जिनका जीवन लक्ष्य ही समाज के सबसे अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के आंसू पोंछना था। भाव और भावना का यह बारीक अंतर ही इस संपूर्ण तुलना को ‘गांधी विरुद्ध गांधी’ बना देता है और याद आते हैं बापू के वे कष्ट भरे शब्द, ‘हर कोई मेरी तस्वीरों और मूर्तियों पर माला चढ़ाने को उत्सुक है। कोई भी वास्तव में मेरा अनुसरण नहीं करना चाहता।’

कठिन परिस्थितियां न कर सकीं कुंठित

वर्ष 2047 में भारत विदेशी परतंत्रता से मुक्ति के 100 वर्ष पूर्ण करेगा। 78 वर्ष की स्वाधीनता की यात्रा में भारत ने अनेक महत्वपूर्ण पड़ाव देखे हैं। वस्तुतः अंग्रेजी शासन की दासता से मुक्ति के बाद भारत का यात्रा-पथ कठिन, दुरूह, दुर्गम और दुष्कर था। परंतु भारत की शाश्वत, अक्षुण्ण, निरंतर तथा सनातन परंपरा और श्लाघनीय जिजीविषा ने असंभव को संभव कर दिखाया। विभाजन के दंश ने भारत की प्रगतिकामी प्रतिभा को कुंठित नहीं किया। आर्थिक क्षेत्र में भारतीयों की उद्यमशीलता ने अकल्पनीय शुभ-परिणाम प्रस्तुत किए। सात-आठ दशक की अवधि में ही सुई तक न बनाने वाले देश से हम विश्व की प्रथम पांच आर्थिक महाशक्तियों में सम्मिलित हो गए। औद्योगिक क्रांति ने भारतवर्ष के सुदूर क्षेत्रों को भी स्पर्श किया और वैश्विक निर्यात में भारत की सहभागिता निरंतर उल्लेखनीय उत्कर्ष की ओर अग्रसर हो रही है। विश्व भर में तकनीक और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की उन्नति सम्माननीय बनी है। वैज्ञानिक समाज में भारत के प्रतिभाशाली व्यक्तित्व समादृत हो रहे हैं। अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में भारत ने अकल्पनीय प्रगति की है और हम विश्वभर के देशों के उपग्रह अंतरिक्ष में भेज रहे हैं। चंद्रमा और मंगल के बाद भारत अपने अति-महत्वाकांक्षी आदित्य मिशन की ओर सुदृढ़ पगों से बढ़ रहा है। विश्व व्यापार में भारत प्रमुखता प्राप्त कर रहा है। विभिन्न खेलों में भारत शीर्ष स्थान पर है। सामरिक शस्त्रों और उपकरणों के उत्पादन और निर्माण में आत्मनिर्भरता की ओर जा रहा है।

वैश्विक विमर्श का विषय है भारत उदय

कृषि क्षेत्र में भारत ने अपने उपयोग हेतु संपूर्ण स्वावलंबन प्राप्त कर दान, अनुदान और विक्रय का मार्ग अपना लिया है। लघु एवं कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवन प्राप्त हुआ है। विमानन क्षेत्र में भारत विश्व के विकसित कहे जाने वाले देशों से प्रतिस्पर्धा कर रहा है। चिकित्सा के क्षेत्र में विश्व के अनेक देशों का सर्वाधिक प्रिय और सुरक्षित स्थान भारत ही बनता जा रहा है। विश्व के अनेक उन्नत देशों के बहुराष्ट्रीय वाणिज्य प्रतिष्ठानों में भारतीय मेधा से संयुक्त तथा भारतीय उच्च शिक्षा संस्थानों में प्रशिक्षित व्यक्ति नेतृत्व और शीर्षस्थ भूमिका में दृष्टिगोचर हो रहे हैं। अनेकानेक देशों में भारतीय उद्योगपतियों ने प्रमुख निर्माण तथा उत्पादन उपक्रमों को स्थापित किया है। अंतरराष्ट्रीय संगठनों एवं मंचों पर भारत का स्वर अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो गया है। समस्त विश्व में संघर्ष निवारण के अवसरों पर भारत की भूमिका और भारत से अपेक्षा में अभूतपूर्व वृद्धि हुई है। भारत के नेतृत्व को वैश्विक मान्यता, सम्मान प्रतिष्ठा तथा महत्ता प्राप्त हो रही है। यह वस्तुतः भारत के सर्वतोमुखी उदय का काल है। भारतोदय की गाथा इस समय विश्व का सर्वप्रमुख विमर्श है।

अपनों के विघ्नों ने घेरा

2047 में विकसित भारत के पावन संकल्प के पूर्णकाम होने के मार्ग में अनेक चुनौतियां भी उपस्थित हैं, जिनकी उपेक्षा करना दुस्साहस होगा। सभ्य, कुलीन, नागरिक, शिक्षित, संपन्न तथा प्रतिष्ठित कहे और समझे जाने वाले कतिपय समूहों, व्यक्तियों, संस्थाओं और संगठनों में अभी भी औपनिवेशिक दासता और भारत के प्रति हीनता की मानसिकता अतिव्याप्त है और इससे मुक्ति पाने की राह सबसे कठिन है। भारत की सांस्कृतिक एवं बौद्धिक परंपरा के प्रति उपेक्षा, उपहास तथा सायास दूरी का भाव अभी भी शिक्षा, ज्ञान और विद्या के केंद्रों में सशक्त और समर्थ रूप से विद्यमान है। आधुनिकता को पाश्चात्यीकरण का पर्याय मान चुके बुद्धिजीवियों और कथित आधुनिकों की पश्चिमी संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, प्रतीक, पुस्तक, लेखक, विचार, उत्सव, पर्व, वेशभूषा, आहार, जीवनशैली आदि के प्रति श्रेष्ठता और अनुकरणीयता निरंतर वर्धमान हो रही है। इस दुष्चक्र में भारतीय समाज के प्रत्येक वर्ग तथा क्षेत्र के अनवरत फंसते जाने का सत्य हम स्वीकार कर चुके हैं। इससे पार पाना सरल नहीं है। भारतीयकरण के हमारे अनेक प्रयास अनायास ही पाश्चात्य दृष्टि तथा प्रणाली के मूर्खतापूर्ण अनुकरण में परिवर्तित हो जाते हैं और यह भी एक विचलित करने वाली प्रवृत्ति है। हमेशा की भांति भारतवर्ष में आंतरिक विघ्नसंतोषी भी निरंतर क्रियाशील हैं, जो किसी व्यक्ति, दल, नेता से अपनी असहमति को निजी घृणा के स्तर तक ले जाकर उसे राष्ट्र के प्रति निष्ठा की अनुपस्थिति में रूपांतरित कर बठते हैं। राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के चलते राष्ट्र के संसाधनों को बिना श्रम, बिना प्रयोजन, बिना कारण अमर्यादित रूप से बांटकर चुनावी लाभ लेने की दुष्प्रवृत्ति भी सार्वजनिक स्वीकृति और सहज मान्यता प्राप्त करती जा रही है, जो अत्यधिक चिंता का विषय है। विकसित भारत की यात्रा के कंटक कष्टदायक शूल न बनने पाएं- इसके लिए सभी दिशाओं से समग्र और समवेत प्रयत्न अपेक्षित हैं।

स्वप्न से यथार्थ की यात्रा

शिक्षा के क्षेत्र में भारत लगभग 200 वर्ष की मानसिक दासता की शृंखलाओं को छिन्न-भिन्न करने को उद्यमरत है। भारतीयता का समावेश राष्ट्रीय शिक्षा नीति का सर्वाधिक प्रशंसनीय प्रस्थान बिंदु है। औपनिवेशिक दासत्व से उत्पन्न हीनता-ग्रंथि से छुटकारा पाने की लालसा सर्वत्र प्रसरित हो रही है। भारत आगामी दो दशक में पुनः विश्वगुरु बनने की कल्पना को क्रियात्मकता के पंख लगा रहा है। भारतवर्ष की स्वाधीनता के 100 वर्ष पूर्ण होते समय एक समर्थ, सक्षम, समृद्ध, स्वस्थ भारत का स्वप्न यथार्थ में परिवर्तित होने जा रहा है। भारत अपनी जकड़न से बाहर निकल रहा है और विश्व-जगत में अपनी सार्थक, सकारात्मक तथा प्रभावशाली उपस्थिति अंकित कराने को उत्सुक है। भारत को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनना है। यह किसी सरकार, किसी सत्ता, किसी राजनेता, किसी राजनीतिक दल, किसी प्रशासनिक अभिकरण अथवा किसी समूह का विषय नहीं रह गया है। अब यह संपूर्ण भारतवर्ष का समेकित एवं सामूहिक संकल्प है। यह विश्व-पटल पर भारत के पुनर्जागरण का उद्घोष है। यह समस्त मानव जाति के कल्याण को सर्वोपरि समझने वाली भारतीय सनातन संस्कृति का शंखनाद है। यह सभी भारतीयों की अंतर्निहित जिजीविषा की वैश्विक अभिव्यक्ति है। यह भारतवासियों की वर्षों से सुसुप्त अभिलाषा का सबल प्रस्तुतीकरण है। यह भारत की पुनर्यात्रा का पथ प्रशस्त करने वाली प्रदीप्ति है।

(लेखक महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, मोतिहारी, बिहार के पूर्व कुलपति हैं)