राज कुमार सिंह। वंदे मातरम् के 150 साल पूरे होने पर संसद में हुई चर्चा में दो भाषणों की बड़ी चर्चा हुई। एक प्रधानमंत्री मोदी का, जिन्होंने कांग्रेस पर तीखे हमले किए। दूसरा, कांग्रेस सांसद प्रियंका गांधी वाड्रा का। प्रियंका ने मोदी और भाजपा को निशाने पर रखा, पर उसका असर कांग्रेस की आंतरिक राजनीति में भी दिखने लगा है।

सदन के नेता के नाते प्रधानमंत्री ने वंदे मातरम् पर चर्चा की शुरूआत की। अपेक्षित तो नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी से था, पर कांग्रेस की ओर से मोर्चा संभाला प्रियंका ने। ऐसा क्यों हुआ, यह तो कांग्रेस ही बता सकती है, पर मोदी की भाषण कला की प्रशंसा करते हुए भी प्रियंका हास-परिहास के बीच ही तर्कों और तथ्यों के साथ सत्तापक्ष पर कटाक्षों से सदन को प्रभावित करने में सफल दिखीं।

राहुल गांधी भी बोले, मगर चुनाव सुधार पर चर्चा में। उन्होंने मुख्यत: वोट चोरी के आरोप दोहराए, जो वह पहले लगाते रहे हैं। उनके भाषण में न तो नए तथ्य-तर्क दिखे और न ही प्रियंका की तरह आक्रामक हुए बिना सत्तापक्ष को कठघरे में खड़ा करने की कला।

राहुल वोट चोरी के पुराने आरोप दोहरा भर रहे थे, जबकि प्रियंका वंदे मातरम् विवाद के सभी पहलुओं पर तैयारी करके आई थीं। तथ्यों और तर्कों के साथ अपनी बात कहना ही संसदीय चर्चा की प्रभावी शैली है। प्रियंका ने इसी प्रभावी शैली का परिचय दिया। शायद इसलिए भी खुद कांग्रेस के अंदर राहुल से तुलना करते हुए प्रियंका को बड़ी राजनीतिक भूमिका देने की चर्चा फिर जोर पकड़ने लगी है।

ओडिशा के पूर्व विधायक मोहम्मद मोक्विम ने उम्र के हवाले से मल्लिकार्जुन खरगे को हटाकर प्रियंका गांधी को कांग्रेस का नया अध्यक्ष बनाने की मांग की। उन्होंने राहुल गांधी पर भी अप्रत्यक्ष निशाना साधा। कांग्रेस ने उन्हें निष्कासित कर दिया। टीम राहुल और टीम प्रियंका में कथित टकराव की चर्चाओं को भाजपा द्वारा हवा देने के राजनीतिक निहितार्थ खोजे जा सकते हैं, पर इससे इनकार नहीं कि दोनों की अपनी-अपनी टीम है और देश-प्रदेश में अपने-अपने पसंदीदा नेता भी।

कई प्रसंग बताते हैं कि राहुल और प्रियंका, कांग्रेस में दो सत्ता केंद्र बन गए हैं। माना जाता है कि राहुल को उत्तराधिकारी बनाने तथा पार्टी में दो सत्ता केंद्रों से बचने के मकसद से ही सोनिया ने प्रियंका को परदे के पीछे की भूमिका में रखा। सोनिया और राहुल के चुनाव क्षेत्रों में प्रचार और प्रबंधन संभालती रहीं प्रियंका को राष्ट्रीय महासचिव और उत्तर प्रदेश प्रभारी बनने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ा।

बेशक ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ के नारे के साथ उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में ज्यादा महिला उम्मीदवारों पर प्रियंका का दांव नहीं चला। इसके बावजूद पिछले साल रायबरेली से भी निर्वाचित राहुल द्वारा खाली की गई वायनाड लोकसभा सीट के उपचुनाव में प्रियंका को उम्मीदवार बनाने से उनकी भी जरूरत का संकेत गया। अर्थ निकाला गया कि प्रियंका अपेक्षाकृत अनुकूल दक्षिण भारत में कांग्रेस संभालेंगी, जबकि अध्यक्ष पद से पहले ही मुक्त हो चुके राहुल शेष देश में भाजपा से मोर्चा लेंगे, लेकिन वांछित परिणाम दिखे नहीं।

लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करने के बावजूद कांग्रेस हरियाणा, महाराष्ट्र और बिहार में अपेक्षित प्रदर्शन नहीं कर पाई। विपक्षी गठबंधन में सहयोगी दलों के साथ भी कांग्रेस के रिश्ते सहज नहीं हैं। तीन लोकसभा और अनेक विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद संगठन कांग्रेस की प्राथमिकताओं में नजर नहीं आता। खरगे राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, पर अहम् फैसले राहुल ही ले रहे हैं। हरियाणा में पिछले नेता प्रतिपक्ष को ही पुन: चुनने में लगभग पूरा साल लग गया। दरअसल मां सोनिया की कांग्रेस को राहुल अपना नहीं पा रहे और अपनी पसंद की कांग्रेस बनाने का साहस जुटा नहीं पा रहे, जिसका परिणाम नेताओं के पलायन के रूप में भी सामने आ रहा है।

पदयात्रा से राहुल की छवि बेहतर हुई थी, लेकिन संगठनात्मक कमजोरी के चलते उसका ज्यादा चुनावी लाभ मिला नहीं। राहुल की छवि मोदी पर तल्ख हमले करते हुए टकराव की राजनीति करने वाले नेता की बन गई है। उनकी राजनीति और मुद्दों में निरंतरता का अभाव भी है। लोकसभा चुनाव तक ईवीएम पर निशाना साधते हुए संविधान और आरक्षण को खतरा मुद्दा था तो अब वोट चोरी का नारा बुलंद किया जा रहा है।

बीच-बीच में राहुल जिस तरह विदेश चले जाते हैं, उससे भाजपा को उनकी अगंभीर राजनेता की छवि बनाने का मौका मिलता है। राज्यों के वरिष्ठ नेताओं के लिए भी राहुल से मुलाकात आसान नहीं। इसका असर कांग्रेसियों में पार्टी और अपने भविष्य की चिंता के रूप में सामने आ रहा है। प्रियंका गांधी में उन्हें बेहतर संभावनाएं दिखती हैं।

इंदिरा गांधी की झलक के अलावा राजनीतिक समझ, संवाद और प्रभावी भाषण शैली में प्रियंका, राहुल से बेहतर मानी जाती हैं। इसलिए भी वंदे मातरम् पर संसद में प्रभावशाली भाषण के बाद उन्हें बड़ी राजनीतिक भूमिका की चर्चा जोर पकड़ रही है। प्रियंका का एक ही नकारात्मक पहलू है-पति राबर्ट वाड्रा के विरुद्ध दर्ज मुकदमे। अध्यक्ष के रूप में खरगे का कार्यकाल 2027 तक है। जाहिर है, प्रियंका की किसी भी नई भूमिका का फैसला सोनिया ही करेंगी, लेकिन वह कब और क्या होगी, यह देखना दिलचस्प होगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)