विचार: बढ़ाया जाए सुधारों का दायरा, संस्थागत सुधार भी जरूरी
देश को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाने के लिए एक न्यूनतम आवश्यकता यही है कि जीडीपी की वृद्धि दर लंबे समय तक आठ प्रतिशत से ऊपर ही रहे। इसके अलावा हमें न्यायपालिका, सार्वजनिक प्रशासन और पुलिस में भी संस्थागत सुधार करने होंगे। भूमि सुधारों को लेकर सहमति बनानी होगी।
HighLights
2047 तक विकसित राष्ट्र के लिए जीडीपी वृद्धि जरूरी
न्यायपालिका और प्रशासन में संस्थागत सुधार आवश्यक
भूमि सुधारों पर सहमति बनाना महत्वपूर्ण है
जीएन वाजपेयी। विश्व आर्थिकी की दशा-दिशा बताने वाले अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष यानी आइएमएफ के वैश्विक आर्थिक परिदृश्य के अक्टूबर अनुमान के अनुसार वैश्विक अर्थव्यवस्था में मंदी का रुख कायम रह सकता है। इसमें जोखिम के पहलू बने हुए हैं। इसी पृष्ठभूमि में 28 नवंबर को चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था में तेजी के आंकड़े चौंकाने वाले रहे। इस दौरान जीडीपी में 8.2 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई। यह इस कारण भी बड़ी उपलब्धि लगती है कि वैश्विक मंदी के साये और ट्रंप के टैरिफ से बनी अनिश्चितता के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार और तेज हो गई। पहली तिमाही में जीडीपी ने 7.8 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की थी।
दूसरी तिमाही के दौरान जीडीपी के प्राथमिक क्षेत्र कृषि में 3.5 प्रतिशत, द्वितीयक क्षेत्र उद्योग में 7.7 प्रतिशत, विनिर्माण में 9.1 प्रतिशत और तृतीयक क्षेत्र यानी सेवाओं में 9.2 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज हुई, जो दर्शाता है कि अर्थव्यवस्था का आधार मजबूत है। यही कारण है कि भारत लंबे समय से दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती हुई बड़ी अर्थव्यवस्था बना हुआ है। वैसे इन आंकड़ों पर कुछ लोग संदेह भी जता रहे हैं। हालांकि ऐसे कुछ स्वर वास्तविकता को नहीं उलट सकते।
कोविड महामारी के बाद से ही कायाकल्प और तेजी के मोर्चे पर भारतीय अर्थव्यवस्था साल दर साल विश्लेषकों की कसौटियों पर खरी उतरती आई है। वित्तीय वर्ष 2024 में 9.2 प्रतिशत की जीडीपी वृद्धि को एक तबके ने आंकड़ों की बाजीगरी कहकर खारिज करते हुए आशंका जताई थी कि अगले साल जीडीपी नीचे आ जाएगी। ऐसे लोगों को निराशा ही हाथ लगी, क्योंकि वित्तीय वर्ष 2025 में भारत ने 6.5 प्रतिशत की जीडीपी वृद्धि दर्ज की। इससे दो वर्षों की औसत जीडीपी वृद्धि 7.85 प्रतिशत हो गई, जो संदेह जताने वालों के दावों को निस्तेज करती है।
अगर वर्ष 2000 से ही जोड़ें तो भारत की दीर्घकालिक जीडीपी वृद्धि 6.5 प्रतिशत रही है। स्पष्ट है कि भारत की संभावित जीडीपी वृद्धि सात प्रतिशत से अधिक हो गई है। ऐसे अनुमान के पीछे पिछले एक दशक के दौरान केंद्र सरकार के सुधार और विभिन्न सकारात्मक पहल प्रमुख आधार हैं। अगर वृहद आर्थिक सुधारों की बात की जाए तो अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था में बिखराव को दुरुस्त करते हुए उसे जीएसटी के रूप में सशक्त किया गया है। इसी आर्थिक कड़ी में विधायी मोर्चे पर इनसाल्वेंसी एंड बैंकरप्सी कोड यानी आइबीसी, रियल एस्टेट नियामक प्राधिकरण (रेरा) और मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) जैसे कदम भी अहम रहे हैं।
इस क्रम में बैंकों और कंपनियों के बहीखातों की सेहत सुधारी गई है। डिजिटल खाई को पाटने के लिए राष्ट्रीय डिजिटल सार्वजनिक बुनियादी ढांचे की स्थापना हुई है। राजस्व खर्च की प्रधानता पर उस पूंजीगत व्यय को प्राथमिकता दी गई, जिसने बुनियादी ढांचा निर्माण को गति प्रदान की। राजकोषीय घाटे पर काबू पाने में भी उत्तरोत्तर सफलता मिलती गई। याद रहे कि वर्ष 2013 में भारत को पांच सबसे नाजुक अर्थव्यवस्थाओं में गिना जाता था, जो मुद्रास्फीति से लेकर राजकोषीय घाटा और अन्य अनेक मानदंडों के मामले में संघर्ष कर रही थीं, लेकिन सुधारों की निरंतर सौगात ने हालात बदलने के काम किए हैं।
बीते एक दशक में केंद्र सरकार की कई सकारात्मक पहल के भी अब फल मिलने लगे हैं। लखपति दीदी, मुद्रा ऋण, किसान उत्पादक संगठन यानी एफपीओ इस मामले में उल्लेखनीय हैं। अनुमान है कि वित्त वर्ष 2025 के अंत तक लखपति दीदी की संख्या एक करोड़ पहुंच गई है। इसके लिए तीन करोड़ का लक्ष्य निर्धारित है। मुद्रा योजना के अंतर्गत लगभग 52 करोड़ ऋणों के माध्यम से 33 लाख करोड़ रुपये की राशि जारी हुई है। ई-नैम के रूप में इलेक्ट्रानिक व्यापार पोर्टल देश भर के किसानों और कृषि उत्पाद विपणन समितियों के बीच सेतु बनकर एकीकृत राष्ट्रीय बाजार के रूप में स्थापित हुआ है। ऐसी पहल कौशल विकास, रोजगार सृजन, क्षमता निर्माण और बाजार में स्थायित्व लाने में उपयोगी साबित हुई हैं। इससे हाशिए पर मौजूद समूहों विशेषकर ग्रामीण आबादी के वित्तीय एवं सामाजिक समावेशन का दायरा बढ़कर उनका व्यापक सशक्तीकरण हुआ है।
आर्थिक मोर्चे पर वैश्विक क्षमता केंद्र यानी जीसीसी इस समय की एक बड़ी सफलता है। भारत ऐसी इकाइयों का गढ़ बनता जा रहा है। वर्तमान में 1,700 जीसीसी सक्रिय हैं, जो 19 लाख लोगों को रोजगार देते हैं। इनके जरिये 2024 तक 64.6 अरब डालर का राजस्व सृजित हुआ। अनुमान है कि 2030 तक यह आंकड़ा बढ़कर 100 अरब डालर तक हो सकता है। इसी बीच ‘जन विश्वास’ जैसे कदम जैसे आत्म-प्रमाणन एवं आत्म-मूल्यांकन के प्रविधान करते हैं। कई प्रविधान आपराधिक दायरे से बाहर हुए हैं।
बैंकों, बीमा कंपनियों और म्यूचुअल फंडों द्वारा जन के धन की वापसी के लिए दबाव और कर प्राधिकरण आदि के स्तर से भी यही संकेत उभर रहे हैं कि धीरे-धीरे ही सही शासन की दृष्टि में सुधार हो रहा है। ये कदम बढ़ती आर्थिक भागीदारी, बेहतर बुनियादी ढांचे, घटती लाजिस्टिक्स लागत, आर्थिक उत्पीड़न में कमी और बढ़ते पूंजी उत्पादन अनुपात में रूपांतरित हो रहे हैं। हाल में घोषित श्रम सुधारों और गौबा समिति की सिफारिशों से स्थितियां और सुधर सकती हैं। इससे एमएसएमई को बड़ी राहत मिलने के आसार हैं। यह सही है कि इन सुधारों को 1991 के क्रांतिकारी सुधारों जैसी संज्ञा नहीं दी जा सकती, लेकिन यह तय है कि ये छोटे-छोटे सुधार बड़ी सफलता का आधार बनेंगे।
देश को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाने के लिए एक न्यूनतम आवश्यकता यही है कि जीडीपी की वृद्धि दर लंबे समय तक आठ प्रतिशत से ऊपर ही रहे। इसके अलावा हमें न्यायपालिका, सार्वजनिक प्रशासन और पुलिस में भी संस्थागत सुधार करने होंगे। भूमि सुधारों को लेकर सहमति बनानी होगी। उद्यम अनुबंधों पर अमल में लगने वाले समय और लागत में कमी, भूमि अधिग्रहण और सार्वजनिक सेवाओं के वितरण में सुगमता के लिए लंबे समय से इसकी आवश्यकता महसूस की जा रही है।
(लेखक सेबी और एलआईसी के पूर्व चेयरमैन हैं)













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