विचार: विपक्ष के निशाने पर न्यायपालिका, यह कोशिश महंगी पड़ सकती है
कोई सरकार किसी अदालती फैसले से असहमत है तो क्या उसका रास्ता महाभियोग है? एकल पीठ के विरुद्ध बड़ी पीठ का विकल्प है। सुप्रीम कोर्ट का रास्ता भी खुला था। इसके बजाय सीधे महाभियोग प्रस्ताव लाने की कोशिश से यही लगता है कि तमिलनाडु सरकार ऐसा माहौल बनाना चाहती है, जिससे आगे अदालतें उसके मनमाफिक ही फैसला दें। यह न्यायपालिका को दबाव में लेने की कोशिश है। यह कोशिश द्रमुक और उसके साथी दलों को महंगी पड़ सकती है।
HighLights
जस्टिस स्वामीनाथन के खिलाफ द्रमुक की लामबंदी
महाभियोग का नोटिस गठबंधन की राजनीति का विस्तार
अल्पसंख्यकवाद की राजनीति के केंद्र में द्रमुक
उमेश चतुर्वेदी। तमिलनाडु में जिस तरह कार्तिगई दीपम परंपरा स्थापित करने का आदेश देने वाले मद्रास हाई कोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस जीआर स्वामीनाथन के खिलाफ द्रमुक और उसके सहयोगी दलों ने लामबंदी की, उससे यही संकेत मिल रहे हैं कि इस गठजोड़ के घटक बिहार के नतीजों से कोई सबक सीखने को तैयार नहीं। द्रमुक सांसद कनिमोई की अगुआई में आइएनडीआइए के 120 सांसदों द्वारा स्वामीनाथन के खिलाफ महाभियोग का नोटिस देना गठबंधन की पारंपरिक राजनीति का ही विस्तार है। गठबंधन यह पचा नहीं पा रहा कि किसी जज ने बहुसंख्यक सनातनी परंपरा स्थापित करने का निर्णय दे दिया।
मदुरई जिले की तिरुपरनकुंद्रम की पहाड़ी की चोटी पर कार्तिगई दीपम की परंपरा को स्थापित करने की मंजूरी दी, जिसे 1920 के एक विवाद के बंद कर दिया गया था। द्रमुक की अगुआई वाली तमिलनाडु सरकार ने विवाद की आशंका के बहाने स्वामीनाथन के फैसले को लागू ही नहीं होने दिया। दिलचस्प है कि अल्पसंख्यक समुदाय ने इसका विरोध भी नहीं किया, बल्कि सरकार ने ही विवाद भड़काया।
राज्य सरकार ने स्वामीनाथन के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील भी की, लेकिन उसे यह भी लगा कि अगर उसने जज को सबक नहीं सिखाया तो सेक्युलरवाद की बुनियाद पर टिकी उसकी राजनीति में दरार पड़ सकती है। जज को सबक सिखाने और न्यायपालिका पर अंकुश लगाने के द्रमुक के इस कदम में सबसे हैरतअंगेज कदम है विपक्षी गठबंधन के अन्य घटकों का बढ़-चढ़कर हिस्सा लेना। लोकसभा अध्यक्ष को महाभियोग प्रस्ताव पेश करते वक्त कनिमोई के साथ कांग्रेस नेताओं और अखिलेश यादव की मौजूदगी के संकेत गहरे हैं। विपक्षी दल अल्पसंख्यक समुदाय को यह संकेत देने की कोशिश में हैं कि सिर्फ आइएनडीआइए ही उसके हितों के लिए किसी जज को भी निशाना बना सकता है। विपक्षी गठबंधन की कोशिश कुछ महीने बाद होने वाले तमिलनाडु विधानसभा चुनावों के लिए राज्य की करीब छह प्रतिशत अल्पसंख्यक आबादी को लुभाना है। चूंकि द्रमुक की राजनीति के केंद्र में अल्पसंख्यकवाद का भी मंत्र रहा है, इसलिए कार्तिगई दीपम की परंपरा को रोकने में उसे कोई हिचक नहीं हुई।
इस पूरे मसले पर चर्चा से पहले जानना जरूरी है कि कार्तिगई दीपम त्योहार है क्या? दक्षिण के दीप पर्व के रूप में विख्यात कार्तिगई दीपम भगवान मुरुगन के सम्मान में तमिल महीने में दीप जलाने की परंपरा है। मान्यता है कि ब्रह्मा और विष्णु के बीच विवाद को सुलझाने के लिए शिवजी स्वयं अनंत अग्निस्तंभ के रूप में प्रकट हुए थे। उसी स्तंभ की स्मृति स्वरूप उचिपिल्लायर मंदिर के पास प्राचीन दीपाथुन नामक स्तंभ के नजदीक महादीपक जलाया जाता है। तिरुपरनकुंद्रम की पहाड़ी पर भी इसकी परंपरा रही, लेकिन बाद में वहां मंदिर के नजदीक एक दरगाह स्थापित हो गई।
दरगाह के बाद सेक्युलरवाद को बढ़ावा देना जरूरी था, लिहाजा दीपम की परंपरा अधिकारियों ने रोक दी। इसे ही शुरू करने को लेकर अदालती हस्तक्षेप की मांग की गई। पहले मदुरई की जिला अदालत में मामला चला और बाद में मद्रास हाई कोर्ट में सुनवाई हुई, जिसकी सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति जीआर स्वामीनाथन ने पहाड़ी पर दीप जलाने की परंपरा शुरू करने का आदेश दिया। इसके बाद पहाड़ी पर तीन दिसंबर को श्रद्धालुओं का जमावड़ा होने लगा, लेकिन पुलिस ने उन्हें रोक दिया। द्रमुक सरकार के इस दांव ने भाजपा को एक बड़ा मुद्दा दे दिया। वह पूछ रही है कि आखिर राज्य के हिंदुओं ने कौन सी गलती की है कि उन्हें दीप जलाने के अधिकार के लिए अदालत का रुख करना पड़ा और वहां से अनुकूल आदेश मिलने के बाद भी उसका पालन नहीं होने दिया गया?
द्रमुक की पूर्ववर्ती जस्टिस पार्टी की स्थापना 1916 में हुई थी। उसकी स्थापना ब्राह्मणवाद के विरोध के लिए हुई थी। कालांतर में उसकी ब्राह्मणवाद विरोध की राजनीति बढ़ते-बढ़ते ब्राह्मण विरोध पर केंद्रित हो गई। बाद में उसके विरोध के दायरे में हिंदी और पूरी सनातन परंपरा समा गई। यही वजह है कि स्टालिन कुनबे को हिंदुत्व की कटु आलोचना से कभी परहेज नहीं रहता। अहर्निश हिंदी विरोध और अब कार्तिगई दीपम का विरोध इसी परंपरा का विस्तार है।
विपक्षी गठबंधन को इन दिनों संविधान बचाने की बहुत चिंता है। ‘संविधान खतरे में है’ की आवाज बुलंद करने वाले विपक्षी गठबंधन की नजर में न्याय वही है, जो उनके नैरेटिव के हिसाब से हो, अन्यथा वह सेक्युलरवाद का विरोध है। राम मंदिर पर सर्वोच्च न्यायालय के फैसले को ये दल अब भी दिल से स्वीकार नहीं कर पाए हैं। इसी क्रम में अब स्वामीनाथन पर भी निशाना साधा जा रहा है। इसने एक बार फिर विपक्षी गठबंधन की अल्पसंख्यकपरस्त सियासी रणनीति का चेहरा उजागर किया है।
कोई सरकार किसी अदालती फैसले से असहमत है तो क्या उसका रास्ता महाभियोग है? एकल पीठ के विरुद्ध बड़ी पीठ का विकल्प है। सुप्रीम कोर्ट का रास्ता भी खुला था। इसके बजाय सीधे महाभियोग प्रस्ताव लाने की कोशिश से यही लगता है कि तमिलनाडु सरकार ऐसा माहौल बनाना चाहती है, जिससे आगे अदालतें उसके मनमाफिक ही फैसला दें। यह न्यायपालिका को दबाव में लेने की कोशिश है। यह कोशिश द्रमुक और उसके साथी दलों को महंगी पड़ सकती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक समीक्षक हैं)













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