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    विचार: उद्योगपतियों के प्रति रवैया बदले विपक्ष, ट्रंप टैरिफ वॉर को कर दिया था नाकाम

    By Prof. Amitabh SrivastavaEdited By: Narender Sanwariya
    Updated: Sun, 14 Dec 2025 10:23 PM (IST)

    जिस दौर में अमेरिकी राष्ट्रपति अपनी मोटर साइकिल कंपनी के हित को अपने देश का हित बता रहे हों, उस दौर में भारत के व्यवसायियों के वाजिब हितों के लिए कौन ...और पढ़ें

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    प्रो. अमिताभ श्रीवास्तव। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारतीय धान पर टैरिफ लगाने की परोक्ष धमकी देकर भारत को डराने की फिर कोशिश की है, पर तथ्य इस बात के गवाह हैं कि ट्रंप प्रशासन स्वयं डरा हुआ है। पचास प्रतिशत टैरिफ का ट्रंप कार्ड ‘जोकर’ साबित हो चुका है। इसका क्रेडिट काफी हद तक भारतीय उद्योगपतियों को जाता है, जो दुर्भाग्य से अपने ही देश में विपक्ष के हमलों का शिकार हो रहे हैं। मौजूदा विश्व अर्थव्यवस्था में हर देश अपने उद्योगपतियों को मूल्यवान समझता है।

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    याद कीजिए लगभग तीन दशक पहले गेट यानी जनरल एग्रीमेंट आन टैरिफ एंड ट्रेड के जरिए भारत समेत विकासशील देशों पर दुनिया भर में टैरिफ कम करने का दबाव डाला गया था। आज अमेरिका खुद उसी टैरिफ की आड़ ले रहा है। अंतरराष्ट्रीय व्यापार कानून का उल्लंघन हो रहा है। घरेलू मोर्चे पर एलन मस्क जैसे बड़े उद्योगपति ट्रंप से मुंह मोड़ चुके हैं। ट्रंप के दबाव के बावजूद हाल में माइक्रोसाफ्ट और गूगल ने भारत में बड़े निवेश की घोषणा की है, पर लाख टके की बात यह है जब तक हम अपने उद्योगपतियों को ताकत नहीं देते, विकसित देशों के उद्योगपतियों से मुकाबला कठिन है।

    हाल में रूसी प्रतिनिधिमंडल में तेल और ऊर्जा क्षेत्र के रोसनेफ्ट, स्बेयर बैंक, यूरिया उत्पादन से जुड़ी यूराल नेट, हथियार उत्पादन के लिए मशहूर रोजोबारोनेक्सपोर्ट जैसी कंपनियों के आला अधिकारी आए थे। वहीं भारत की ओर से टाटा, अंबानी, अदाणी किसी की भी रूसी प्रतिनिधिमंडल से सीधी बात नहीं हुई। ऐसा नहीं कि सीधी बात न होने से भविष्य में व्यापार की सारी संभावनाएं ही समाप्त हो गई हों, पर यह भी साफ है कि रूसी राष्ट्रपति की मौजूदगी में भारत की प्रमुख कंपनियों की उपस्थिति एक सकारात्मक असर डालती। यह अवसर हम चूक गए। शायद नीति निर्धारकों का सोच यह रहा हो कि कुछ अहम समूहों की उपस्थिति सियासी विवाद को जन्म देती और संसद सत्र के दौरान सरकार कोई मुद्दा विपक्ष को देने को तैयार नहीं थी।

    जरा सोचिए कि अफगानिस्तान में आतंक के दौरान भारतीय कंपनियों ने किन परिस्थिति में कार्य किया होगा और भारत सरकार ने तब उन्हें संरक्षण देकर सही किया या गलत? और आज फार्मा से लेकर शिक्षा के क्षेत्र में निजी कंपनियों को अफगानिस्तान में भेजा जाना क्या जरूरी नहीं है? अफगानिस्तान ही नहीं, नेपाल, श्रीलंका, ईरान, अफ्रीका आदि देशों में अपने हितों की पूर्ति के लिए सरकार ने भारतीय उद्योगपतियों से सहयोग लिया और आवश्यक संरक्षण प्रदान किया। घरेलू मोर्चे पर भी संकट के समय वैक्सीन का अतिरिक्त उत्पादन हो या ऊर्जा संकट के दौर में वैकल्पिक ऊर्जा पर जोर, सभी कुछ निजी कंपनियों के जरिए हासिल किया गया, पर कभी तीन सौ तो कभी तीन व्यावसायिक समूहों के नाम पर विपक्ष सरकार को घेरता रहा है।

    भले स्वशासित राज्यों में उद्योगपतियों को महत्व देने के लिए खुलेआम भ्रष्टाचार तक का सहारा लिया गया हो। विपक्ष के नेता को वैचारिक खाद-पानी दे रहे एक वामपंथी नेता के पुत्र रियल स्टेट और बिस्किट फैक्ट्री के क्षेत्र में बंगाल के बड़े उद्योगपति बने। उनके उत्थान का काल सबसे लंबे दौर तक बंगाल में चला पिता जी का कार्यकाल ही रहा। उनकी ईस्टर्न बिस्किट कंपनी पर भी 37.68 लाख रुपये बकाये का केस बना। अदालत ने अन्य अपेक्षाओं के साथ पंद्रह लाख रुपये की बैंक गारंटी का आदेश दिया, जो नहीं भरी गई। बाद में अंतरिम आदेश रद हो गया। फाइल वर्षों बाद 2005 में मिली।

    आज वामपंथ के असर से मुक्ति पाकर बड़ी मुश्किल से अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर भारत ने तमाम कामयाबी हासिल की है। जापान पिछड़ चुका है और अब जर्मनी की बारी है, लेकिन सच यह भी है भारत की अर्थव्यवस्था जहां अब तक पांच ट्रिलियन (लाख करोड़) डालर का आंकड़ा नहीं छू पाई है वहीं अमेरिका और चीन की अर्थव्यवस्थाएं तीस और बीस ट्रिलियन डालर से ऊपर की हो चुकी हैं। यानी अभी काफी कुछ किया जाना है, क्योंकि दुनिया आकाश से आई आवाज ही सुनती है। ताकतवर प्रतिद्वंद्वियों के साथ क्या करते हैं यह पहले चीन और फिर ट्रंप के बर्ताव से साफ है। दुनिया में आवाज शिखर की सुनी जाती है। बाकी आवाज या तो दब जाती है या उन आवाजों का दम घोंटने की कोशिश की जाती है।

    ट्रंप का मौजूदा रूप आपको यकीनन अजीब लग रहा होगा, लेकिन सच यह भी है कि ट्रंप से पहले भी समय-समय पर अमेरिका ने इसी तरह से भारतीय हितों में बाधा डालने का प्रयास किया था। यह बात अलग है कि डरावने नाखूनों वाले शरीर पर तब नफासत की नकाब लगी थी। याद कीजिए वह दौर जब भारतीय कपड़ों की खेप को यह कह कर लौटाया गया था कि इसमें आग लग जाती है। फलों की खेप कीटनाशक का ज्यादा प्रयोग कह कर लौटा दी जाती थी, पर जब अमेरिकी पेय पदार्थों में कीटनाशकों का मामला आया तो पूरा अमेरिका प्रशासन मोर्चा संभालने लगा।

    जिस दौर में अमेरिकी राष्ट्रपति अपनी मोटर साइकिल कंपनी के हित को अपने देश का हित बता रहे हों, उस दौर में भारत के व्यवसायियों के वाजिब हितों के लिए कौन लड़ेगा? समाज और राजनीति, दोनों को व्यापार जगत के अपने योद्धाओं यानी उद्योगपतियों के प्रति रवैया बदलना होगा। ध्यान यह भी रहे व्यवसायियों को भी समाज के प्रति अपने दायित्व का पालन करना होगा।

    (लेखक राजस्थान केंद्रीय विश्वविद्यालय में सामाजिक विज्ञान संकाय के अध्यक्ष हैं)