विचार: स्थापित करने होंगे जवाबदेही के मानदंड, इंडिगो प्रकरण से लाखों हवाई यात्रियों को पीड़ा पहुंची
तेजी से वृद्धि कर रही भारतीय अर्थव्यवस्था में विमानन क्षेत्र की अहम भूमिका होगी। इसलिए यह आवश्यक है कि इंडिगो की मौजूदा समस्याएं उन पहलुओं के समाधान तलाशने की दिशा में उन्मुख करें कि कंपनियों की लापरवाही का खामियाजा जनता और अर्थव्यवस्था को न भुगतना पड़े। इसके साथ यह भी आवश्यक है कि एक महत्वपूर्ण क्षेत्र विशेष में किसी कंपनी का इतना वर्चस्व न हो जाए कि उसकी समस्याएं पूरे देश को नुकसान पहुंचाएं।
HighLights
इंडिगो की उड़ानें रद्द होने से यात्रियों को परेशानी
पायलटों की कमी मुख्य कारण
जवाबदेही तय करने की जरूरत
विवेक काटजू। देश की सबसे बड़ी विमानन कंपनी इंडिगो एयरलाइंस का परिचालन इस महीने की शुरुआत में ऐसा लड़खड़ाया कि अभी तक कुछ समस्याएं कायम हैं। विमानन बाजार में करीब 65 प्रतिशत हिस्सेदारी वाली कंपनी की उड़ानों में देरी और उनके रद होने से यात्रियों की परेशानियां बढ़ना स्वाभाविक था। हालांकि अब कुछ स्थिति सुधरी है, लेकिन पूर्ण राहत अभी दूर है। सेवाओं में इस गतिरोध से न केवल लाखों हवाई यात्रियों को पीड़ा पहुंची, बल्कि इससे भारत की छवि पर भी आघात हुआ।
सरकार ने हस्तक्षेप करते हुए इंडिगो पर कार्रवाई भी की है। यह तो जांच में ही सामने आएगा कि इस अराजकता के क्या कारण रहे, किंतु प्रथमदृष्ट्या पायलटों के लिए अधिक विश्राम संबंधी नियमों की पूर्ति के लिए अपेक्षित प्रयास न करने को इसका मुख्य कारण माना जा रहा है। कंपनी के पास पायलटों की संख्या बढ़ाने के लिए पर्याप्त समय था, पर वह हाथ पर हाथ धरे बैठी रही।
इंडिगो प्रकरण में एक प्रश्न यह भी उभरा है कि कंपनियों के मामले में सरकार को आखिर कब हस्तक्षेप करना चाहिए? समस्याओं के पहले या उनके उत्पन्न होने के बाद? विशेषकर तब जब उनकी लापरवाही से जनता और देश को नुकसान पहुंचने की आशंका हो। यह प्रश्न राजनीतिक जवाबदेही की ओर भी ले जाता है। यह मुद्दा किसी विशेष सरकार या पार्टी से संबंधित नहीं है, बल्कि पूरे राजनीतिक वर्ग और भारत की राजनीतिक संस्कृति से संबंधित है। हमें सार्वजनिक क्षेत्र यानी पीएसयू और निजी कंपनियों की प्रकृति एवं स्वरूप में अंतर को भी समझना होगा।
पीएसयू सरकारी स्वामित्व में होती है। उनकी जिम्मेदारी संबंधित मंत्रालयों और विभागों की होती है। संबंधित मंत्री के माध्यम से सरकार इन सार्वजनिक कंपनियों को लेकर संसद के प्रति उत्तरदायी होती है। निजीकरण से पहले विमानन में सरकारी कंपनी को ही अनुमति थी। तब एयरलाइंस ने अपने परिचालन को लेकर ऐसी लापरवाही दिखाई होती तो नागरिक उड्डयन मंत्री को संसद में प्रश्नों का उत्तर देना पड़ता।
यह सच है कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों का वास्तविक संचालन-प्रबंधन भी खांटी पेशेवरों द्वारा किया जाता है और संबंधित मंत्रियों से अपेक्षा नहीं की जाती कि वे रोजमर्रा के कामकाज में हस्तक्षेप करें। हालांकि, यह सुनिश्चित करना उनका राजनीतिक कर्तव्य है कि वे इसके लिए उचित व्यवस्था बनाएं। इस क्रम में वे वरिष्ठ लोकसेवकों को दायित्व सौंपते हैं। संबंधित लोक सेवकों को इन कंपनियों की स्थिति के बारे में सूचित रखना होता है। उनकी ओर से किसी भी उभरती समस्या के बारे में चेतावनी दी जाए। ऐसी संभावित समस्या जिससे लोगों के हित प्रभावित हो सकते हों।
ऐसे में, मंत्री यह बहाना नहीं बना सकते कि लोक सेवक उन्हें अंधेरे में रखते हैं, क्योंकि यह भी मंत्रियों की जिम्मेदारी है कि वे उचित लोक सेवकों का चयन करें जो अपने कर्तव्यों को प्रभावी ढंग से निभाएं। कुल मिलाकर, सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के मामले में सरकार और संबंधित मंत्रियों की संसद के प्रति और उनके माध्यम से जनता के प्रति राजनीतिक जवाबदेही सीधी होती है। यह एक अलग मामला है कि कई दशकों से राजनीतिक वर्ग ने हमेशा प्रशासनिक विफलताओं की जिम्मेदारी लोक सेवकों और प्रबंधकों पर डालने की कोशिश की है। स्वतंत्रता के बाद के शुरुआती वर्षों में मंत्रियों ने नैतिक जिम्मेदारी ली और यहां तक कि इस्तीफा भी दिया। वह दौर बहुत पहले ही बीत चुका है। मंत्रियों से जुड़ी कंपनियों में भ्रष्टाचार का मामला एक अलग श्रेणी में आता है।
उदारीकरण के साथ अर्थव्यवस्था के प्रमुख क्षेत्रों को निजी क्षेत्र के लिए खोला गया। इसका ही परिणाम है कि इंडिगो जैसी भीमकाय कंपनियां उभरीं, जो अपने बाजार के एक बड़े हिस्से पर काबिज होकर उसे नियंत्रित करती हैं। ऐसी स्थिति केवल कुछ कानूनों में परिभाषित आवश्यक वस्तुओं तक ही सीमित नहीं है, बल्कि उन क्षेत्रों तक भी है जो ऐसे कानूनों के अंतर्गत नहीं आते। जैसे कि सीमेंट और बिजली उत्पादन क्षेत्र। इन क्षेत्रों में निजी कंपनियों की विफलता से अर्थव्यवस्था पर बड़ा नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। बड़ी निजी कंपनियां स्वतंत्र निदेशकों के साथ बोर्ड द्वारा प्रबंधित की जाती हैं, जो यह सुनिश्चित करने के लिए जिम्मेदार होते हैं कि कंपनियां कानूनों और नियमों के अनुसार संचालित हों।
यह स्पष्ट है कि इंडिगो का बोर्ड अपनी जिम्मेदारी निभाने में विफल रहा। चूंकि इन कंपनियों के संचालन में सार्वजनिक हित जुड़े होते हैं, इसलिए ऐसे तंत्र स्थापित करने की आवश्यकता है जो यह सुनिश्चित करें कि अधिकारियों को समय पर सूचित किया जाए कि कंपनी में सब कुछ ठीक नहीं है। इसका मतलब यह नहीं होगा कि कंपनी के प्रबंधन में सरकार का हस्तक्षेप होगा। इसके लिए यह आवश्यक होगा कि सरकार और कंपनियां दोनों संतुलन के साथ कार्य करें। यह अच्छी बात है कि राजनीतिक वर्ग और उद्योग जगत में इस मोर्चे पर परिपक्वता दिखती है।
नियामकीय संस्थाओं की जिम्मेदारी है कि वे इसकी निगरानी करें कि कोई कंपनी नियमों के पालन को लेकर सही दिशा में बढ़ रही है या नहीं। इंडिगो के मामले में नागरिक उड्डयन महानिदेशालय यानी डीजीसीए की यही जिम्मेदारी थी। क्या डीजीसीए ने इस पर नजर रखी कि इंडिगो नए नियमों के अनुपालन को लेकर आवश्यक पायलटों की भर्ती के लिए प्रयास कर रही है? क्या उसने मंत्रालय के अधिकारियों को वस्तुस्थिति से अवगत कराया, जिससे जानकारी और आगे बढ़ती। ये प्रश्न किसी को आलोचना के कठघरे में खड़ा करने के लिए नहीं, बल्कि इसलिए हैं ताकि इंडिगो प्रकरण से सबक सीखकर यह सुनिश्चित किया जाए कि भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो। जवाहदेही के राजनीतिक एवं प्रशासनिक मानदंड तो स्थापित करने ही होंगे।
तेजी से वृद्धि कर रही भारतीय अर्थव्यवस्था में विमानन क्षेत्र की अहम भूमिका होगी। इसलिए यह आवश्यक है कि इंडिगो की मौजूदा समस्याएं उन पहलुओं के समाधान तलाशने की दिशा में उन्मुख करें कि कंपनियों की लापरवाही का खामियाजा जनता और अर्थव्यवस्था को न भुगतना पड़े। इसके साथ यह भी आवश्यक है कि एक महत्वपूर्ण क्षेत्र विशेष में किसी कंपनी का इतना वर्चस्व न हो जाए कि उसकी समस्याएं पूरे देश को नुकसान पहुंचाएं।
(लेखक विदेश मंत्रालय में सचिव रहे हैं)













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