दिव्य कुमार सोती। बीते दिनों जब दक्षिण कोरिया के बुसान में अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग से भेंट की थी तो उन्होंने इस भेंट को जी-2 का नाम दिया था। यानी उन्होंने एक तरह से मान लिया कि अमेरिका के बाद चीन दूसरी विश्व महाशक्ति बन चुका है, जिसे रोकना अब उसके वश की बात नहीं है और सोवियत संघ के विघटन के बाद एकध्रुवीय विश्व अब फिर से द्विध्रुवीय है। अपने पहले कार्यकाल में ट्रंप चीन को सबक सिखाने की बातें किया करते थे, पर अब उनके सुर पूरी तरह बदल चुके हैं।

वैसे ट्रंप इस वार्ता से पहले ही चीनी उत्पादों पर 100 प्रतिशत टैरिफ लगाने की योजना को एक साल के लिए स्थगित कर चुके थे। फिलहाल चीनी उत्पादों पर अमेरिका 47 प्रतिशत का ही टैरिफ लगा रहा है। भारत जिसके साथ सामरिक साझेदारी को अमेरिकी नेता पिछले दो दशक से 21वीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय साझेदारी बताते नहीं थकते, उसके उत्पादों पर 50 प्रतिशत का टैरिफ है, जबकि अमेरिका अपने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी देश चीन पर उससे कम टैरिफ लगा रहा है।

ट्रंप से जब ताइवान पर चीनी हमले के खतरे के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वह जब होगा, तब देखेंगे। ट्रंप ने यह नहीं कहा कि वे ट्रेड डील का भय दिखाकर ताइवान को चीनी हमले से बचा लेंगे। इससे उलट ट्रंप हर तीन-चार दिन में भारत को लज्जित करने के लिए आपरेशन सिंदूर रुकवाने का झूठा दावा यह कहकर करते हैं कि उन्होंने व्यापारिक समझौता न करने का भय दिखाकर संभावित परमाणु युद्ध रुकवा दिया। रूस से कच्चा तेल भारत और चीन, दोनों ही आयात कर रहे हैं, पर ट्रंप प्रशासन हाथ धोकर भारत के ही पीछे पड़ा है। इस सबसे समझा जा सकता है कि चीन के सामने नतमस्तक अमेरिकी शासन तंत्र ने अब यह ठाना है कि अगर चीन विश्व की दूसरी महाशक्ति बन ही गया है और उसे रोकना उसके वश की बात नहीं रही है तो कम से कम भारत और रूस का उभार तो रोका ही जाए।

चीन की इस मजबूत स्थिति के पीछे उसकी सामरिक रूप से महत्वपूर्ण तकनीक के अनुसंधान और उत्पादन में पहल करने की दशकों की नीति रही है। चीनी रणनीतिकारों ने ऐसे सेक्टरों और तकनीकी उत्पादों को चिह्नित किया, जिनके माध्यम से अमेरिका और विश्व को अपने ऊपर निर्भर बनाया जा सके। परिणामस्वरूप चीन आज ऐसे कई उत्पादों की आपूर्ति शृंखलाओं को नियंत्रित करता है और उनके माध्यम से उसने ट्रंप के टैरिफ युद्ध का मुंहतोड़ जवाब दिया है। ट्रंप ने चीन के उत्पादों पर 100 प्रतिशत टैरिफ लगाने की धमकी दी तो उसने अमेरिका को रेयर अर्थ मैगनेट्स की आपूर्ति रोक दी, जिससे अमेरिका का उद्योग जगत परेशान हो उठा और ट्रंप को टैरिफ लगाने की अपनी योजना को स्थगित करना पड़ा। दुर्लभ भूगर्भीय खनिज आज अंतरिक्ष यानों, रक्षा उपकरणों, इलेक्ट्रिक कारों से लेकर हेडफोन बनाने के लिए आवश्यक हैं और ये आवश्यक होंगी, यह चीन बहुत पहले पहचान चुका था।

चीन ने 1960 के दशक में ही इन दुर्लभ खनिजों के बारे में जानने-समझने के लिए अपने लोगों को अमेरिका भेजना प्रारंभ कर दिया था। 1970 के दशक में चीनी सरकार ने इन खनिजों का औद्योगिक उत्पादन प्रारंभ कराया और 1980 के दशक में दुर्लभ खनिजों से जुड़े उद्योगों को सामरिक रूप से महत्वपूर्ण सेक्टर का दर्जा दे दिया। जिसके चलते इस सेक्टर को चीन में सरकारी सब्सिडी और निवेश मिलने लगा। इसका प्रभाव यह हुआ कि 1990 के दशक में ही चीन ने दुर्लभ खनिज उत्पादन में अमेरिका को पीछे छोड़ दिया। आज चीन विश्व के 85 प्रतिशत दुर्लभ खनिज शोध उद्योग को नियंत्रित करता है।

ऐसे कई क्षेत्र हैं जिनमें अमेरिका और यूरोप आज चीन पर निर्भर हैं। चीन आज विश्व के 60 प्रतिशत सेमीकंडक्टर चिप्स, 75 प्रतिशत लिथियम बैटरियां, 80 प्रतिशत सोलर पैनल, 95 प्रतिशत पोलिसिलिकान वैफर बनाता है। भविष्य की क्वांटम कंप्यूटिंग के लिए आवश्यक 60 प्रतिशत घटक चीन ने अभी से बनाने शुरू कर दिए हैं। इसलिए ट्रंप चीन के सामने नतमस्तक हैं। अमेरिका चीन पर प्रतिबंध लगा सकता है तो चीन भी जवाब में अमेरिका को ऐसी वस्तुओं का निर्यात रोक सकता है, जिनके चलते अमेरिका की अर्थव्यवस्था डूब सकती है।

इसकी तुलना में भारत के पास ऐसा क्या है, जो अमेरिका से सौदेबाजी के लिए उपयोग किया जा सके? हमने ऐसे कौन से सामरिक उद्योग विकसित किए हैं, जो विश्व को हम पर निर्भर बनाते हों? अमेरिका द्वारा आयात की जाने वाली जेनरिक दवाओं में से 25-30 प्रतिशत अवश्य भारत में बनती हैं, परंतु उनके लिए 60-75 प्रतिशत कच्चा माल या एपीआइ भारत चीन से आयात करता है। आर्थिक सुधारों के 35 वर्षों बाद यह बेहद शर्मनाक स्थिति है।

चीन ने दुनिया को खुद पर निर्भर बनाने के लिए सामरिक सेक्टरों और तकनीकी में दशकों तक बिना लाभ की आकांक्षा किए निवेश किया है। भारत में न तो नेता ये करने को तैयार हैं और न ही उद्योगपति। उद्योगपति नई तकनीकों के विकास की जगह वस्तुओं और आमजन को सेवाएं देकर लाभ कमाने में व्यस्त हैं। जब चीन जैसे देश किसी तकनीकी में प्रभुत्व बना लेते हैं तो उसके 10-20 साल बाद याद आता है कि हमें भी यह करना चाहिए। तब तक वह तकनीक पुरानी हो चुकी होती है। हमारा सरकारी तंत्र आज तक यह नहीं समझ पाया कि बढ़त उसे हासिल होती है, जो सबसे पहले किसी क्षेत्र में कदम बढ़ाता है।

किसी क्षेत्र में पहल करने वाला देश ही सही अर्थों में आत्मनिर्भर होता है। अगर भारत को सही अर्थों में आत्मनिर्भर बनाना है और विश्व को अपने पर निर्भर बनाना है तो यह देखना होगा कि आज से दस-बीस साल बाद दुनिया की आवश्यकता क्या होगी और उन तकनीकों पर अभी से अनुसंधान और निवेश करना होगा, ताकि समय आने पर ऐसी सामरिक तकनीकी हम विश्व बाजार को दे सकें और उसे अपने पर निर्भर बना सकें। अगर हम किसी भी तकनीकी के क्षेत्र में बीस साल विलंब से शुरुआत करेंगे तो न तो कभी सही अर्थों में आत्मनिर्भर बन सकेंगे और न ही वैश्विक आर्थिक महाशक्ति।

(लेखक काउंसिल ऑफ स्ट्रैटेजिक अफेयर्स से संबद्ध सामरिक विश्लेषक हैं)