तरुण गुप्त। बीते दिनों भारतीय हवाई अड्डों पर भारी अराजकता दिखी। इस स्थिति को कैसे अभिव्यक्त किया जाए? परिदृश्य निर्धारण की प्रक्रिया में ऐसे असामान्य घटनाक्रम को विश्लेषक प्राय: ब्लैक स्वान और ग्रे स्वान जैसी संकल्पनाओं से निर्धारित करते हैं। इनमें ब्लैक स्वान एक अप्रत्याशित, अनपेक्षित एवं अनजानी घटना होती है। इसके गंभीर और प्रतिकूल परिणाम निकलते हैं। क्या इंडिगो की उड़ानों में देरी और रद होने को इस श्रेणी में रखा जा सकता है? इसकी पड़ताल करें तो पायलटों के लिए अधिक विश्राम एवं संशोधित रोस्टर के सरकारी नियम दो साल पहले ही बन गए थे। विमानन कंपनियों को इसके पालन की तैयारी के लिए पर्याप्त समय दिया गया। इसमें कुछ भी अप्रत्याशित एवं अनिश्चित नहीं था। स्वाभाविक है कि अनुपालन के अभाव में अव्यवस्था उपजनी ही थी और ऐसा ही हुआ भी।

ग्रे स्वान घटनाक्रम का यह आशय होता है कि किसी घटना की भविष्यवाणी के बावजूद वह असंभावित होती है। ऐसी घटना का भारी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। इंडिगो प्रबंधन संभवत: इसी भ्रम में रहा कि सख्त दिशानिर्देश दिखावटी पहल हैं, जिन पर शायद ही अमल हो। संशोधित नियमों को लेकर लंबे समय तक शिथिलता, अनुपालन की सीमा बढ़ाते रहने के बावजूद क्या यह वाकई इतना अप्रत्याशित था कि कभी तो प्राधिकारी संस्था विमानन सुरक्षा और बेहतर कार्यसंस्कृति की दिशा में अग्रसर होगी?

ब्लैक और ग्रे स्वान को लेकर ऊहापोह के बीच मुझे रेड स्वान अधिक उपयुक्त लगा। यह ऐसे परिदृश्य का संकेत करता है, जिसकी संभावना काफी अधिक होती है। अक्सर चर्चा के साथ उसकी चेतावनी भी दी जाती है। इसके बावजूद जिम्मेदार लोगों की निष्क्रियता के कारण प्रतिकूल परिणामों का सामना करना पड़ता है। डीजीसीए ने संशोधित उड़ान ड्यूटी समय सीमा (एफडीटीएल) की घोषणा करीब दो वर्ष पहले कर दी थी। इंडिगो इससे भलीभांति अवगत भी थी।

फिर भी, उसने इसे अनदेखा करना ही उचित समझा जो नितांत अनुचित था। स्पष्ट है कि वह नए नियमों से पड़ने वाले वित्तीय बोझ से बचना चाहती थी। यह कुछ और नहीं, बल्कि बाजार की अग्रणी कंपनी की मनमानी का उदाहरण है। अव्यवस्था के बाद से ही इस प्रकरण से जुड़े विभिन्न पक्ष सफाई देने में लगे हैं। सरकार ने फिलहाल संशोधित नियम कुछ समय के लिए टालते हुए किराये की सीमा तय कर दी है। इंडिगो ने क्षमायाचना करते हुए बुकिंग धनराशि वापस करने की घोषणा की है। भले ही कुछ दिनों में इस संकट से थोड़ी राहत मिल जाए, लेकिन यक्ष प्रश्न यही है कि क्या यह राहत स्थायी होगी?

साल का सिंहावलोकन करें तो भारतीय विमानन क्षेत्र के लिए यह वर्ष काफी खराब रहा। जून में एअर इंडिया का विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ। कुछ हेलीकाप्टर भी दुर्घटना के शिकार बने और अब इंडिगो विमानों के बेड़े पस्त पड़े। अंततः इसकी तपिश उपभोक्ताओं को ही झेलनी पड़ती है। यह आगे कुआं-पीछे खाई वाली कहानी है। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि यात्रियों की सुरक्षा और सुविधा के बीच द्वंद्व की स्थिति है। यह बहस की बात ही नहीं है कि यात्रियों की सुरक्षा के साथ कोई समझौता हो अथवा पायलटों को विश्राम देने वाले नियमों में कोई ढिलाई दी जाए। काकपिट में काम के बोझ तले दबे और पर्याप्त विश्राम से वंचित पायलट कतई नहीं होने चाहिए, लेकिन क्या ऐसी व्यापक सुरक्षा की कीमत बड़े पैमाने पर उड़ानों के रद होने और अराजकता को आमंत्रण देकर ही चुकाई जाएगी?

निःसंदेह सुरक्षा सर्वोपरि है, लेकिन हमें उससे आगे भी जाना होगा। जैसे यात्रियों की सहूलियतों और अनुभव का स्तर। सेवा क्षेत्र का हिस्सा होने के साथ विमानन आतिथ्य सेवा का ही विस्तार माना जाता है। हालांकि वास्तविकता इससे कोसों दूर है। सुविधाओं की बात छोड़िए, यहां तो यात्री मूलभूत उपभोक्ता अधिकारों के लिए ही जूझते हैं। भारत में यात्रियों के अधिकार से जुड़े दस्तावेज बेमानी ही हैं। उन पर कभी-कभार ही कोई कार्रवाई होती है। होती भी है तो केवल खानपान और रिफंड जैसे मुद्दों तक ही सीमित होकर रह जाती है। विकसित देशों के उलट भारत में विमानन कंपनी को परिचालन अक्षमता के लिए दंडित नहीं किया जाता।

आप भले ही कम दरों वाली टिकट अग्रिम रूप से बुक करके रखें, किंतु निर्धारित उड़ान विलंबित या रद होने की स्थिति में वैकल्पिक टिकट खरीदने के लिए बाध्य यात्री को मूल टिकट से मिलने वाले रिफंड से कहीं अधिक कीमत चुकानी पड़ती है। एयरलाइन बिना किसी पूर्व सूचना के उड़ान में देरी और उसे रद तक कर सकती है, लेकिन यात्री का जरा भी विलंब से आना अस्वीकार्य है। परिचालन के स्तर पर यह एक अनिवार्यता हो सकती है, लेकिन स्पष्ट रूप से एकतरफा है। नियमों में इतना संशोधन तो आवश्यक है कि एयरलाइन को उसकी गलती के कारण विलंबित या रद होने वाली उड़ान के एवज में यात्रियों को पर्याप्त मुआवजा देना अनिवार्य हो। यूरोप और अमेरिका में यह एक सामान्य चलन है।

इंडिगो पर कठोर कार्रवाई की घोषणा, उसकी उड़ानों की संख्या में कटौती और सुरक्षा मानकों पर कोई समझौता न करने की सरकार की पहल सराहनीय है। बाजार की अगुआ कंपनी के पर कतरने के इस प्रयास में भले ही समाजवादी दौर के ध्वंसावशेष प्रतीत होने का जोखिम दिखता हो, किंतु वर्तमान स्थिति में यह मुख्य मुद्दे को विस्मृत करने जैसा होगा। राज्य की यह कार्रवाई किसी कंपनी पर प्रहार के बजाय अनुपालन सुनिश्चित करने के तौर पर देखी जानी चाहिए। वैसे भी आवश्यक सेवाओं में किसी भी तरह का एकाधिकार पूर्णतः अस्वीकार्य होना चाहिए। पूंजीवाद और मुक्त बाजार के गढ़ माने जाने वाले अमेरिका में भी अहम सेवाओं में एकाधिकार से निपटने के प्रति सतर्कता का भाव रहा है।

दो कंपनियों का वर्चस्व मुक्त बाजार की अच्छी सेहत का संकेत नहीं कहा जा सकता। भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा विमानन बाजार और चौथी सबसे बड़ी आर्थिकी है, लेकिन यहां की दो एयरलाइंस-इंडिगो (65 प्रतिशत) और एअर इंडिया (30 प्रतिशत) ही 95 प्रतिशत की हिस्सेदारी के साथ लगभग पूरे बाजार पर कब्जा किए हुए हैं। हमें बाजार में कुछ और एयरलाइंस के साथ ही सार्थक नीतिगत हस्तक्षेप की आवश्यकता है। भारतीय बाजार तेजी से विस्तार कर रहा है और विमानन संबंधी बुनियादी ढांचे को भी इस तेजी से ताल मिलानी होगी। यात्रियों की सुरक्षा और संतुष्टि इस महत्वपूर्ण क्षेत्र के मूल में होनी चाहिए।