विचार: राष्ट्रवाद का जयघोष है वंदे मातरम्, बेवजह की राजनीति क्यों?
मानव जीवन में इन तीन आयामों-धन, विद्या और शक्ति का महत्व निर्विवाद है। बंकिमचंद्र की वाणी भले ही कुछ दशकों तक दबा दी गई हो, लेकिन समय आ गया है अनुच्छेद 51 (ए) में नया मौलिक कर्तव्य जोड़कर वंदे मातरम् को राष्ट्रगान जैसा सम्मान देने पर विचार हो। युग प्रणेता बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के प्रति देश का यह देय तो बनता ही है।
HighLights
मानव जीवन में धन, विद्या और शक्ति का महत्व
बंकिमचंद्र की वाणी को सम्मान देने का समय
वंदे मातरम् को राष्ट्रगान जैसा सम्मान मिले
प्रो. निरंजन कुमार। भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के अमर गीत ‘वंदे मातरम्’ की 150वीं वर्षगांठ पर संसद ही नहीं पूरे देश में चर्चा हो रही है। बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय रचित वंदे मातरम् मात्र देशभक्ति गीत नहीं, बल्कि भारतीय राष्ट्रीयता का आध्यात्मिक जयघोष है। वर्तमान चर्चा से वंदे मातरम् से जुड़े ऐसे अनेक तथ्य सामने आए, जो आज की युवा पीढ़ी ही नहीं, हमारी पीढ़ी में भी कम ही लोग जानते होंगे। जैसे कि यह उजागर होना कि वंदे मातरम् का वर्तमान स्वरूप उसका खंडित संस्करण है। अभी गाए जाने वाले दो छंदों के अलावा चार छंद और भी हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने इस संदर्भ में कहा कि तुष्टीकरण की राजनीति के दबाव में कांग्रेस वंदे मातरम् के बंटवारे के लिए झुक गई।
असल में ब्रिटिश राष्ट्रीय गीत ‘गाड सेव द क्वीन’ को भारत के घर-घर पहुंचाने के षड्यंत्र के जवाब में बंकिमचंद्र ने 1875 में वंदे मातरम् लिखा, जिसे 1882 में उन्होंने अपने उपन्यास ‘आनंद मठ’ में शामिल किया। वंदे मातरम् भारत के सभ्यतागत इतिहास और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की ही अभिव्यक्ति है, जो अनादिकाल से भारत की रग-रग में रचा-बसा रहा। वंदे मातरम् मातृभूमि की वंदना के रूप में गाया गया है। राष्ट्र के प्रति ऐसा भाव भारतीय संस्कृति में सदैव रहा है। वेदों में ‘माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः’ जैसा उद्घोष है। इसका अर्थ है भूमि मेरी माता है और मैं उसकी संतान हूं।
जन्मभूमि के प्रति प्रभु श्रीराम ने यही भाव व्यक्त किया कि जननी जन्मभूमि स्वर्ग से भी सुंदर है। भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों में जगत का पालन करने वाली धरती मातृशक्ति है। इस मातृशक्ति की विभिन्न रूपों की आराधना की जाती है। आनंदमठ में असंख्य भारतीय संतानों के कंठों से उच्चरित वंदे मातरम् भारतीय सभ्यता के इसी शाश्वत मूल्य का उद्घोष है।
छह छंदों वाले इस गीत को 1896 में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कांग्रेस अधिवेशन में गाया। 1901 के कांग्रेस अधिवेशन में इसे फिर गाया गया। दिसंबर 1905 में कांग्रेस कार्यकारिणी की बैठक में इसे अखिल भारतीय आयोजनों में गाने का निर्णय लिया गया। 1905 में ही बंग-भंग आंदोलन के दौरान हिंदू-मुस्लिम दोनों समुदायों ने एकजुट होकर वंदे मातरम् गाया। मैडम भीकाजी कामा ने 1907 में जर्मनी में जब पहला तिरंगा फहराया, उस पर वंदे मातरम् लिखा था। चिदंबरम पिल्लई ने 1907 में स्वदेशी जहाज पर वंदे मातरम् लिखवाया था। रामप्रसाद बिस्मिल ने अपनी प्रतिबंधित पुस्तक ‘क्रांति-गीतांजलि’ का पहला गीत वंदे मातरम् ही रखा।
भगत सिंह अपने पत्रों में वंदे मातरम् से अभिवादन करते थे। महात्मा गांधी ने ‘इंडियन ओपिनियन’ के 1905 के एक अंक में लिखा था, ‘बंकिम का यह गीत इतना लोकप्रिय हो गया है, जैसे यह हमारा नेशनल एंथम (राष्ट्रगान) बन गया है। इसका एकमात्र उद्देश्य हमारे भीतर देशभक्ति की भावना जगाना है।’ 1936 में गांधीजी ने अन्यत्र लिखा, ‘बंकिम ने हमारी मातृभूमि के लिए जो अनेक सार्थक विशेषण प्रयुक्त किए हैं, वे एकदम अनुकूल हैं, इनका कोई सानी नहीं।’ यह अनायास नहीं कि खिलाफत आंदोलन के अधिवेशनों की शुरुआत वंदे मातरम् से होती थी। अहमद अली, शौकत अली, जफर अली जैसे वरिष्ठ मुस्लिम नेता इसके सम्मान में उठकर खड़े होते थे। कट्टर सांप्रदायिक बनने के पहले मोहम्मद अली जिन्ना तो इसके सम्मान में न खड़े होने वालों को फटकार लगाते थे। अशफाक उल्ला इसे गाते हुए फांसी पर झूल गए। पूर्व कांग्रेस नेता आरिफ मोहम्मद खान ने इसका उर्दू में अनुवाद किया।
स्वतंत्रता संग्राम में सबसे प्रभावी एवं लोकप्रिय होने के बावजूद मजहबी कट्टरता के कारण मुस्लिम लीग ने इसका विरोध किया। फिर तो 1923 के कांग्रेस अधिवेशन में भी वंदे मातरम् के विरोध में स्वर उठे। दुर्भाग्य से नेहरू की अध्यक्षता वाली एक समिति ने 1937 में कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में अपनी अनुशंसा में कहा कि इस गीत के प्रथम दो छंद ही प्रासंगिक हैं। अंत के चार छंदों को हटाते हुए वंदे मातरम् को विभाजित करने का निर्णय लिया गया। यहां जानना जरूरी है कि पूर्व में नेहरू को वंदे मातरम् के मूल भाव से कोई आपत्ति नहीं थी।
नेहरू ने 1 सितंबर, 1937 को अली सरदार जाफरी को प्रेषित एक पत्र में लिखा, ‘मुझे नहीं लगता कि कोई भी व्यक्ति इनमें आए शब्दों का देवी से कोई संबंध मानता है। यह व्याख्या हास्यास्पद है।’ फिर 20 अक्टूबर, 1937 को सुभाषचंद्र बोस को लिखे एक पत्र में भी नेहरू ने लिखा, ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि वंदे मातरम् के खिलाफ वर्तमान हल्ला-गुल्ला काफी हद तक सांप्रदायिक लोगों द्वारा पैदा किया गया है और जो लोग सांप्रदायिक विचार रखते हैं, वे इससे प्रभावित हुए हैं।’
इसके बाद भी वंदे मातरम् के प्रति मुस्लिम लीग का विरोध बढ़ता जा रहा था। जिन्ना ने 15 अक्टूबर, 1937 को वंदे मातरम् के विरुद्ध नारा बुलंद किया। इन्हीं दवाबों और तुष्टीकरण की राजनीति में वंदे मातरम् विभाजित हो गया। यही नहीं, राष्ट्रगान के रूप में इसे चयनित करने में भी अनदेखा किया गया। हालांकि इसकी लोकप्रियता के करण 1950 में संविधान सभा ने डा. राजेंद्र प्रसाद द्वारा वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
गीत के कथित विवादित अंतिम चार छंद देखें तो पहले में भारत माता को ‘बहुबलधारिणी’ कहकर इसके करोड़ों पुत्रों को शक्ति का केंद्र माना गया। ये पंक्तियां वीरता-शौर्य का आह्वान करते हुए जनता का आत्मबल जगाती हैं। अगले छंद में मातृभूमि को विद्या, धर्म, शक्ति और भक्ति के प्रतीक के रूप में देख गया है। पांचवें छंद में मातृभूमि त्रिमूर्त रूपों में चित्रित है-समृद्धि-सौभाग्य के प्रतीक रूप में वह लक्ष्मी, ज्ञान-सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक रूप में सरस्वती और शक्ति, संघर्ष और विजय की प्रतीक के रूप वह दुर्गा है।
मानव जीवन में इन तीन आयामों-धन, विद्या और शक्ति का महत्व निर्विवाद है। बंकिमचंद्र की वाणी भले ही कुछ दशकों तक दबा दी गई हो, लेकिन समय आ गया है अनुच्छेद 51 (ए) में नया मौलिक कर्तव्य जोड़कर वंदे मातरम् को राष्ट्रगान जैसा सम्मान देने पर विचार हो। युग प्रणेता बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय के प्रति देश का यह देय तो बनता ही है।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में सीनियर प्रोफेसर हैं)













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