विचार: एसआईआर पर अनावश्यक आपत्ति, ईवीएम पर संदेह और वोट चोरी के गलत आरोप
वास्तव में कांग्रेस नेतृत्व सहित अधिकांश विरोधी दल अपनी मूल समस्या को देखने-समझने की क्षमता खो चुके हैं। अहंकार और वंशवादी अधिकारबोध ने इन्हें आत्मविश्लेषण से वंचित कर दिया है। वे कल्पना में जीते हुए वास्तविकता से पूरी तरह कट गए हैं और अपनी हर चुनावी असफलता के लिए प्रधानमंत्री मोदी और चुनाव आयोग पर अनर्गल आरोप मढ़ रहे हैं।
HighLights
मतदाता सूची की शुद्धता सुनिश्चित करना आवश्यक
एसआईआर पर राजनीतिक दलों का विरोध अनुचित
चुनाव आयोग की पारदर्शिता पर संदेह गलत
बलबीर पुंज। भारत का लोकतंत्र विश्व की सबसे विशाल जनइच्छा का प्रतिबिंब है। यहां चुनाव केवल सत्ता परिवर्तन का माध्यम नहीं, अपितु एक पवित्र राष्ट्रीय संस्कार है। एक-एक मत स्वस्थ लोकतांत्रिक व्यवस्था की धड़कन है। इसलिए मतदाता सूची की शुद्धता केवल भारतीय निर्वाचन आयोग का प्रशासनिक काम नहीं, बल्कि भारत के संवैधानिक आत्मा की सुरक्षा का भी प्रश्न है। इसी मूल भावना के साथ चुनाव आयोग ने इस वर्ष एक जुलाई से मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआइआर का व्यापक अभियान आरंभ किया, ताकि कोई अपात्र व्यक्ति इस सूची में शामिल न हो और कोई पात्र नागरिक छूट न जाए। बिहार के बाद 12 और राज्यों में यह प्रक्रिया जारी है। इससे पहले देश में वर्ष 2002-04 के बीच एसआइआर हुआ था। यह विडंबना है कि कुछ राजनीतिक दल और उनके शीर्ष नेता संविधान की प्रतियां लहराकर स्वयं को उसका ‘रक्षक’ साबित करने पर तुले रहते हैं, वही संसद के भीतर और बाहर इस वैधानिक चुनाव सुधार प्रक्रिया पर अनर्गल सवाल भी खड़े कर रहे हैं।
देशव्यापी एसआइआर के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में भी मामले दायर हो गए हैं। विपक्षी दलों की ओर से इन मामलों की पैरवी कपिल सिब्बल और अभिषेक मनु सिंघवी जैसे दिग्गज कर रहे हैं। उनकी दलील है कि एसआइआर एक गैर-जरूरी प्रक्रिया है और चुनाव आयोग के पास इसे कराने का अधिकार नहीं है। उनकी इस दलील को अदालत ने खारिज कर दिया। इतना ही नहीं, न्यायालय ने 26 नवंबर की सुनवाई में यह भी रेखांकित किया कि बिहार में एसआइआर के दौरान जिन अपात्र मतदाताओं के नाम हटाए गए, उनमें से किसी एक ने भी कोई आपत्ति दर्ज नहीं कराई। अब चुनाव आयोग एसआइआर के दूसरे चरण में 12 राज्यों के 321 जिलों में 1,843 विधानसभा क्षेत्रों के लगभग 51 करोड़ मतदाताओं की समीक्षा कर रहा है।
तीन दिसंबर तक इसके लिए 99 प्रतिशत फार्म वितरित और 93 प्रतिशत से अधिक डिजिटाइज किए जा चुके हैं। स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए आयोग अब तक 4,700 से अधिक सर्वदलीय बैठकों का आयोजन कर चुका है। इनमें 28,000 राजनीतिक प्रतिनिधियों ने भाग लिया। अंतिम मतदाता सूची आगामी 16 फरवरी को प्रकाशित होगी। जिन लोगों के नाम सूची से हटेंगे, उन्हें एक माह तक दावा-आपत्ति का अवसर मिलेगा। आखिर इतनी पारदर्शी प्रक्रिया से घबराहट कैसी? विरोधियों द्वारा पहले ईवीएम पर संदेह जताना, वोट चोरी का आरोप मढ़ना और अब एसआइआर का विरोध करना असल में और कुछ नहीं, बल्कि ‘नाच न जाने, आंगन टेढ़ा’ वाली कहावत को चरितार्थ करने जैसा है।
लोकसभा चुनाव में मामूली सफलता के बाद से ही कांग्रेस को एक के बाद एक राज्यों में मुंह की खानी पड़ी है। कांग्रेस का यह क्षरण बिहार चुनाव तक कायम रहा, मगर वह आत्ममंथन के बजाय आरोप-प्रत्यारोप में लगी है। स्वतंत्रता के बाद देश पर कांग्रेस का 50 वर्षों तक प्रत्यक्ष-परोक्ष शासन रहा। इस दौरान कांग्रेस तमिलनाडु (1967), बंगाल (1977), उत्तर प्रदेश (1989), गुजरात (1990), महाराष्ट्र (1995), ओडिशा (2000), गोवा (2012) और दिल्ली (2013) में ही एक बार सत्ता से बाहर हुई, मगर अपने दम पर अब तक सत्ता में नहीं लौट सकी। दिल्ली में 2015, 2020 और 2025 के चुनावों में वह खाता तक नहीं खोल पाई।
पिछले चार लोकसभा चुनाव स्पष्ट रूप से भारत के बदलते राजनीतिक परिदृश्य को रेखांकित करते हैं। 2009 में भाजपा को 18.8 प्रतिशत मत और 116 सीटें मिली थीं। 2014 में भाजपा 31 प्रतिशत मतों के साथ 282 सीटों पर पहुंच गई, तो कांग्रेस 206 से घटकर 44 सीटों और 28.5 प्रतिशत मतों से गिरकर 19.3 प्रतिशत पर आ गई। दोनों चुनावों में केंद्र में कांग्रेसनीत संप्रग सरकार सत्ता में थी। भाजपा के प्रति जनसमर्थन 2019 में और प्रबल हुआ और उसने पहले से अधिक मतों (37.3 प्रतिशत) और सीटों (303) के साथ फिर बहुमत प्राप्त किया। 2024 का चुनाव भी भाजपा ने पीएम मोदी के नेतृत्व में सत्ता-विरोधी लहर, विपक्षी एकजुटता, भारत-विरोधी शक्तियों के प्रपंचों और नकारात्मक प्रचार के बीच लड़ा, जिसमें उसकी सीटें (240) और मत (36.5 प्रतिशत) दोनों घटे, पर सरकार बनाने में सफल रही।
ध्यान देने वाली बात यह भी है कि केंद्र में मोदी सरकार रहते हुए पिछले 11 वर्षों में कई राज्यों में विपक्षी दलों ने भी चुनाव जीते। बंगाल में तृणमूल, तमिलनाडु में द्रमुक, झारखंड में झामुमो, कर्नाटक-हिमाचल-तेलंगाना में कांग्रेस, जम्मू-कश्मीर में नेशनल कांफ्रेंस और केरल में वामपंथी आदि शामिल हैं। यहां तक कि 70 सदस्यीय दिल्ली विधानसभा के चुनाव में आप ने 2015 में 67 और 2020 में 62 सीटें जीतीं, तो 2022 में पंजाब की भी 80 प्रतिशत सीटें भी आप जीतने में सफल रही थी। यदि चुनाव आयोग किसी एक के लिए पक्षपाती होता, तो क्या ऐसे एकतरफा परिणाम संभव होते?
वास्तव में कांग्रेस नेतृत्व सहित अधिकांश विरोधी दल अपनी मूल समस्या को देखने-समझने की क्षमता खो चुके हैं। अहंकार और वंशवादी अधिकारबोध ने इन्हें आत्मविश्लेषण से वंचित कर दिया है। वे कल्पना में जीते हुए वास्तविकता से पूरी तरह कट गए हैं और अपनी हर चुनावी असफलता के लिए प्रधानमंत्री मोदी और चुनाव आयोग पर अनर्गल आरोप मढ़ रहे हैं। एक कटु सत्य यह भी है कि यदि किसी कारण मतदाताओं का भाजपा से मोहभंग होता भी है तो मतदाता कांग्रेस के बजाय अन्य विकल्प खोजते हैं। देखा जाए तो सपा, राजद, तृणमूल, द्रमुक, राकांपा, आप ने कांग्रेस की ही सियासी जमीन हथियार कर ही अपनी राजनीतिक जड़ें मजबूत की हैं। सच यह है कि जब ‘लोक’ अर्थात मतदाता बार-बार विपक्ष को नकार देता है, तब संगठित राजनीतिक रणनीति के तहत एक ‘तंत्र’ चुनाव आयोग जैसी संस्थाओं को कठघरे में खड़ा करता है। उद्देश्य केवल इतना है कि जनता से कटाव के बीच अपनी गिरती राजनीतिक प्रासंगिकता किसी तरह बची रहे, भले ही इसके लिए देश की संवैधानिक संस्थाओं की विश्वसनीयता को ही आघात क्यों न पहुंचे।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं)













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