आदित्य सिन्हा। भारत लंबे समय से विश्व की सबसे तेज गति से वृद्धि करने वाली अर्थव्यवस्था बना हुआ है। इतनी तेज वृद्धि के बावजूद तमाम जानकार यह मानते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था अभी भी अपनी क्षमताओं से कम प्रदर्शन कर रही है। यानी भारतीय आर्थिकी और तेज गति से दौड़ने में सक्षम है, लेकिन इस राह में कुछ बाधाएं भी हैं। ऐसी ही एक बाधा नियमन एवं अनुपालन के बोझ से जुड़ी हुई है।

‘भारत में एमएसएमई विनिर्माण के लिए अनुपालनों की पड़ताल’ शीर्षक से प्रकाशित एक हालिया रिपोर्ट इसे रेखांकित भी करती है। इसके अनुसार किसी राज्य में सक्रिय एमएसएमई को साल भर में अनुपालन की करीब 1,456 कसौटियों पर खरा उतरना पड़ता है। इनमें से 998 कसौटियां तो काफी कड़ी होती हैं। साल भर के दौरान उन्हें 70 से अधिक अनुमतियां प्राप्त करनी होती हैं। करीब 48 वैधानिक रजिस्टर बनाने पड़ते हैं और करीब 59 प्रकार के विभिन्न निरीक्षणों की तैयारी करनी पड़ती है। मानो इतना ही काफी नहीं है।

वित्त वर्ष 2024-25 के दौरान 9,321 नियामकीय संशोधन हुए। देश में सक्रिय करीब साढ़े छह करोड़ एमएसएमई को इन बदलावों का सामना करना पड़ता है। इससे उनकी अनुपालन लागत बढ़ी होगी। एक इकाई पर साल भर में 13 से 17 लाख रुपये का बोझ बढ़ता है। पहले से ही सीमित संसाधनों वाले छोटे उद्यमों पर यह एक बड़ी आपदा जैसा है। याद रहे कि जीडीपी में 30 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाले ये उद्यम रोजगार सृजन के बड़े माध्यम भी हैं।

नियमन के मोर्चे पर इन प्रतिकूलताओं को दूर करने की दिशा में भारतीय रिजर्व बैंक ने 28 नवंबर को एक असाधारण पहल की है। उसने स्वेच्छा से अपने नियामकीय दायरे को 97 प्रतिशत तक घटा दिया है। यह गहरे नीतिगत बदलाव का संकेत है। यह कहना गलत होगा कि इस परिवर्तन में नीति आयोग की किसी उच्चस्तरीय समिति की भूमिका रही है। रिजर्व बैंक का यह कदम उसकी स्वयं की आंतरिक समीक्षा और नियामकीय सुव्यवस्था के प्रयासों का परिणाम है।

जहां तक नीति आयोग में पूर्व कैबिनेट सचिव राजीव गौबा की अध्यक्षता वाली समिति का प्रश्न है तो यह समिति लाइसेंस, परमिट, निरीक्षण प्रणालियों और अनुपालन बोझ जैसे गैर-वित्तीय नियमनों संबंधी सुधारों पर केंद्रित है। गौबा के नेतृत्व वाली समिति ने विश्वास आधारित एवं पारदर्शिता को प्रोत्साहन देने वाली नियामकीय प्रणाली का विचार सुझाया है।

इसका उद्देश्य नियमित लाइसेंस, अनापत्ति प्रमाणपत्रों की आवश्यकता की समाप्ति, निरीक्षणों को मान्यता प्राप्त तीसरे पक्षों के लिए स्थानांतरित करने के साथ ही यह सुनिश्चित करना भी है कि प्रत्येक नियमन की अनुपालन लागत और उसे अमल में लाने के भार मूल्यांकन पर भी विचार करे। इसके पीछे मूल भावना यही है कि नियमन की मंशा प्रशासनिक अवरोध उत्पन्न करने के बजाय संरक्षण प्रदान करने की होनी चाहिए।

नियमन के मोर्चे पर सुधार आर्थिक प्रदर्शन को सुधारने का आधार बनते हैं। इससे प्रबंधन के लिए आर्थिक बोझ घटने से लेकर समय एवं संसाधन भी बचते हैं। नियमों में स्थायित्व और पूर्वानुमान निवेश को लेकर बेहतर परिदृश्य तैयार करते हैं। सेमीकंडक्टर और नवीकरणीय ऊर्जा जैसे क्षेत्रों के लिए यह बेहद महत्वपूर्ण है, जहां प्रतिफल की अवधि अपेक्षाकृत कुछ लंबी खिंचती है। सुगम नियमन आर्थिक गतिविधियों को संगठित एवं औपचारिक बनाने को भी प्रोत्साहित करते हैं।

इस दिशा में गौबा समिति की अनुशंसाओं पर विचार करें तो इसमें आर्थिक स्वतंत्रता को प्राथमिकता दी गई है। इसके अनुसार लाइसेंस और अनुमतियां संवेदनशील क्षेत्रों तक ही सीमित होनी चाहिए। जैसे राष्ट्रीय सुरक्षा, पर्यावरणीय जोखिम और सार्वजनिक स्वास्थ्य के समक्ष संकट जैसे मामले ही नियमन के दायरे में आने चाहिए। यह अनुशंसा उस मौजूदा व्यवस्था को बदलती है, जहां परिचालन से पहले ही किसी उद्यम एवं उद्यमी को परीक्षा से गुजरना पड़ता है। अगर लाइसेंस की आवश्यकता पड़ती भी है तो उसकी प्रकृति स्थायी होनी चाहिए।

यदि उनमें कोई अंतर्निहित जोखिम न हों तो नवीनीकरण का प्रविधान भी आवश्यक न किया जाए। समिति की अनुंशसाओं पर गौर किया जाए तो ये ‘निरीक्षण राज’ को समाप्त करने पर जोर देती हैं। इसमें निरीक्षण का जिम्मा थर्ड पार्टी यानी तटस्थ निकाय पर छोड़ने की बात है। इससे हितों के टकराव के मामले घटेंगे। तकनीक आधारित निरीक्षण मानवीय हस्तक्षेप को भी कम करता है।

एक बेहतर नियामकीय व्यवस्था वही होती है जो राज्य को स्थिरता प्रदान करे। इस दिशा में नियामकीय संशोधनों में अनियमितता उचित नहीं। उन्हें नियमित अंतराल पर करते रहने के बजाय साल में एक या दो बार किया जाना ही उचित होगा। नियमन के स्तर पर समीक्षा और सुझाव की गुंजाइश भी विद्यमान होनी चाहिए। प्रत्येक नियम को मूर्त रूप देने से पहले उसका नियामक प्रभाव मूल्यांकन यानी आरआइए भी उतना ही आवश्यक है।

इससे जहां औद्योगिक इकाइयों के लिए अनुपालन लागत, तो वहीं सरकार के स्तर पर प्रवर्तन लागत को लेकर सुविधा बढ़ेगी। मौजूदा नियमों की भी चरणबद्ध रूप से समीक्षा की जाए ताकि उनमें किसी प्रकार के दोहराव की आशंका समाप्त हो सके। नियमों का आदर्श रूप में पालन किसी भी व्यवस्था के लिए आवश्यक होता है, लेकिन अनावश्यक एवं अनुचित दंड की व्यवस्था भी अहित ही अधिक करती है। जैसे फाइलिंग में देरी, लिपिकीय गलतियां और तकनीकी खामियों को सजा के मामले में कुछ राहत देना गलत नहीं होगा।

भारत में एमएसएमई के लिए 486 ऐसी धाराएं हैं, जिनमें कारावास तक की सजा हो सकती है। यह किसी भी प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था की तुलना में कहीं ज्यादा है। इस मोर्चे पर विसंगतियों को दूर करने के लिए व्यावहारिक कदम उठाए जाना आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य हो चला है।

नि:संदेह नियामकीय परिदृश्य को सुगम बनाने की दिशा में गौबा समिति ने एक सार्थक पहल की है। यदि इन पर सही तरीके से अमल किया जा सके तो यह भारतीय अर्थव्यवस्था को नियंत्रण-आधारित ढांचे से सिद्धांत-केंद्रित व्यवस्था में बदलेगा। यह नई व्यवस्था सुगम और नवाचार हितैषी भी होगी।

(लेखक लोक-नीति विश्लेषक हैं)