राज कुमार सिंह। मुख्यमंत्री की कुर्सी बचाने और पाने के लिए संघर्षरत दो नेताओं को चार दिन में दो बार साथ-साथ नाश्ता करना पड़े तो कर्नाटक की सत्ता-राजनीति में सब कुछ सामान्य नहीं माना जा सकता। माना जा रहा है कि कांग्रेस आलाकमान की सलाह पर मुख्यमंत्री सिद्दरमैया और उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार अपने जगजाहिर सत्ता संघर्ष को ‘ब्रेकफास्ट डिप्लोमेसी’ से छिपाने में लगे हैं। मई 2023 में दूसरी बार मुख्यमंत्री बने सिद्दरमैया कार्यकाल की आधी अवधि पूरी कर चुके हैं और शिवकुमार चाहते हैं कि अब उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाए। चर्चा है कि 2023 में दोनों के ढाई-ढाई साल मुख्यमंत्री रहने का फार्मूला आलाकमान ने बनाया था।

ऐसी चर्चाएं राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भी सुनने में आई थीं। 2018 में मध्य प्रदेश की कांग्रेस सरकार ज्योतिरादित्य सिंधिया के ‘हाथ’ छोड़ ‘कमल’ थाम लेने के चलते जल्दी ही गिर गई थी, जबकि राजस्थान और छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकारें सत्ता में वापसी नहीं कर पाईं। राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उपमुख्यमंत्री टीएस सिंहदेव और सचिन पायलट ने आलाकमान को ढाई-ढाई साल कुर्सी का फार्मूला याद दिलाया था, लेकिन कोई परिणाम नहीं निकला। हां, अगले चुनाव में दोनों ही राज्यों में कांग्रेस सत्ता से बाहर अवश्य हो गई।

सिद्दरमैया और शिवकुमार नेतृत्व के मुद्दे पर आलाकमान का फैसला ‘अंतिम’ होने की बात कह रहे हैं। आलाकमान के दिल्ली बुलावे का इंतजार दोनों को है। सिद्दरमैया मंत्रिमंडल में फेरबदल की मंजूरी चाहते हैं, ताकि नेतृत्व परिवर्तन की अटकलों पर विराम लगे, जबकि शिवकुमार ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्रित्व का वादा याद दिलाना चाहते हैं। आलाकमान खुद को ‘इधर कुआं, उधर खाई’ वाली स्थिति में पा रहा है। 77 साल के सिद्दरमैया के मुकाबले 63 साल के शिवकुमार युवा हैं, पर क्या वह मुख्यमंत्री बनने के लिए अगले चुनाव तक इंतजार करना चाहेंगे?

ध्यान रहे कांग्रेस की अंतर्कलह के बीच भाजपा दक्षिण भारत में अपना दुर्ग रहे कर्नाटक को वापस पाने की ताक में है। साधनसंपन्न शिवकुमार कांग्रेस के लिए संकटमोचक की भूमिका निभाते रहे हैं। प्रश्न है कि यदि उपयोगिता के बावजूद आलाकमान ढाई-ढाई साल के मुख्यमंत्रित्व का अपना कथित वादा नहीं निभा पाता, तब क्या शिवकुमार इंतजार करने के बजाय ज्योतिरादित्य सिंधिया बनना पसंद नहीं करेंगे? ध्यान रहे कि अधिकांश नेता सिर्फ सत्ता के सगे होते हैं।

कांग्रेस आलाकमान की समस्या यह है कि कोई भी फैसला जोखिम मुक्त नहीं। इस आशंका से इन्कार नहीं कि शिवकुमार को मुख्यमंत्री बनाए जाने की स्थिति में सिद्दरमैया भाजपा से दोस्ती कर लें। वह मूलत: कांग्रेसी नहीं हैं। लोकदल की पृष्ठभूमि वाले सिद्दरमैया जनता दल (सेक्युलर) में भी रह चुके हैं। एचडी देवेगौड़ा के बेटे कुमारस्वामी से टकराव के चलते उन्हें कांग्रेस में आना पड़ा।

224 सदस्यीय कर्नाटक विधानसभा में कांग्रेस के 135 विधायक हैं तो भाजपा और जद-एस के क्रमश: 66 और 19 विधायक। चार अन्य भी सत्ता के साथ गिने जा सकते हैं। दो-ढाई दर्जन विधायक भी पाला बदल लें तो ‘खेल’ हो जाएगा। दलबदल कानून की चिंता इसलिए नहीं कि विधायकों के इस्तीफे से सदन की प्रभावी संख्या कम कर बहुमत का आंकड़ा नीचे लाने का जुगाड़ कर्नाटक में पहले भी आजमाया जा चुका है। कर्नाटक कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का गृह राज्य है, लेकिन राजनीतिक संकट के समाधान के लिए दोनों पक्ष नेहरू-गांधी परिवार की ओर ही ताक रहे हैं।

2023 के चुनाव में कांग्रेस कर्नाटक की सत्ता इसलिए हासिल कर पाई, क्योंकि विभाजित भाजपा के विरुद्ध सत्ता विरोधी भावनाओं को भुनाने के लिए सिद्दरमैया और शिवकुमार समेत सभी नेता एकजुट थे। कर्नाटक की चुनावी राजनीति तीन प्रमुख समुदाय तय करते हैं: लिंगायत, वोक्कालिगा और कुरबा। शिवकुमार कर्नाटक की दूसरी प्रमुख जाति वोक्कालिगा से हैं तो सिद्दरमैया तीसरी प्रमुख जाति कुरबा से। सर्वाधिक असरदार समुदाय लिंगायत येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री पद से हटाने के चलते पिछले चुनाव में भाजपा से नाराज दिखा था। भाजपा ने वोक्कालिगा समुदाय के पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा के जद-एस से गठबंधन कर नुकसान की भरपाई करनी चाही, पर सत्ता विरोधी भावना से लेकर भ्रष्टाचार के आरोपों तक तमाम परिस्थितियां उसके विरुद्ध साबित हुईं। शिवकुमार भी मुख्यमंत्री पद की दौड़ में थे, पर सामाजिक-राजनीतिक समीकरण साधते हुए आलाकमान ने सिद्दरमैया की ताजपोशी का फैसला किया। शिवकुमार कांग्रेस के लिए राजनीतिक-आर्थिक रूप से बेहद उपयोगी हैं, तो सिद्दरमैया खुद को कांग्रेस के लिए अपरिहार्य बनाना चाहते हैं।

क्षत्रपों की मनमानी से अतीत में राज्य-दर-राज्य हुए नुकसान से कांग्रेस आलाकमान ने इतना सबक तो सीख ही लिया है कि किसी भी क्षत्रप को पार्टी के लिए अपरिहार्य न बनने दे, लेकिन वैसा होने से रोकने के लिए वह जरूरी साहस अभी तक नहीं दिखा पाया है। राहुल गांधी ओबीसी-दलित वर्ग को वापस कांग्रेस से जोड़ने की कवायद में लगे हैं और सिद्दरमैया ओबीसी ही हैं, जबकि शिवकुमार अगड़े वर्ग से हैं। इसलिए दोनों के बीच के सत्ता-संघर्ष में आलाकमान मल्लिकार्जुन खरगे के रूप में सुरक्षित मध्य मार्ग भी चुन सकता है, जो दलित हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)