जगतबीर सिंह। उच्चतम न्यायालय ने 25 नवंबर के अपने एक निर्णय में पूर्व सैन्य अधिकारी को कोई राहत नहीं दी। शीर्ष अदालत ने अधिकारी की बर्खास्तगी पर मुहर लगाने वाले दिल्ली हाई कोर्ट के आदेश को बरकरार रखा है। मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जायमाल्य बागची ने अपीलकर्ता सैन्य अधिकारी सैमुअल कमलेसन के कृत्य को घोर अनुशासनहीनता माना और कहा कि वह सेना में रहने लायक नहीं है। अदालत ने कहा कि अधिकारी ने अपनी धार्मिक मान्यता को वरिष्ठ अधिकारी के दायित्व से भी ऊपर रखा जो “स्पष्ट रूप से अनुशासनहीनता का कार्य” था। सैन्य अधिकारी को तैनाती स्थल पर बने मंदिर के गर्भगृह में जाकर रेजीमेंट की धार्मिक गतिविधियों में हिस्सा लेने से इन्कार करने पर बर्खास्त किया गया था।

सैन्य अधिकारी ने अपने ईसाई पंथ का हवाला देते हुए मंदिर की धार्मिक गतिविधियों में हिस्सा लेने से मना कर दिया था, जिसे अनुशासनहीनता माना गया। कमलेसन को 2021 में बर्खास्त किया गया था। उन्होंने 2017 में कमीशन प्राप्त किया था। वह तीन कैवेलरी की एक सिख स्क्वाड्रन में तैनात थे। कमलेसन ने दावा किया कि उनका यह विरोध न केवल उनके ईसाई विश्वास के प्रति सम्मान का प्रतीक था, बल्कि अन्य सैनिकों की धार्मिक भावनाओं का भी सम्मान था, ताकि उनके अनुष्ठानों में भाग लेने से किसी की धार्मिक भावनाओं को ठेस न पहुंचे। उन्होंने यह भी तर्क किया कि उनके सैनिकों को इस पर कोई आपत्ति नहीं थी और न ही इससे उनके साथ उनके मजबूत संबंधों पर कोई असर पड़ा। हालांकि अदालत में उनकी ये दलीलें कहीं नहीं टिक पाईं।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि कमलेसन का दृष्टिकोण रेजीमेंट का माहौल खराब करने वाला था। इससे यूनिट की एकता और सैनिकों के मनोबल पर भी असर पड़ सकता था। इसलिए उनकी बर्खास्तगी बिल्कुल तार्किक है। उच्चतम न्यायालय ने भी कमलेसन को आड़े हाथों लिया कि, ‘वह किस प्रकार का संदेश भेज रहे हैं? एक सेना अधिकारी द्वारा गंभीर अनुशासनहीनता। वह एक उत्कृष्ट अधिकारी हो सकते हैं, लेकिन भारतीय सेना के लिए अयोग्य हैं।’ यह विस्मृत न किया जाए कि भारतीय सेना अपने मूल्यों, नैतिकता और परंपराओं द्वारा परिभाषित होती है। सेना भले ही विविधता से भरा एक विशाल संगठन हो, लेकिन यूनिट ही उसका वह मूलाधार है, जिसे उसका आत्मा कहा जाता है। कुछ यूनिट किसी वर्ग या समुदाय पर आधारित होती हैं। जैसे सिख, जाट, राजपूत, डोगरा और गोरखा रेजीमेंट। ये अपने सैनिकों के पूजा स्थलों के साथ ही उनकी मान्यताओं का भी ध्यान रखती हैं। आज आर्मर्ड कोर में निश्चित वर्ग संरचना वाली रेजीमेंट और मिश्रित वर्ग संरचना वाली रेजीमेंट का एक संतुलित मिश्रण भी देखने को मिलता है। इसके जरिये एक दूसरे से सीखने का जो लाभ मिलता है, वह कार्य संचालन में भी उपयोगी साबित होता है।

सशस्त्र बलों में धर्म जुड़ाव की एक कड़ी के रूप में होता है। देखा जाए तो सभी सैन्य इकाइयों का मूल कार्य सामरिक तत्परता और शांति काल में उसके लिए तैयारी एवं प्रशिक्षण है। युद्ध के दौरान स्थितियां तनावपूर्ण होती हैं। ऐसे में सैनिकों की धार्मिक आस्था और विश्वास उन्हें प्रतिकूल परिस्थितियों में दबाव से उबरने की शक्ति प्रदान करता है। यूनिट के युद्ध-घोष (वार क्राई) में भी ये भावनाएं अभिव्यक्त होती हैं। ऐसा विश्वास बंधुत्व की भावना को भी बढ़ाता है। सेवा चयन बोर्ड यानी एसएसबी किसी व्यक्ति को बहुत जांच-परखने के बाद सैन्य अधिकारी के रूप में प्रशिक्षित किए जाने के योग्य पाता है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि कमलेसन के मामले में उनका धार्मिक दुराग्रह अनदेखा ही रह गया।

वैसे तो सेना में सभी अधिकारियों को निजी तौर पर अपनी आस्था और धर्म के पालन की स्वतंत्रता है, लेकिन सार्वजनिक रूप से वे उनके धर्म को अपनाते हैं, जिनकी कमान उनके हाथों में होती है। यही परंपरा अधिकारियों को निजी आस्था से इतर सैनिकों के विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लेने और उनमें शामिल होने को उन्मुख करती है। मेरी अपनी रेजीमेंट में जाट, मुस्लिम और राजपूत की वर्गीय संरचना थी और सभी अधिकारी और जेसीओ सभी धार्मिक समारोहों में भाग लेते थे। वे मंदिर और मस्जिद दोनों से जुड़े आयोजनों में उपस्थित होते थे। धार्मिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार को ऐसी परिस्थितियों में लागू नहीं किया जा सकता है, क्योंकि व्यक्ति के धार्मिक अधिकार की व्याख्या का यहां उल्लंघन नहीं होता है। वास्तव में, सेना में धर्म को एकजुट करने वाले एक कारक के रूप में देखा जाता है और यह किसी भी तरह समुदायों को विभाजित नहीं कर सकता। रेजीमेंट के उपासना स्थल एक भावना का पोषण करते हैं और पहचान, परंपरा, मनोबल और साझा उद्देश्य के प्रतीक होते हैं। वे केवल पूजा के ही माध्यम नहीं, बल्कि एकता की भावना के पोषक भी होते हैं। लेफ्टिनेंट जनरल अता हसनैन के शब्दों में कहें तो ‘वर्दी में व्यक्तिगत विश्वास को संस्थागत कर्तव्य पर हावी नहीं होने दिया जा सकता।’

भारतीय सेना की संरचना और कार्य संचालन नितांत पंथनिरपेक्ष है। किसी अधिकारी की अपनी चाहे जो आस्था हो, पर वह अपने साथी सैनिकों के धर्म, संस्कृति और परंपराओं का सम्मान करता ही है। जो अधिकारी अपने अधीनस्थों की आस्था, विश्वास और अनुष्ठानों का अपमान करे तो वह न तो अपने पद पर बने रहने योग्य है और न ही उस यूनिट में सेवाएं देने के लिए उपयुक्त। किसी अधिकारी का अपने सैनिकों के धार्मिक आयोजनों से किनारा करना न केवल उनके मनोबल को तोड़ता है, बल्कि सामूहिकता की उस भावना का प्रतिकार भी करता है, जो सेना के आत्मा का आधार है। यह कुछ और नहीं कर्तव्य से विमुखता ही है, जिसके साथ कड़ाई से निपटा भी जाना चाहिए। जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस बागची ने भी अपने निर्णय एवं दृष्टिकोण में इन पहलुओं को प्रमुखता दी है। एक अधिकारी के लिए सैनिकों का धर्म सर्वोपरि होता है। अक्सर कहा भी जाता है कि सेना का अपना धर्म होता है और अधिकारी यूनिट की पहचान में ढल जाता है। इस दृष्टि से कमलेसन से जुड़ा फैसला एक मिसाल का काम करेगा।

(लेखक सेवानिवृत्त मेजर जनरल हैं)