शहरों में छिपे माओवादियों के समर्थक, अर्बन नक्सलियों से भी सरकार को रहना होगा सतर्क
दिल्ली में वायु प्रदूषण के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान माओवादी समर्थक नारे लगने से अर्बन नक्सलियों का समर्थन उजागर हुआ। सुरक्षाबलों की सक्रियता से माओवादियों में हड़कंप है और कई नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया है। गृहमंत्री अमित शाह ने मार्च 2026 तक माओवाद के समूल नाश की बात कही है। सरकार को माओवादियों के शहरी समर्थकों से सावधान रहने की आवश्यकता है।
HighLights
प्रमोद भार्गव। इसे एक धोखा ही कहा जाएगा कि चंद कथित पर्यावरण प्रेमी वायु प्रदूषण के विरुद्ध प्रदर्शन करें और फिर एकाएक अपने प्रदर्शन को माओवादियों के प्रति हमदर्दी जताने में तब्दील कर दें। बीते दिनों दिल्ली में ऐसा ही हुआ। कुछ लोग दिल्ली में बढ़ते वायु प्रदूषण के खिलाफ प्रदर्शन करने उतरे, लेकिन फिर वे कुख्यात माओवादी सरगना हिड़मा के समर्थन में उतर आए। उन्होंने ‘माडवी हिड़मा अमर रहे’ के नारे लगाए।
पुलिस ने जब उन्हें नारे लगाने से रोका तो वे पेपर स्प्रे छिड़कते हुए हिंसक हो गए। पुलिस ने 15 से ज्यादा लोगों को हिरासत में ले लिया। ये माओवाद समर्थक अर्बन नक्सल वाली परिभाषा पर खरे उतरते हैं। ये इससे खफा थे कि हिड़मा को क्यों मारा गया। स्पष्ट है कि ये अर्बन नक्सल जानबूझकर हिड़मा की खूनी हरकतों से अनजान थे। हिड़मा के मारे जाने के बाद माओवादी कैडर में हड़कंप है।
सुरक्षाबलों की सक्रियता के चलते माओवादी बड़ी संख्या में आत्मसमर्पण कर रहे हैं। बीते कुछ दिनों में बस्तर जिले में ही सक्रिय 2 करोड़ 8 लाख के इनामी 69 नक्सलियों ने हथियार डाले हैं। इनमें पुरुषों के साथ महिलाएं भी शामिल हैं। गृहमंत्री अमित शाह लगातार कह रहे हैं कि मार्च 2026 तक देश से माओवाद का समूल नाश कर दिया जाएगा। इस कारण जंगलों में छिपे माओवादी और साथ ही अतिवादी वामपंथी वैचारिकता से जुड़े अर्बन नक्सली बौखला गए हैं। माओवाद ऐसी जहरीली विचारधारा है, जिसे नगरीय बौद्धिकों का भी समर्थन मिलता रहा है।
ये अर्बन नक्सली खूंखार माओवादियों को आदिवासी समाज का हितचिंतक बताते हैं। जो आदिवासी उनका समर्थन नहीं करते, उन्हें माओवादियों की क्रूरता का शिकार होना पड़ता है। माओवादियों ने न जाने कितने आदिवासियों को पुलिस का मुखबिर बताकर मारा है। बावजूद इसके वामपंथी दलों को सुरक्षाबलों की ओर से माओवादियों के खिलाफ चलाया जा रहा अभियान पसंद नहीं आता। वे इससे चिंतित हैं कि सरकार माओवादियों के सफाए के लिए प्रतिबद्ध है।
हाल में सुरक्षा बलों को माओवादियों की कमर तोड़ने में उल्लेखनीय सफलता मिली है और अब यह लगने लगा है कि उनका मार्च 2026 तक सचमुच सफाया कर दिया जाएगा। इसका कारण यह है कि एक के बाद एक माओवादी सरगना या तो मारे जा रहे हैं या फिर वे हथियार डालने के लिए मजबूर हो रहे हैं। कुछ समय पहले छत्तीसगढ़ के अबूझमाड़ के जंगलों में सुरक्षा बलों के माओवाद विरोधी अभियान को तब बड़ी सफलता मिली थी, जब डेढ़ करोड़ के इनामी बसव राजू समेत 27 माओवादियों को मार गिराया गया था। यह कुख्यात माओवादी गुरिल्ला लड़ाका था। इसने वारंगल के क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कालेज में पढ़ाई की थी, लेकिन बाद में हिंसा और हत्याओं के खूनी खेल में लिप्त हो गया।
यह चिंता की बात है कि माओवादियों के खूनी इतिहास से अवगत होने के बाद भी वाम-विचार वाले बौद्धिक उन्हें वैचारिक खुराक देने में लगे रहते हैं। माओवादी हिंसा लंबे समय से देश के कई राज्यों में आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा बनी हुई थी। एक समय माओवादी हिंसा को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा माना जाता था, लेकिन मोदी सरकार द्वारा उस पर शिकंजा कसे जाने से रक्त बहाने वाले इस हिंसक उग्रवाद पर लगभग नियंत्रित होता दिख रहा है।
वैसे तो मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहते हुए भी विषैली विचारधारा वाले माओवादियों को नियंत्रित करने के लिए कठोर नीति अपनाई गई, लेकिन सोनिया गांधी द्वारा नियंत्रित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने इस कठोर नीति का विरोध किया। विरोध इतना बढ़ा कि उस अभियान को शिथिल करना पड़ा। इससे माओवादियों का मनोबल बढ़ा और उन्होंने अपनी ताकत बढ़ानी शुरू की। उस दौर में माओवादियों का दुस्साहस इतना अधिक बढ़ गया था कि माओवादी सरगना किशनजी कहता था कि सरकार से वार्ता के पहले सुरक्षा बलों को भी हथियार डालने होंगे।
इसमें कोई दो राय नहीं कि माओवादियों का तंत्र कमजोर हुआ है, लेकिन उनकी ताकत अभी शेष है। ज्यादातर माओवादी आदिवासी हैं। वे दुर्गम जंगली क्षेत्रों में छिपने के स्थलों और जल स्रोतों से खूब परिचित हैं। जंगलों में रह रहे माओवादियों के साथ-साथ उन्हें वैचारिक समर्थन देने वाले अर्बन नक्सलियों से भी इसलिए सावधान रहना होगा, क्योंकि वे यह भ्रम फैलाते हैं कि सरकार उद्योगपतियों को आदिवासियों की जमीन सौंपकर उन्हें बेदखल करना चाहती है।
दिल्ली में कथित पर्यावरण प्रेमियों ने जिस तरह प्रदूषण के बहाने माओवादियों के प्रति हमदर्दी जताई, उससे यही स्पष्ट होता है कि सरकार को माओवादियों के इन शहरी समर्थकों यानी अर्बन नक्सल से सावधान रहना होगा। शहरी बुद्धिजीवियों का जो तबका माओवादी हिंसा पर मौन रहता है, वह एक तरह से उनके खूनी तौर-तरीकों का समर्थन ही करता है। जब कभी ऐसे राष्ट्रघाती बुद्धिजीवी गिरफ्तार किए जाते हैं तो बौद्धिकों और वकीलों का एक गुट उनके पक्ष में लामबंद हो जाता है।
यह गुट सर्वोच्च न्यायालय को भी प्रभाव में लेने की कोशिश करता है। इससे सरकार का काम और अधिक कठिन हो जाता है। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि माओवादियों से लड़ने वाले अभियान सलवा जुडूम को सुप्रीम कोर्ट की आपत्ति के बाद खत्म करना पड़ा था। इससे कुल मिलाकर माओवादियों को ही लाभ मिला था।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)













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