जागरण संपादकीय: संविधान की शक्ति, समय-समय पर संशोधन भी जरूरी
सुधार की आवश्यकता न केवल राजनीतिक, प्रशासनिक, न्यायिक एवं आर्थिक क्षेत्र में है, बल्कि सामाजिक क्षेत्र में भी। इसकी अनदेखी न की जाए तो अच्छा कि अभी समान नागरिक संहिता का एजेंडा अधूरा है तो आरक्षण का लाभ भी पात्र लोगों तक पहुंचना शेष है। इन विषयों पर केवल बातें ही नहीं की जानी चाहिए, बल्कि काम करके दिखाया जाना चाहिए।
HighLights
संविधान राष्ट्र की आत्मा है।
समय के साथ संशोधन जरूरी।
अनुच्छेद 368 में प्रक्रिया।
संविधान दिवस पर संसद के सेंट्रल हाल से लेकर अन्य स्थानों पर हुए विभिन्न आयोजन संविधान की महत्ता को ही रेखांकित करते हैं। ये आयोजन इसीलिए हो सके, क्योंकि मोदी सरकार ने 2015 में प्रति वर्ष 26 नवंबर को संविधान दिवस मनाने का फैसला किया था। इस अवसर पर जहां राष्ट्रपति ने इस पर बल दिया कि हमारा संविधान ही राष्ट्र की आधारशिला और राष्ट्रवादी सोच अपनाने का मार्गदर्शक दस्तावेज है, वहीं प्रधानमंत्री ने खुद के पीएम पद तक पहुंचने को संविधान की शक्ति बताया।
इसकी पुष्टि कुछ दिन पहले सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई ने यह कहकर की थी कि वह इस पद पर संविधान के कारण ही पहुंचे। प्रधानमंत्री ने संविधान का उल्लेख करते हुए देशवासियों को लिखी चिट्ठी में उनके नागरिक दायित्वों की जो याद दिलाई, उस पर ध्यान इसलिए दिया जाना चाहिए, क्योंकि देश को विकसित बनाने का स्वप्न तभी पूरा हो सकता है, जब हर कोई अपने अधिकारों के साथ-साथ अपने दायित्वों के प्रति भी सजगता दिखाएगा।
संविधान के प्रति अपनी-अपनी तरह से समर्पण का भाव व्यक्त किए जाने के बीच नेता विपक्ष राहुल गांधी की ओर से जिस तरह यह कहा गया कि उस पर किसी तरह के हमले को सहन नहीं किया जाएगा, उससे यही पता चला कि वे फिर से यह हौवा खड़ा करना चाहते हैं कि संविधान खतरे में है।
जो भी संविधान को खतरे में बताते हैं, वे यह समझें तो बेहतर कि ऐसा करके वे संविधान को कमजोर साबित करने के साथ ही उसका निरादर भी करते हैं। वास्तव में यदि संविधान के समक्ष कोई खतरा है तो वह है उसकी मनमानी व्याख्या का। यह विचित्र है कि संविधान एक है, लेकिन उसकी व्याख्या अपनी-अपनी तरह से की जाती है।
जब ऐसा होता है तो लोगों में संशय पैदा होता है। एक नई प्रवृत्ति यह भी देखने को मिल रही है कि संविधान के प्रविधानों को पत्थर की लकीर की तरह पेश किया जाने लगा है। संविधान एक जीवंत दस्तावेज है और इसी कारण सभी दलों की सरकारों ने उसमें समय-समय पर संशोधन किए हैं। अब ऐसा प्रकट किया जा रहा है, जैसे संविधान में किसी तरह का संशोधन करना गुनाह है। यह लोगों को भरमाने वाला दुष्प्रचार ही है।
होना तो यह चाहिए कि पक्ष-विपक्ष इस पर एकमत हों कि संविधान की भावना के अनुरूप विभिन्न क्षेत्रों में सुधार के शेष कदम यथाशीघ्र उठाए जाएं। सुधार की आवश्यकता न केवल राजनीतिक, प्रशासनिक, न्यायिक एवं आर्थिक क्षेत्र में है, बल्कि सामाजिक क्षेत्र में भी। इसकी अनदेखी न की जाए तो अच्छा कि अभी समान नागरिक संहिता का एजेंडा अधूरा है तो आरक्षण का लाभ भी पात्र लोगों तक पहुंचना शेष है। इन विषयों पर केवल बातें ही नहीं की जानी चाहिए, बल्कि काम करके दिखाया जाना चाहिए।













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