विचार: समस्या बना संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत, भारतीय संस्कृति और मूल्यों को ध्यान में रखना जरूरी
संविधान के प्रति यह आदर बना रहे और संवैधानिक संस्थाओं के प्रति जनता की आस्था अडिग रहे, इसके लिए जरूरी है कि व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपने-अपने उत्तरदायित्वों की लक्ष्मण रेखा को पहचानते हुए भारतीय संस्कृति और मूल्यों को ध्यान में रखकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें। तभी भारत विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के साथ ही सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र भी बन सकेगा।
HighLights
मूल ढांचे के सिद्धांत पर सवाल
डॉ. एके वर्मा। इस साल 26 नवंबर को भारतीय संविधान के 76 वर्ष पूर्ण हो गए हैं। कुछ उतार-चढ़ावों के बावजूद संविधान ने देश के गणतंत्रात्मक, संघात्मक और लोकतांत्रिक स्वरूप को सशक्त किया है। जहां पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, श्रीलंका जैसे तमाम देशों में कई-कई बार संविधान बदल कर नए संविधान बनाए गए, वहीं भारतीय जनता ने अपने संविधान में आस्था बनाए रखी है। संसद ने 106 संविधान संशोधनों द्वारा कानून और सामाजिक विकास में समन्वय बनाए रखा है। आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी द्वारा संविधान में छेड़छाड़ को छोड़ दिया जाए तो हम कह सकते हैं कि संविधान निर्माताओं की अपेक्षाओं के अनुरूप संविधान चलता रहा है।
लोकतंत्र सीधी लकीर में चलने वाली संवैधानिक व्यवस्था नहीं है। असहमति, आलोचना और विरोध उसके अपरिहार्य तत्व हैं। इसलिए लोकतंत्र में होने वाले टकरावों से उत्पन्न सामाजिक राजनीतिक गर्माहट को नकारात्मकता की संज्ञा नहीं दी जानी चाहिए। भारत ने सामाजिक, सांस्कृतिक, मजहबी, क्षेत्रीय और भाषाई आदि विविधताओं के चलते असहमतियों, आलोचनाओं और विरोध को अपनी लोकतांत्रिक सभ्यता-संस्कृति के अभिन्न तत्व के रूप में अंगीकार किया है।
इस वर्ष संविधान दिवस इसलिए विशेष है, क्योंकि हाल में सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय खंडपीठ ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु द्वारा अनुच्छेद 143(1) के अंतर्गत मांगे गए 14 बिंदुओं पर अपना परामर्श दिया, जिसमें न्यायमूर्तियों ने ‘स्वदेशी व्याख्या’ पद्धति अपनाई। इसी में न्यायमूर्तियों ने ‘शक्ति विभाजन सिद्धांत’ की पुनर्स्थापना करते हुए स्वयं न्यायपालिका को सचेष्ट किया कि वह कार्यपालिका अर्थात राष्ट्रपति एवं राज्यपालों द्वारा विधेयकों को स्वीकृत करने के संवैधानिक अधिकारों में सेंध का प्रयास न करे। यह महत्वपूर्ण न्यायिक परामर्श है, जो न्यायपालिका के लिए न केवल ‘लक्ष्मण रेखा’ खींचता है, वरन व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के अंतर्संबंधों में पारस्परिकता एवं सौहार्द की आवश्यकता को भी रेखांकित करता है।
जनता को लगता है कि 1993 में न्यायिक नियुक्तियों के लिए बनी कोलेजियम प्रणाली और उससे पहले 1973 में केशवानंद भारती मामले में संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत प्रतिपादन करने में सर्वोच्च न्यायालय ने संभवत: इस लक्ष्मण रेखा का अतिक्रमण किया है। कोलेजियम प्रणाली के तहत न्यायपालिका ने उच्चतर न्यायपालिका में नियुक्ति एवं स्थानांतरण का अधिकार अपने हाथ में ले लिया। यह व्यवस्था अनुच्छेद 124 में वर्णित प्रक्रिया के उलट है, जो राष्ट्रपति को अधिकार देती है कि वह मुख्य न्यायाधीश और ऐसे अन्य न्यायाधीशों (जिनसे परामर्श जरूरी हो) से परामर्श कर न्यायाधीशों की नियुक्ति करे। प्रमुख लोकतंत्रों में कहीं ऐसा नहीं है जहां न्यायपालिका ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करे। विशेषज्ञों का भी मानना है कि कोलेजियम व्यवस्था से न्यायिक नियुक्तियों में निष्पक्षता एवं पारदर्शिता प्रभावित हुई है और न्यायपालिका एवं कार्यपालिका के बीच शक्ति का संतुलन बिगड़ा है।
संविधान के मूल ढांचे का सिद्धांत व्यवस्थापिका और कार्यपालिका दोनों पर सदैव लटकने वाली तलवार जैसा है। केशवानंद भारती मामले में न्यायालय ने निर्णय दिया कि संसद मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी प्रविधान में संशोधन कर सकती है, लेकिन संविधान के मूल ढांचे में कोई परिवर्तन नहीं कर सकती। न्यायालय ने मूल ढांचे की कोई अंतिम परिभाषा एवं सूची नहीं बनाई। इतना ही नहीं, कालांतर में शीर्ष अदालत मूल ढांचे के अलग-अलग पहलू चिह्नित करती गई। इस प्रकार संसद आश्वस्त ही नहीं हो पाती कि संविधान संशोधन में वह किसी मूल ढांचे का उल्लंघन कर रही है या करने जा रही है?
संविधान निर्माताओं ने न्यायपालिका को न्यायिक पुनरीक्षण का सीमित अधिकार दिया था और उसे विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के सिद्धांत से बांधा भी, जिससे वह किसी कानून को केवल तभी निरस्त कर सके जब वह संवैधानिक प्रविधानों के विरुद्ध हो। मूल ढांचे के सिद्धांत का प्रयोग कर सर्वोच्च न्यायालय ने स्वयं को ‘न्यायिक वीटो’ प्रदान कर दिया है, जो कानूनों और संवैधानिक संशोधनों को भी किसी ज्ञात या अज्ञात मूल ढांचे के विरुद्ध होने के आधार पर निरस्त कर सकता है।
मूल ढांचे के सिद्धांत का प्रतिपादन कर न्यायपालिका ने व्यवस्थापिका और कार्यपालिका दोनों पर अपना वर्चस्व स्थापित किया है, जो स्वयं मूल ढांचे के शक्ति विभाजन सिद्धांत के प्रतिकूल है। ऐसे में संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत की नए सिरे से समीक्षा होनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने भले ही राष्ट्रपति या राज्यपालों हेतु विधेयकों की स्वीकृति के लिए समयसीमा निर्धारित करने को त्रुटिपूर्ण माना, पर यह भी संकेत दिया कि राष्ट्रपति एवं राज्यपालों को विधेयकों को स्वीकृत करने में अति-विलंब नहीं करना चाहिए। क्या यह संकेत न्यायपालिका तक भी जाएगा, क्योंकि न्यायपालिका में वादों को निपटाने में बहुत समय लगता है? क्या सर्वोच्च न्यायालय किसी ऐसी व्यवस्था को जन्म दे सकता है, जिससे मुकदमों पर एक-सप्ताह, एक-महीने या एक-वर्ष में अंतिम निर्णय हो सके?
विकसित राष्ट्र के लिए संविधान की क्लिष्ट भाषा का सरलीकरण भी जरूरी है। संविधान की भाषा ऐसी हो कि विधि विशेषज्ञ, वकील और न्यायाधीश ही नहीं, आम नागरिक भी संविधान को पढ़-समझ सकें। यह सही है कि सरकार और न्यायपालिका की कई पहल ऐसी रही हैं, जिनसे संविधान और कानूनों का सरलीकरण हुआ है, लेकिन संविधान के प्रति आदर का भाव होने के बावजूद अभी आम नागरिक और संविधान में बहुत दूरी है। संविधान के प्रति यह आदर बना रहे और संवैधानिक संस्थाओं के प्रति जनता की आस्था अडिग रहे, इसके लिए जरूरी है कि व्यवस्थापिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपने-अपने उत्तरदायित्वों की लक्ष्मण रेखा को पहचानते हुए भारतीय संस्कृति और मूल्यों को ध्यान में रखकर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें। तभी भारत विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के साथ ही सर्वश्रेष्ठ लोकतंत्र भी बन सकेगा।
(लेखक सेंटर फॉर द स्टडी आफ सोसायटी एंड पालिटिक्स के निदेशक एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)












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