अयोध्या में राम मंदिर के शिखर पर धर्म ध्वजा की स्थापना केवल इस मंदिर के निर्माण की पूर्णता का ही परिचायक नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक चेतना का उद्घोष भी है। इस आयोजन के साथ पांच सदी पुराने एक संघर्ष का समापन हुआ। भगवान राम के जन्म स्थान पर भव्य मंदिर के निर्माण की अभिलाषा पूरी होने में इसलिए अधिक समय लगा, क्योंकि स्वतंत्रता के बाद जिस कार्य को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए थी, उसे संकीर्ण राजनीतिक कारणों से अनदेखा किया गया।

किसी भी स्वाभिमानी राष्ट्र का पहला दायित्व होता है स्वतंत्र होते ही परतंत्रता के चिह्नों को मिटाना। विश्व के अनेक देशों ने ऐसा ही किया। इस मामले में पोलैंड की ओर से रूसी साम्राज्य की ओर से बनवाए गए आर्थोडाक्स चर्च को ढहाए जाने का निर्णय एक मिसाल है, लेकिन भारत छद्म पंथनिरपेक्षता और सांस्कृतिक विरासत के प्रति गौरव भाव के अभाव के चलते ऐसी मिसाल कायम करने से पीछे हट गया।

होना तो यह चाहिए था कि जैसे सोमनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार किया गया, वैसे ही अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने के साथ ही काशी और मथुरा के मंदिरों को भी मुक्त कराया जाता। यदि अयोध्या में सदियों की प्रतीक्षा के बाद राम मंदिर का निर्माण हो सका तो केवल इसलिए नहीं कि अंततः न्यायपालिका ने इस विवाद का निपटारा करने का फैसला किया।

न्यायपालिका इस विवाद का निपटारा इसलिए कर सकी, क्योंकि मोदी सरकार ने अनुकूल परिस्थितियां पैदा कीं। इसके विपरीत पहले की अधिकांश सरकारों ने ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करने के बजाय ऐसे प्रयत्न अधिक किए कि इस विवाद का समाधान ही न हो सके। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि तब सुप्रीम कोर्ट ने भी अयोध्या विवाद पर राष्ट्रपति की ओर से संदर्भित प्रश्न का संज्ञान लेने से मना कर दिया था। यह सब संकीर्ण राजनीति के साथ मैकाले की शिक्षा पद्धति से उपजी उस मानसिकता के चलते भी हुआ, जिससे मुक्ति की आवश्यकता प्रधानमंत्री मोदी ने अयोध्या में भी जताई।

वे इसके पहले भी गुलामी वाली इस मानसिकता के समूल नाश की आवश्यकता रेखांकित कर चुके हैं। मैकाले की शिक्षा पद्धति से उपजी मानसिकता ने भारतीय समाज को उसकी समृद्ध सांस्कृतिक चेतना से विमुख तो किया ही, अपनी विरासत को हीन समझने का आत्मघाती भाव भी पैदा किया।

प्रधानमंत्री का संकल्प है कि अगले दस वर्षों में इस मानसिकता से मुक्ति पा ली जाए, लेकिन यह आसान कार्य नहीं। इसके लिए उस शिक्षा व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करना होगा, जिसमें मैकाले काल की शिक्षा के अवशेष अब भी दिखते हैं और जिसके चलते अपनी संस्कृति और विरासत पर गर्व करने में संकोच किया जाता है।