राजीव सचान। दिल्ली में लाल किले के निकट आतंकी धमाका करने वाले आत्मघाती हमलावर उमर नबी का वीडियो सामने आने के बाद उसे भटका हुआ और गुमराह बताने की होड़ लगी है। कुछ नेता तो उसे मुस्लिम मानने को ही तैयार नहीं। यह सब इसीलिए है, क्योंकि वह अपने एक वीडियो में यह कहते हुए देखा-सुना गया कि आत्मघाती हमला इस्लामी कृत्य है-शहादत है। वह पहला ऐसा आतंकी नहीं, जिसने आत्मघाती हमले को मजहबी अथवा इस्लामी कृत्य बताया हो। न जाने कितने आतंकी और उनके समूह ऐसा ही कहते हैं। तमाम आतंकी समूहों के तो नाम ही इस्लामी हैं, जैसे जैशे मोहम्मद और लश्करे तैयबा। पाकिस्तान आधारित इन जिहादी संगठनों के साथ-साथ भारत में भी इस्लामी नाम वाले कई आतंकी संगठन बनाए जा चुके हैं। इनके नाम उनकी प्रेरणा का स्रोत ही बताते हैं और यह प्रायः मजहबी ही होता है। इसका प्रमाण यह है कि इनमें से अधिकांश का लक्ष्य गजवा-ए-हिंद या ऐसा ही कुछ होता है।

सबसे खूंखार आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट अपने को केवल इस्लामी ही नहीं बताता, बल्कि उसने अपने झंडे पर इस्लाम में ईमान की घोषणा यानी शहादा को भी अंकित कर रखा है। उसने ऐसा इसीलिए किया, ताकि खुद को पक्का इस्लामी संगठन साबित कर सके। क्या यह किसी से छिपा है कि दुनिया भर के न जाने कितने मुस्लिम युवक उसके लिए लड़ने सीरिया और इराक पहुंचे? ऐसा तब हुआ, जब कई देशों में उसके खिलाफ फतवा जारी हुआ। भारत में भी हुआ था, लेकिन केरल, कर्नाटक से कई मुस्लिम युवकों ने उसे महत्व नहीं दिया। यह संगठन अफगानिस्तान और पाकिस्तान में अब भी सक्रिय है। इसने जैसी बर्बरता दिखाई, उसकी मिसाल मिलना कठिन है। इसके बाद भी एक समय कश्मीर में इस खूंखार आतंकी संगठन से हमदर्दी रखने वालों में उसका झंडा लहराने की सनक सवार थी।

राजौरी में इस सनक से आजिज आए लोगों ने एक बार आइएस के झंडे को जला दिया। इस पर बवाल हो गया। बवाल करने वालों ने कहा कि उनकी मजहबी भावनाओं को आहत किया गया है। झंडा जलाने वालों ने माफी मांगी और कहा कि उन्हें नहीं पता था कि झंडे में क्या अंकित था और उसका मतलब क्या है, लेकिन कथित आहत लोग शांत होने को तैयार नहीं हुए। नतीजा यह हुआ कि वहां कर्फ्यू लगाना पड़ा। इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि कश्मीर में जब किसी बड़ी आतंकी घटना को अंजाम देने वाला आतंकी मारा जाता था, तो तत्काल ही उसे भटका हुआ और दीन-ईमान से खारिज बता दिया जाता था, लेकिन उसके जनाजे में हजारों लोग शामिल होने भी आ जाते थे। अन्य अनेक कारणों के साथ-साथ यही दोहरा रवैया भी जिहादी आतंक से लड़ाई को कठिन बना रहा है।

यह हास्यास्पद ही है आतंकी उमर का वीडियो सामने आते ही जिहाद को अंदरूनी संघर्ष-छोटे संघर्ष के रूप में परिभाषित किया जाने लगा। इसी तरह काफिर शब्द की भी मनचाही व्याख्या की जाने लगी। यह भी कहा जाने लगा कि आतंकी का कोई मजहब नहीं होता। निःसंदेह नहीं होता, लेकिन क्या इसमें संदेह है कि वे मजहब का ही सहारा लेते हैं और उसके ही जरिये समर्थन जुटाते हैं-संरक्षण पाते हैं। जैसे फरीदाबाद आतंकी माड्यूल वाले आतंकियों ने पाया। इस माड्यूल में शामिल कई आतंकी डाक्टर हैं। साफ है कि उनके उच्च शिक्षित होने में कोई संदेह नहीं। इसके बाद भी उनके आतंकी बनने के लिए मोदी सरकार और उसकी नीतियों को जिम्मेदार बताने की कोशिश हो रही है।

क्या यह कहा जा सकता है कि मोदी सरकार ने उनके डाक्टर बनने में बाधा खड़ी की या फिर उनकी कहीं नौकरी नहीं लगने दी? यदि ऐसा कुछ होता तो वे डाक्टरी की पढ़ाई पूरी करके कश्मीर के साथ-साथ फरीदाबाद, सहारनपुर आदि में नौकरी कैसे पा गए? चूंकि वे अच्छा-खासा वेतन पाते थे, इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि आर्थिक तंगी से ग्रस्त थे। वे जिहादी इसलिए बने, क्योंकि उन पर जिहाद के रास्ते पर चलने का भूत सवार हुआ और इसलिए सवार हुआ, क्योंकि उन्होंने खोज लिया कि यह रास्ता तो मजहबसम्मत है। यदि वे किसी जिहादी मौलवी या पाकिस्तानी हैंडलर से जुड़ गए तो क्या अपनी अज्ञानता के कारण जुड़े? वे तो इसीलिए जुड़े, क्योंकि उन्होंने उनके कहे को सही माना। यदि वे अपनी आतंकी हरकत को मजहबी कृत्य साबित करने में समर्थ नहीं हुए होते तो अपने साथ इतने अधिक लोगों को नहीं जोड़ पाते कि उनकी गिनती करना कठिन होता।

फरीदाबाद माड्यूल में शामिल आतंकी डाक्टरों के बारे में यह भी नहीं कहा जा सकता कि वे किसी प्रताड़ना का शिकार थे। कुछ लोगों की ओर से यह भी कहा जा रहा है कि जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के कारण उनमें आक्रोश भर गया और वे आतंक की राह पर चलने को मजबूर हुए, लेकिन कश्मीर में आतंकवाद तो तब भी था, जब वहां अनुच्छेद 370 मौजूद था। आखिर तब वहां आतंकी क्यों बन रहे थे? आतंक और विशेष रूप से जिहादी आतंक से तब तक छुटकारा नहीं मिलने वाला, जब तक इस सच से मुंह मोड़ा जाता रहेगा कि वे आसानी से अपने कृत्य को मजहबी साबित करने में समर्थ हो जाते हैं। यह आसानी ही जिहादी आतंक से लड़ाई की सबसे बड़ी चुनौती है। इस चुनौती का सामना करना है तो यह स्वीकार करना होगा कि आतंकी मजहबी जुनून से लैस होते हैं।

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)