विचार: सुदर्शन छवि वाला सबका चहेता नायक, धर्मेंद्र दर्शकों के भीतर सदैव बने रहे
आज जब हम धर्मेंद्र को याद कर रहे हैं तो यह केवल अपने किसी चहेते नायक को याद करना नहीं है, बल्कि उस युग को याद करना है, जिसने भावनाओं को ईमानदारी से जिया। धर्मेंद्र का नाम लेते ही एक पूरा सांस्कृतिक परिदृश्य सामने आता है। वे उस पुल की तरह थे, जो गांव और शहर, यथार्थ और स्वप्न, संघर्ष और शांति को जोड़ता था। उनकी फिल्मों के दृश्य अब समय की स्मृति बन चुके हैं, पर उनमें निहित भावना जीवित रहेगी।
HighLights
धर्मेंद्र हमेशा दर्शकों के चहेते नायक रहे
सादगी और सहजता से वह हमेशा लोकप्रिय रहे
धर्मेंद्र ने हर किरदार में अपनी छाप छोड़ी
परिचय दास। धर्मेंद्र हिंदी सिनेमा के उस विराट व्यक्तित्व का नाम है, जो शक्ति और सौंदर्य के संगम में ढलकर लोगों के मन-मस्तिष्क में अमर हो गए। वे केवल एक अभिनेता नहीं, बल्कि भारतीय जीवन के उस मिजाज का चेहरा थे, जिसमें मिट्टी की गंध, प्रेम की ऊष्मा और संघर्ष की गरिमा एक साथ सांस लेती थी। उनकी आंखों में गांव का नीला आसमान झलकता था। फिल्मी पर्दे पर जब वे आते तो दर्शक उन्हें देखते नहीं, अपने भीतर महसूस करते। इसी कारण वे सदैव लोकप्रिय बने रहे। उनके अभिनय को किसी विशेष युग में बांधना संभव नहीं।
वे 1960 के दशक की उस पीढ़ी के प्रतिनिधि थे, जिसने परंपरा और आधुनिकता के बीच पुल बनाया। वे जितने ‘शोले’ के वीरु थे, उतने ही ‘चुपके चुपके’ के विनोदी अध्यापक भी। उनकी आंखें जब दर्द से भीगतीं तो दर्शक उनमें अपनी पीड़ा को अनुभूत करते और जब वे हंसते तो लगता, जैसे पूरा गांव किसी मेले में उतर आया हो। धर्मेंद्र की अभिनय शैली में किसी बनावट का स्पर्श नहीं था। वे हर रूप में फबते थे और अपना प्रभाव छोड़ते थे। उनका चेहरा भारतीय पुरुषत्व का प्रतीक बन गया था, किंतु वह पुरुषत्व अहंकार से नहीं, बल्कि संरक्षण की करुणा से उपजा था। उन्हें ही-मैन की उपाधि इसीलिए मिली, क्योंकि वह असली हीरो की छवि पर सौ प्रतिशत खरे उतरते थे। उनके जैसी सुदर्शन छवि वाला नायक और कोई नहीं हुआ। उनकी सुदर्शन छवि और गठीले बदन की चर्चा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हुई, लेकिन उन्हें कभी इसका कोई गुमान नहीं रहा।
धर्मेंद्र पंजाब की मिट्टी से उठे और पूरे भारत के जन-मन में फैल गए। गांव के खेत से लेकर मुंबई की रोशन सड़कों तक वे चलते रहे, पर भीतर वही सहज किसान बने रहे। सादगी उनकी सबसे बड़ी पूंजी रही। सिनेमा में उन्होंने हर रूप को छुआ-एक्शन, रोमांस, कामेडी, त्रासदी, पर हर जगह वे धर्मेंद्र ही रहे। उन्होंने अभिनय को आत्माभिव्यक्ति का माध्यम बनाया, न कि दिखावे का उपकरण। इसलिए उनकी फिल्में केवल मनोरंजन नहीं, जीवन की सुगंध भी बांटती थीं। ‘अनुपमा’ के उदास प्रेमी से लेकर ‘सत्यकाम’ के आदर्शवादी नायक तक और ‘शोले’ के वीरू से लेकर ‘चुपके चुपके’ के विनोदी अध्यापक तक धर्मेंद्र ने जीवन के सभी रंग जिए। ‘सत्यकाम’ में उन्होंने जिस तरह आदर्श और यथार्थ के बीच टूटते आदमी के चरित्र को निभाया, वह भारतीय सिनेमा की सबसे संवेदनशील प्रस्तुतियों में से एक है। यह फिल्म ज्यादा चली नहीं, पर उसने लोगों पर बहुत गहरा प्रभाव छोड़ा। इस फिल्म में धर्मेंद्र एक दार्शनिक के रूप में थे, जो समाज के दो मुखौटों के बीच सच्चाई खोजता है।
उनका जीवन भी किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं। प्रारंभिक दिनों में उन्होंने संघर्षों की वह धूप देखी, जो किसी को झुलसा सकती थी, पर उन्होंने उसे तपस्या में बदल दिया। जिस तरह किसी पेड़ की जड़ें गहराई में जाती हैं और उसे स्थायित्व देती हैं, उसी तरह धर्मेंद्र के भीतर का संस्कार उन्हें स्थिरता देता रहा। उन्होंने सफलता को कभी सिर पर नहीं चढ़ने दिया और असफलता को कभी मन पर नहीं उतरने दिया। उनकी प्रेम भूमिकाओं में एक स्थायी संवेदना रही। उनका चेहरा समय के साथ बूढ़ा हुआ, पर उसकी आभा कभी क्षीण नहीं हुई। उस चेहरे में एक किसान की थकन और एक कवि की चमक थी।
वे अपने समय के उन कुछ अभिनेताओं में रहे, जिन्होंने अभिनय को मानवीय नैतिकता से जोड़ा। वे हिंसा के बीच भी प्रेम खोजते और प्रेम के बीच भी आत्मसंयम बनाए रखते। समय के साथ जब सिनेमाई मूल्य बदलते गए, धर्मेंद्र ने खुद को पीछे हटाकर देखना चुना। वे पर्दे से धीरे-धीरे भले ही ओझल होते गए हों, लेकिन दर्शकों के भीतर बने रहे। आज जब हम धर्मेंद्र को याद कर रहे हैं तो यह केवल अपने किसी चहेते नायक को याद करना नहीं है, बल्कि उस युग को याद करना है, जिसने भावनाओं को ईमानदारी से जिया। धर्मेंद्र का नाम लेते ही एक पूरा सांस्कृतिक परिदृश्य सामने आता है। वे उस पुल की तरह थे, जो गांव और शहर, यथार्थ और स्वप्न, संघर्ष और शांति को जोड़ता था। उनकी फिल्मों के दृश्य अब समय की स्मृति बन चुके हैं, पर उनमें निहित भावना जीवित रहेगी।
उनकी आवाज अब भी रेडियो की तरह भीतर गूंजती रहेगी। वे हमें यह विश्वास दिलाते थे कि सादगी ही सबसे बड़ा आकर्षण है। धर्मेंद्र भारतीय सिनेमा के नहीं, भारतीय मन के नायक थे। वे हिंदी सिनेमा के धड़कते हुए रोमांस थे। वे पर्दे पर आते थे तो लगता था कि जिंदगी अपने सबसे देसी और सबसे सजीव रूप में बोल रही है। उनके पीछे एक पूरा सांस्कृतिक युग चलता दिखता था। उनके चेहरे में किसी हीरो की कृत्रिम चमक नहीं, बल्कि एक आदमी का उजाला था, जो जीवन से जूझता है, फिर मुस्कुराता है। उनके हर फ्रेम में प्रेम आकर्षण ही नहीं, आत्मीयता का ताप है। उन्होंने हर भूमिका में छाप छोड़ी-वह चाहे डाकू की हो या फिर प्रेमी या पुलिस की। वे एक्शन हीरो भी कहलाए और रोमांटिक नायक भी। उन्होंने हर समय अपनी उपयोगिता बनाए रखी। उनके जैसा कोई नहीं था।
(लेखक नव नालंदा महाविहार विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं)









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