विचार: बेलगाम होती भाषाई अराजकता, सियासी नाकामी से उपजी कुंठा
कर्नाटक में तो वह सरकार में ही है, लेकिन अराजकता के खिलाफ कभी उसका प्रभावी रवैया नहीं दिखा। अगर भाषाई अराजकता पर प्रभावी रोक नहीं लगाई गई तो यह अराजकता लोगों के बीच कटुता का वाहक बनेगी, जिसका खामियाजा आखिरकार देश को भुगतना पड़ेगा।
HighLights
कर्नाटक में बेलगाम भाषाई अराजकता
राजनीतिक नाकामी से उपजी कुंठा
देश को भुगतना पड़ेगा खामियाजा
उमेश चतुर्वेदी। इसे विडंबना ही कहेंगे कि जब भारत दुनिया की तीसरी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर तेजी से बढ़ रहा है और विकसित भारत की बातें हो रही हैं, तब देश के कुछ हिस्सों में भाषाई अराजकता बेलगाम हो रही है। मान्यता है कि शिक्षा और समृद्धि के साथ असमानता और संकीर्णता का भाव तिरोहित हो जाता है, लेकिन अपेक्षाकृत समृद्ध और शिक्षित महाराष्ट्र, कर्नाटक और तमिलनाडु में जिस तरह भाषाई असहिष्णुता फैल रही है, उससे यह मान्यता गलत साबित होती दिख रही है। ताजा मामला महाराष्ट्र के कल्याण का है, जहां एक नौजवान ने इसलिए अपनी जीवनलीला खत्म कर ली, क्योंकि उसे हिंदी बोलने के लिए अपमानित किया गया। लोकल ट्रेन से कालेज जाते वक्त सहयात्री से संवाद के लिए हिंदी के कुछ लफ्जों का इस्तेमाल कुछ मराठीभाषियों को इतना नागवार गुजरा, उन्होंने उस पर थप्पड़ों की बारिश कर दी। इससे आहत नौजवान ने घर लौटकर आत्महत्या कर ली। यह नौजवान मराठीभाषी ही था।
क्या हिंदी बोलना इतना बड़ा गुनाह हो गया कि किसी को सरेआम अपमानित किया जाए, पीटा जाए। इस आघातकारी मामले में राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों की चुप्पी समस्या बनकर उभर रही है। ये संगठन भूल जाते हैं कि राष्ट्र को एकता के सूत्र में बांधने की हिंदी की क्षमता जिन लोगों ने पहचानी, उनमें गुजराती भाषी महात्मा गांधी एवं नर्मदाशंकर उपाध्याय, बांग्लाभाषी केशवचंद्र सेन एवं सुभाष चंद्र बोस और मराठा लोकमान्य तिलक जैसे अनेक अहिंदी भाषी थे। इन्होंने हिंदी को राष्ट्रभाषा और राजभाषा बनाने का सपना देखा था। राजनीतिक कुचक्रों के चलते हिंदी राष्ट्रभाषा के स्थान पर आसीन नहीं हो सकी, लेकिन उसकी सामर्थ्य किसी से छिपी नहीं।
कई क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतें हिंदी से भयाक्रांत हैं, जबकि हिंदी के विस्तार के पीछे राजभाषा की ताकत नहीं, बल्कि उसका अभिव्यक्ति का सशक्त जरिया बनना है। चूंकि हिंदी भारतीय भाषाओं के बीच सहज संवाद की क्षमता से युक्त है, इसलिए संकीर्णता से ग्रस्त क्षेत्रीय सियासी ताकतें उससे डरती हैं। हिंदी के जरिये उन्हें अपनी सियासी अस्मिता खतरे में नजर आती है। इसीलिए ये ताकतें हिंदीभाषियों को निशाना बनाती हैं। इसमें सबसे आगे राज ठाकरे और उनकी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना है। राज जब-जब हाशिए की ओर जाते दिखते हैं, भाषाई अराजकता उनका हथियार बन जाती है।
अव्वल तो आजादी के 75 सालों में भारतीय अस्मिता की बात होनी चाहिए, लेकिन मौजूदा राजनीति ने उपराष्ट्रीयताओं के साथ बांग्ला, मराठी, कन्नड़, तमिल जैसी खंडित अवधारणाएं प्रस्तुत कर दी हैं। क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतों के लिए इन दिनों अपनी भाषा का सवाल उठाना चुनावी सफलता की गारंटी माना जाने लगा है। महाराष्ट्र की राजनीति में अस्तित्व के संकट से जूझ रहे ठाकरे बंधु राज ठाकरे और उद्धव साथ आ चुके हैं। बाला साहेब के सियासी उत्तराधिकारी माने जाते रहे राज को खास सियासी कामयाबी नहीं मिली।
लिहाजा राजनीतिक रूप से खुद को प्रासंगिक बनाए रखने के लिए उनके हाथ में एक ही औजार है, मराठी के नाम पर गैर मराठीभाषियों को प्रताड़ित करना। राज ऐसा करके बाला साहेब की विरासत को आगे बढ़ाने का भ्रम पाले हैं। सवाल उठता है कि जिस हिंदी सिनेमा के लिए मुंबई जानी जाती है, राज ठाकरे और उनके लोग उस बालीवुड को क्यों नहीं मुंबई से खदेड़ देते? बालीवुड महाराष्ट्र की न सिर्फ वैश्विक पहचान है, बल्कि रोजी-रोटी के साथ ही टैक्स का बड़ा जरिया भी है। राज ठाकरे की मराठी अस्मिता की वीरता कमजोर हिंदीभाषियों पर ही फूटती है।
भाषाई अराजकता के पीछे स्थानीय भाषाई स्वाभिमान से ज्यादा सियासी नाकामी से उपजी कुंठा है। बाल ठाकरे की राजनीति का उभार पहले दक्षिण भारतीय लोगों के विरोध की बुनियाद पर हुआ। उनकी विरासत से वंचित राज ठाकरे को खुद को स्थापित करने के लिए पुराना हथकंडा ही नजर आया। महाराष्ट्र की तर्ज पर कर्नाटक में भी भाषाई अराजकता को बढ़ावा देने की कोशिश होती रहती है। तमिलनाडु में भाषाई अराजकता की नींव तो 1913 में ही पड़ गई थी, जब कथित ब्राह्मणवाद और उत्तर भारत विरोध के नाम पर जस्टिस पार्टी की स्थापना हुई।
इसी पार्टी के जरिये रामास्वामी पेरियार का उभार हुआ, जिन्होंने द्रविड़ आंदोलन की नींव डाली। तमिल राजनीति में डीएमके की जड़ें मजबूत करने में हिंदी विरोधी आंदोलन की केंद्रीय भूमिका रही। इसी वजह से मुख्यमंत्री स्टालिन और उनके बेटे उदयनिधि कभी हिंदी का विरोध करते हैं तो कभी संस्कृत को मृत भाषा बताकर गर्व महसूस करते हैं। कर्नाटक में कर्नाटक रक्षणा वेदिके भी डीएमके की तर्ज पर भाषाई अराजकता का हथकंडा अपनाती है।
अतीत के अराजक भाषा विरोधी आंदोलन हों या मौजूदा हिंदी विरोधी बयान, कांग्रेस आम तौर पर मूकदर्शक की भूमिका में रही है। आज कांग्रेस महाराष्ट्र में उसी महागठबंधन का हिस्सा है, जिसका एक प्रमुख घटक शिवसेना का उद्धव गुट है। माना जा रहा है कि मुंबई महानगर पालिका चुनाव में सफलता की उम्मीद के चलते कांग्रेस भाषाई अराजकता पर चुप्पी साधे है। कर्नाटक में तो वह सरकार में ही है, लेकिन अराजकता के खिलाफ कभी उसका प्रभावी रवैया नहीं दिखा। अगर भाषाई अराजकता पर प्रभावी रोक नहीं लगाई गई तो यह अराजकता लोगों के बीच कटुता का वाहक बनेगी, जिसका खामियाजा आखिरकार देश को भुगतना पड़ेगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)













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