अगले सप्ताह से शुरू हो रहे संसद के शीतकालीन सत्र को देखते हुए सर्वदलीय बैठक आयोजित किया जाना एक सहज-स्वाभाविक औपचारिकता है। अभी तक का अनुभव यही बताता है कि ऐसी बैठकों में पक्ष-विपक्ष की ओर से संसद को सुचारु रूप से चलाने को लेकर जिस आम सहमति का प्रदर्शन किया जाता है, उसका पहले ही दिन लोप हो जाता है।

ऐसी बैठकों में जहां विपक्ष अपनी दृष्टि से महत्वपूर्ण माने जाने वाले मुद्दों को उठाने पर बल देता है, वहीं सत्तापक्ष सभी विषयों पर गंभीर चर्चा कराने की हामी भरता है, लेकिन संसद में ऐसा कुछ मुश्किल से ही देखने को मिलता है। वहां देखने को मिलता है, नारेबाजी, हंगामा, कार्यवाही का स्थगन आदि। यह किसी से छिपा नहीं कि अब आम तौर पर संसद सत्र का शुभारंभ भी हंगामे से होता है और समापन भी।

इस बार भी ऐसा ही हो तो हैरानी नहीं, क्योंकि विपक्ष अपने अन्य प्रिय मुद्दों के साथ मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर पर चर्चा चाहता है। इसमें हर्ज नहीं, लेकिन इसकी अनदेखी न की जाए कि संसद के पिछले सत्र में भी विपक्ष ने इस विषय को खूब तूल दिया था, क्योंकि तब बिहार में एसआईआर की प्रक्रिया जारी थी। उस समय संसद के बाहर भी एसआईआर को वोट चोरी बताकर शोर मचाया गया और संसद के भीतर भी।

एसआईआर के विरोध में संसद के बाहर और भीतर हंगामा करने के बाद भी विपक्ष को कुछ हासिल नहीं हुआ था। चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने बिहार में एसआईआर की प्रक्रिया को सही माना, इसलिए विपक्ष को एक तरह से मुंह की खानी पड़ी। बिहार के चुनाव नतीजे भी यही बता रहे हैं कि जनता ने एसआईआर को लेकर उठाए गए संदेह भरे सवाल खारिज कर दिए।

विपक्ष एसआईआर को लेकर चाहे जो दावा करे, इसके कहीं कोई आसार नहीं कि सुप्रीम कोर्ट 12 राज्यों में जारी एसआईआर की प्रक्रिया पर रोक लगाने की जरूरत समझेगा। वैसे भी इन राज्यों में एसआईआर को लेकर जब तक सुनवाई पूरी होगी, तब तक उसकी प्रक्रिया पूरी हो चुकी होगी। इसमें संदेह है कि विपक्षी दल एसआईआर के विरोध में संसद में अकाट्य दलीलें देकर सरकार को घेरने में सक्षम हो जाएंगे, क्योंकि वे ऐसी कोई दलील सुप्रीम कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत कर पाने में नाकाम हैं।

समझना कठिन है कि विपक्षी दल यह क्यों चाहते हैं कि चुनाव आयोग एसआईआर संबंधी अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन न करे? क्या एसआईआर न करने से मतदाता सूचियों की विसंगतियां दूर हो जाएंगी? हालांकि संसद का आगामी सत्र अपेक्षाकृत छोटा है, पर उसमें कई महत्वपूर्ण विधेयक पेश किए जाने हैं। कायदे से उन पर सार्थक बहस होनी चाहिए, लेकिन आशंका यही है कि वे हंगामे के बीच बिना किसी बहस के पारित हो सकते हैं।