विचार: जाति से आगे निकलती राजनीति
राजनीति अंततः नेता एवं नेतृत्व केंद्रित होती है। नरेन्द्र मोदी एवं नीतीश कुमार पर विश्वास, अमित शाह की रणनीति और सांगठनिक दिशा दृष्टि, धर्मेंद्र प्रधान जैसे संगठकों का आधार तल पर किया गया कार्य, भाजपा-जदयू नेताओं के जनता से जुड़ाव ने राजग को विजय दिलाने में बड़ी भूमिका निभाई। यह भी याद रहे कि इतनी बड़ी विजय केवल जातीय समीकरणों से ही नहीं प्राप्त होती।
HighLights
राजग की जीत में सर्वसमाज की भागीदारी
अस्मिता की राजनीति का प्रभाव कम
विकास और जनकल्याण की नीतियों पर विश्वास
बद्री नारायण। बिहार विधानसभा चुनाव में राजग को अद्भुत विजय प्राप्त हुई। इसे अद्भुत इसलिए कह रहा हूं, क्योंकि इसमें सर्वसमाज की चुनावी भागीदारी मुखरता से अभिव्यक्त हुई। समाज के सभी हिस्सों-दलित, पिछड़ा, अगड़ा, महिला और युवाओं का सर्वाधिक मत एवं समर्थन राजग के घटक दलों को मिला। बिहार के 67 प्रतिशत ओबीसी में से अगड़े ओबीसी का 71 प्रतिशत तथा अति पिछड़े ओबीसी का 68 प्रतिशत मत राजग को मिला। महागठबंधन के सबसे बड़े घटक राजद के ठोस वोट बैंक माने जाने वाले यादव और मुस्लिमों के मतों का भी एक हिस्सा राजग को प्राप्त हुआ।
महागठबंधन के पक्ष में मुस्लिम-यादव गोलबंदी इस चुनाव में कुछ कमजोर पड़ी। करीब 60 प्रतिशत दलितों ने राजग को चुना। 48 प्रतिशत महिलाओं और 46 प्रतिशत पुरुषों ने भी राजग को वोट दिया। इसी के साथ युवाओं के एक बड़े प्रतिशत ने भी राजग की विजय में बड़ी भूमिका निभाई। आंकड़े बताते हैं कि बिहार में समाज के सभी आर्थिक वर्गों यथा उच्च वर्ग, मध्य वर्ग एवं निम्न आर्थिक वर्ग ने अपना सर्वाधिक समर्थन जदयू-भाजपा के गठबंधन को दिया।
बिहार का जनादेश भारतीय समाज एवं भारतीय जनतंत्र की मूल प्रवृत्ति में बड़े रूपांतरण का द्योतक है। इस रूपांतरण को चुनाव परिणाम के विश्लेषण से सहज ही समझा जा सकता है। चुनाव परिणाम ने दिखाया कि अस्मितापरक गोलबंदी की राजनीति अब धीरे-धीरे अपना प्रभाव खोती जा रही है। विशेष रूप से जातीय अस्मिताओं की राजनीति, जो जातियों के बीच जातिभाव का टकराव बढ़ाकर विकसित की जाती है। बिहार के चुनाव परिणाम बता रहे हैं कि जनता को अब उससे कुछ ज्यादा चाहिए। राजनीतिशास्त्री रजनी कोठारी ने एक बार कहा था कि राजनीति को जाति चाहिए और जाति को राजनीति। नए संदर्भ में अब यह कहना उचित होगा कि राजनीति जाति से आगे निकल रही है।
बिहार में तो ऐसा होता हुआ साफ दिखा। जातीय अस्मिता की राजनीति का जो राजनीतिक दर्शन जातियों के बीच अपने बनाम पराए की अवधारणा पर टिका है, उसमें संवाद एवं सहकार का भाव विकसित हुआ है। बिहार के चुनाव को अगर जाति के आप्टिक्स से देखें तो भी ज्यादातर जातियों ने आपसी समझ एवं समायोजन विकसित कर वोट दिया।
नतीजों का यह निहितार्थ भी है कि धीरे-धीरे भारत की चुनावी राजनीति दशकों पुराने एंटी इनकंबेंसी यानी सत्ता विरोधी रुझान की अवधारणा को खारिज करती जा रही है। मतदाताओं के मानस में एंटी इनकंबेंसी की जगह प्रो इनकंबेंसी की प्रवृत्ति बढ़ रही है।
ऐसा विशेष रूप से उन दलों और गठबंधनों के लिए हो रहा है, जिन्होंने विकास की राजनीति को जनकल्याण की नीतियों के साथ जोड़कर उन्हें अपने प्रशासन के माध्यम से जमीन पर सफलता एवं ईमानदारी से उतारा है। बिहार में महिला मतों की राजग के पक्ष में गोलबंदी इसी रसायन का परिणाम है। यह वह रसायन है, जिसे अपनी-अपनी राजनीति में पीएम नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा और नीतीश कुमार के नेतृत्व में जदयू ने विकसित किया है। इस राजनीतिक रसायन ने किसान, मजदूर, दलित, महिला और युवा सभी को प्रभावित किया।
बिहार के जनादेश ने यह भी साबित किया कि विकास की राजनीति एवं कल्याणपरक योजनाओं ने भारतीय समाज में ऐसी आकांक्षाएं जगाई हैं, जिसने जाति एवं पंथ की दीवारों एवं अस्मितापरक भावनाओं की परिधि को तोड़कर भाजपा एवं राजग के पक्ष में बड़ा समर्थन तैयार किया। बिहार के मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा केंद्र एवं राज्य सरकार द्वारा चलाई जा रही तमाम योजनाओं से बने लाभार्थी वर्ग का हिस्सा बन चुका है। स्वाभाविक है कि उनमें से अधिकांश ने विधानसभा चुनावों में राजग को वोट दिया।
लाभार्थी चेतना की एक प्रवृत्ति यह होती है कि उसे सतत रूप से अपनी जरूरतों के अनुसार राज्य सत्ता से नया समर्थन पाने की चाह होती है।
भाजपा एवं राजग ने लाभार्थी चेतना की इसी प्रवृत्ति को समझते हुए महिला रोजगार कार्यक्रम के तहत 10 हजार रुपये का वित्तीय समर्थन देना शुरू किया, जिसने महिला मतदाताओं को बड़ी संख्या में राजग के पक्ष में जोड़ा। इस प्रकार तमाम धारणाओं को ध्वस्त करते हुए गरीब सामाजिक समूहों में लाभार्थी अस्मिता विकसित होती जा रही है। भारतीय राज्य और समाज में आए इन नए परिवर्तनों ने हमें राजनीति को समझने के पुराने तौर-तरीकों को बदलने के लिए प्रेरित किया है। बिहार विधानसभा चुनाव ने भारतीय मतदाताओं के स्तर पर आकार ले रहे नए परिवर्तनों से भी हमारा साक्षात्कार कराया। इन चुनावों ने दर्शाया कि सामाजिक न्याय की राजनीति में बड़ा परिवर्तन हुआ है।
सामाजिक राजनीति का दावा करने वाले राजनीतिक दलों की इस बार दाल नहीं गली। बिहार के दलित और पिछड़े वर्ग ने सामाजिक न्याय की अपनी आकांक्षा के लिए राजग पर विश्वास दिखाया। यह इसलिए भी संभव हुआ, क्योंकि सामाजिक न्याय की अवधारणा अब व्यापक हुई है। वह अब क्षैतिज विस्तार ले रही है। इसमें न केवल आरक्षित वर्ग वरन हाशिए पर बसे समुदायों में सरकारी योजनाओं के प्रभाव में आगे बढ़ने की आकांक्षा भी शामिल हुई है। पीएम मोदी ने सामाजिक न्याय की नई अवधारणा, जिसे समग्र सामाजिक न्याय की अवधारणा कहा जा सकता है, विकसित की है। बिहार की जनता ने इसी संकल्पना पर मुहर लगाई।
राजनीति अंततः नेता एवं नेतृत्व केंद्रित होती है। नरेन्द्र मोदी एवं नीतीश कुमार पर विश्वास, अमित शाह की रणनीति और सांगठनिक दिशा दृष्टि, धर्मेंद्र प्रधान जैसे संगठकों का आधार तल पर किया गया कार्य, भाजपा-जदयू नेताओं के जनता से जुड़ाव ने राजग को विजय दिलाने में बड़ी भूमिका निभाई। यह भी याद रहे कि इतनी बड़ी विजय केवल जातीय समीकरणों से ही नहीं प्राप्त होती। इसके लिए कोई भावनात्मक आधार भी चाहिए। इस चुनाव का भावनात्मक आधार मोदी और नीतीश पर भरोसा और उनके प्रति सहानुभूति भाव, लोगों में बढ़ रही विकास की आकांक्षा रही। बिहार की अस्मिता को सम्मान दिलाने के भाव ने भी अपना असर दिखाया।
(लेखक टाटा इंस्टीट्यूट आफ सोशल साइंसेज, मुंबई के कुलपति हैं)












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