विचार: एसआईआर के खिलाफ खोखले मोर्चे, बगैर एसआइआर के मतदाता सूचियों की गड़बड़ी को सही कैसे किया जा सकता है?
निःसंदेह बीएलओ की समस्याओं का समाधान होना ही चाहिए और इसके लिए आवश्यक हो तो एसआइआर की समयसीमा और बढ़ाई जाए, लेकिन इसका कोई मतलब नहीं कि विपक्षी दल वोटर लिस्ट में गड़बड़ी की शिकायत भी करें और एसआइआर भी न होने दें। यदि विपक्ष यह समझता है कि एसआइआर मतदाता सूचियों की गड़बड़ियों को ठीक करने का उचित उपाय नहीं तो फिर उसे यह बताना चाहिए कि सही तरीका क्या है? मौजूदा विपक्ष की समस्या यह है कि वह सरकार के साथ संवैधानिक संस्थाओं की नीयत पर शक करने की आदत से ग्रस्त हो गया है और यह एक ऐसी बीमारी है, जिसका इलाज किसी के पास नहीं।
HighLights
एसआईआर के खिलाफ विपक्ष का संसद और सुप्रीम कोर्ट में मोर्चा
विपक्ष ने एसआईआर को 'वोट चोरी' बताया है
12 राज्यों में एसआईआर का विरोध जारी है
राजीव सचान। मतदाता सूचियों के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआइआर के खिलाफ एक मोर्चा संसद में खुला है तो दूसरा सुप्रीम कोर्ट में। ये दोनों मोर्चे तभी खुल गए थे, जब चुनाव आयोग ने बिहार में एसआइआर कराने का निर्णय लिया था। यह निर्णय सामने आते ही कुछ विपक्षी दलों ने इसे वोट चोरी की संज्ञा दे दी। उनकी और विशेष रूप से कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल की ओर से इस दलील की आड़ में दुष्प्रचार किया जाने लगा कि एसआइआर का उद्देश्य उनके समर्थकों के वोट काटना और इस तरह विधानसभा चुनावों में भाजपा की मदद करना है।
चूंकि एसआइआर को वोट चोरी बताया जाना ध्यानाकर्षण करने वाला जुमला था, इसलिए उसे जोर-शोर से तूल तो दिया जाने लगा, लेकिन यह स्पष्ट करने की जरूरत नहीं समझी गई कि क्या सारे बूथ लेवल आफिसर यानी बीएलओ सत्ताधारी दल के समर्थक हैं और क्या उन्हें यह पता चल जाता है कि कौन व्यक्ति किस दल को वोट देता है?
बिहार में एसआइआर के दौरान एक ओर जहां कांग्रेस और राजद नेता वोटर अधिकार यात्रा निकालते रहे, वहीं दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट में इस प्रक्रिया के खिलाफ सुनवाई भी होती रही। चुनाव आते-आते बिहार के लोगों के लिए एसआइआर कोई मुद्दा ही नहीं रहा, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने एसआइआर में कोई खोट नहीं पाया। इसके बाद भी मानसून सत्र के दौरान संसद वोट चोरी के शोर से गुंजायमान होती रही। बिहार में एसआइआर की प्रक्रिया के तहत जब 65 लाख वोटरों के नाम काटे गए तो फिर से वोट चोरी का शोर उठा, लेकिन मतदाता सूची का अंतिम मसौदा जारी होने के बाद 65 लोग भी ऐसी किसी शिकायत के साथ सामने नहीं आए कि वे बिहार के नागरिक हैं, उनके पास सारे वैध दस्तावेज हैं और फिर भी उनका नाम वोटर लिस्ट में नहीं है।
वोट चोरी का आरोप लगा रहे विपक्षी दल भी ऐसे किसी शख्स को सामने नहीं ला सके, जिसका नाम वोटर लिस्ट से गलत तरीके से हटाया गया हो। इसका नतीजा यह हुआ कि वोट चोरी मुद्दे की बची-खुची हवा भी निकल गई, लेकिन विपक्षी दल अब भी यह मानकर चल रहे हैं कि 12 राज्यों में एसआइआर की जो प्रक्रिया जारी है, उसका मकसद वोट चोरी करना यानी उनके समर्थकों के वोट काटना और आगामी विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत की राह आसान करना है।
जैसे बिहार में एसआइआर के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिकाओं का ढेर लग गया था, वैसे ही 12 राज्यों में जारी इस प्रक्रिया के खिलाफ न जाने कितनी याचिकाएं दायर की जा चुकी हैं। याचिकाएं दायर करने वालों में तमिलनाडु, बंगाल और केरल के राजनीतिक दलों के साथ कथित लोकतंत्र हितैषी लोग और संस्थाएं हैं। उनकी ओर से कपिल सिब्बल, अभिषेक मनु सिंघवी आदि मोर्चा संभाले हैं। 12 राज्यों में एसआइआर के खिलाफ दायर याचिकाओं का स्वर भी यही है कि यह एक गैर जरूरी प्रक्रिया है और चुनाव आयोग के पास इसे कराने का अधिकार नहीं।
इन याचिकाओं में भी यह प्रश्न अनुत्तरित है कि आखिर इस निष्कर्ष पर कैसे पहुंचा जा रहा है कि विपक्ष शासित राज्यों बंगाल, तमिलनाडु, केरल के बीएलओ भी एसआइआर के दौरान भाजपा विरोधी दलों के समर्थकों के वोट काटने का काम करेंगे? इस पर गौर करें कि कहीं से भी ऐसी कोई शिकायत नहीं सुनी गई कि बीएलओ लोगों से किसी बहाने यह भी पूछ रहे हैं कि पिछली बार उन्होंने किसे वोट दिया था या फिर आगे किसे वोट देने का इरादा रखते हैं?
चूंकि सरकार संसद में चुनाव सुधारों पर चर्चा कराने को तैयार हो गई है, इसलिए यह आशंका दूर हो गई कि एसआइआर पर संसद का यह सत्र भी पिछले सत्र की तरह हंगामे की भेंट चढ़ जाएगा। यह स्वाभाविक ही है कि चुनाव सुधारों पर बहस के दौरान एसआइआर पर भी चर्चा होगी, लेकिन फिलहाल इसके कोई आसार नहीं कि 12 राज्यों में जारी यह प्रक्रिया रुकने वाली है, क्योंकि एसआइआर कराना चुनाव आयोग का अधिकार है और इसी कारण उसकी प्रक्रिया बिहार में संपन्न हो सकी।
एसआइआर के विरोध का एक आधार यह है कि बीएलओ तनाव और दबाव में हैं और कुछ ने इसके चलते या तो नौकरी छोड़ दी या आत्महत्या कर ली। ऐसी खबरों को निराधार नहीं कहा जा सकता, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि एसआइआर कराया ही न जाए। बीएलओ की समस्याओं का कारण यह है कि उन्हें या तो सही तरह प्रशिक्षित नहीं किया गया या फिर उन्हें जिन समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है, उनके समाधान का प्रभावी तंत्र नहीं बनाया जा सका है। उनकी एक अड़चन एप का सही तरह न चलना है।
निःसंदेह बीएलओ की समस्याओं का समाधान होना ही चाहिए और इसके लिए आवश्यक हो तो एसआइआर की समयसीमा और बढ़ाई जाए, लेकिन इसका कोई मतलब नहीं कि विपक्षी दल वोटर लिस्ट में गड़बड़ी की शिकायत भी करें और एसआइआर भी न होने दें। यदि विपक्ष यह समझता है कि एसआइआर मतदाता सूचियों की गड़बड़ियों को ठीक करने का उचित उपाय नहीं तो फिर उसे यह बताना चाहिए कि सही तरीका क्या है? मौजूदा विपक्ष की समस्या यह है कि वह सरकार के साथ संवैधानिक संस्थाओं की नीयत पर शक करने की आदत से ग्रस्त हो गया है और यह एक ऐसी बीमारी है, जिसका इलाज किसी के पास नहीं।
(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)






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