विचार: एक नई विश्व व्यवस्था की दस्तक, ट्रंप के धौंस भरे रवैये ने रूस, चीन और भारत को एक-दूसरे के निकट ला दिया
रूस ने स्वतंत्र देशों की सार्वभौमिता और अखंडता के सिद्धांत को ताक पर रखकर यूक्रेन पर हमला किया है और चीन ताइवान पर हमले की ताक में है। चीन मुक्त व्यापार के नियमों का भी पालन नहीं करता, जिसकी वजह से भारत को भारी व्यापार घाटा हो रहा है। ऐसे में तीनों के बीच किसी नियमबद्ध वैश्विक व्यवस्था पर सहमति कैसे संभव होगी? हो भी गई तो अमेरिका और यूरोप को उसके पालन के लिए कैसे मनाया जा सकेगा? यह भी कि रूस से मिली हार और अमेरिका से मोहभंग के बाद अब यूरोप की भूमिका क्या रहेगी?
HighLights
पश्चिम का राजनीतिक वर्चस्व समाप्त हो रहा
ट्रंप के रवैये से रूस, चीन, भारत करीब
नई विश्व व्यवस्था की उभरती धुरी
शिवकांत शर्मा। ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने एक भाषण में कहा था कि पश्चिम का राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व समाप्त हो रहा है और विश्व की अगली व्यवस्था कम से कम दो ध्रुवीय या फिर बहुध्रुवीय होगी। यूरोपीय आयोग की अध्यक्ष उर्सुला वान डर लेन ने कहा कि इसमें कोई बुराई नहीं है, क्योंकि इससे पश्चिम और शेष विश्व के बीच सहयोग के नए आयाम खुल सकेंगे। गत सितंबर में तियानजिन के एससीओ शिखर सम्मेलन में भाग लेने गए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि एससीओ एक बहुपक्षीय और समावेशी विश्व व्यवस्था को आगे बढ़ाने में अग्रणी भूमिका निभा सकता है।
उसी सम्मेलन में चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने एक विश्व संचालन पहल का प्रस्ताव रखा था और अधिनायकवाद एवं धौंस की राजनीति के खिलाफ खड़े होकर सच्ची बहुपक्षीयता पर चलने का आह्वान किया था। डोनाल्ड ट्रंप ने इस पर तंज करते हुए इसे अमेरिका के खिलाफ साजिश कहा, पर दुनिया भर के राजनयिकों ने इसे एक नई उभरती विश्व व्यवस्था की दस्तक के रूप में देखा था।
राष्ट्रपति पुतिन की भारत यात्रा को उसी की एक और कड़ी के रूप में देखा जा रहा है। ट्रंप ने भारत के साथ 25 साल पुरानी दोस्ती को ताक पर रखते हुए रूस से तेल खरीदने के विरोध में टैरिफ बढ़ाकर दोगुना कर दिया जिनकी वजह से भारत का अरबों डालर का निर्यात प्रभावित हुआ है। बीते कुछ वर्षों में अमेरिका भारतीय वस्तुओं की सबसे बड़ी मंडी बनकर उभरा, जहां पिछले साल तक 87 अरब डालर का निर्यात होता था जो भारत के कुल निर्यात का करीब 20 प्रतिशत है। दूसरी तरफ रूस की दो बड़ी तेल कंपनियों रोसनेफ्ट और लुक आयल पर प्रतिबंध लगा दिया है जिससे रूस को अरबों डालर का नुकसान हो रहा है।
ट्रंप की शैली भी धौंस दिखाने की है। यही शिकायत चीन को भी है। इसलिए कहां तो वे सत्ता संभालते ही किसिंजर नीति पर चलते हुए रूस को चीनी प्रभाव से निकाल कर अपनी तरफ करने का दम भर रहे थे और कहां उनकी अप्रत्याशित नीतियों और धौंस ने रूस, चीन और भारत को एक-दूसरे के और निकट कर दिया। रूस, भारत और चीन की इस यूरेशियाई तिकड़ी या रिक को नई विश्व व्यवस्था की उभरती धुरी के रूप में देखा जा रहा है। दुनिया की 40 प्रतिशत जीडीपी और जनशक्ति, प्रबल सैन्य शक्ति और दक्षिणी देशों में प्रभाव और साख होने के कारण इन तीनों के बढ़ते प्रभाव की अवहेलना नहीं की जा सकेगी।
आधुनिक चीन का लक्ष्य अपने शताब्दी वर्ष 2049 तक विश्व में राजनीतिक और आर्थिक शक्ति की धुरी बनकर अपने सांस्कृतिक और ऐतिहासिक कद की बराबरी पर आना है। ट्रंप की मनमानी नीतियों ने उसका काम और आसान बना दिया है। रूस का लक्ष्य सोवियत संघ के विघटन से खोए वर्चस्व को बहाल करते हुए अपने आभा क्षेत्र का विस्तार करना है, जिसे वह नाटो का विस्तार रोककर और यूरेशिया में अपना प्रभाव फैलाकर हासिल करना चाहता है। उसने यूक्रेन युद्ध में अमेरिका और नाटो को चुनौती देकर अपनी सामरिक और आर्थिक धाक को काफी हद तक बहाल कर लिया है। करीब ढाई लाख सैनिकों और 1200 अरब डालर के नुकसान के बावजूद उसकी सेना आगे बढ़ रही है।
आर्थिकी ठप नहीं हुई है और पश्चिमी देश उसकी घेराबंदी में नाकाम रहे हैं। रूस और चीन दोनों अपनी रक्षा तकनीक और सैनिक साजोसामान के मामले में नाटो और अमेरिका की तरह आत्मनिर्भर हैं। चीनी सामरिक क्षमता की अभी तक रूस की तरह युद्ध के मैदान में परीक्षा नहीं हुई है, लेकिन उसने आर्थिक और तकनीकी शक्ति के मामले में ट्रंप को झुकने पर मजबूर करके अपनी शक्ति दिखा दी है।
जार्ज आरवेल के उपन्यास ‘1984’ की तरह अभी शक्ति की तीन धुरियां बनती दिख रही हैं। भारत को चौथी धुरी बनने के लिए सैन्य और आर्थिक मोर्चे पर बहुत कुछ करना है, परंतु उसकी जनशक्ति और आर्थिक एवं तकनीकी विकास की संभावनाएं उसे किसी भी नई विश्व व्यवस्था में अपरिहार्य बनाती हैं। इसी की ओर इशारा करते हुए राष्ट्रपति पुतिन ने भारत यात्रा से पहले दिए एक इंटरव्यू में जी-7 जैसे संगठनों की प्रासंगिकता पर सवाल उठाया था, जिनमें न भारत है और न रूस और चीन।
कोई भी नई व्यवस्था केवल पुरानी व्यवस्था के विरोध की नींव पर खड़ी नहीं हो सकती। यह सही है कि ट्रंप ने पहले से ही अमेरिका और नाटो की दोहरी नीतियों की वजह से कमजोर और अप्रासंगिक होती आ रही विश्व व्यवस्था को अपनी मनमानी और अस्थिर नीतियों से और छिन्न-भिन्न कर दिया है। पहले संयुक्त राष्ट्र की किसी भी संस्था में दिखावे के लिए भी कोई प्रस्ताव रखे बिना ईरान पर हमला किया और अब वेनेजुएला की नौकाओं पर हमले कर रहे हैं। यूक्रेन की मर्जी के बिना उसकी जमीन रूस को सौंपकर शांति समझौता लादना चाहते हैं। मनमाने टैरिफ थोपकर विश्व व्यापार संगठन को अप्रासंगिक बना दिया है।
जलवायु संधि, विश्व स्वास्थ्य संगठन और यूनेस्को सदस्यता छोड़ दी, जिसकी वजह से जलवायु परिवर्तन और महामारियों का सामना कर पाने और विश्व धरोहरों की रक्षा कठिन हो गई। अमेरिका ने अपने नेतृत्व में जो नियमबद्ध विश्व व्यवस्था शुरू की थी, उसे ट्रंप ‘जिसकी लाठी-उसकी भैंस’ वाली व्यवस्था में बदलते जा रहे हैं। इससे चिंतित होकर चीन, रूस और भारत निकट जरूर आए हैं, पर विश्व व्यवस्था को लेकर तीनों के बीच गहरे विरोधाभास रहे हैं। चीन जिहादी आतंकवाद, परमाणु निरस्त्रीकरण और सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता को लेकर टांग अड़ाता रहा है।
रूस ने स्वतंत्र देशों की सार्वभौमिता और अखंडता के सिद्धांत को ताक पर रखकर यूक्रेन पर हमला किया है और चीन ताइवान पर हमले की ताक में है। चीन मुक्त व्यापार के नियमों का भी पालन नहीं करता, जिसकी वजह से भारत को भारी व्यापार घाटा हो रहा है। ऐसे में तीनों के बीच किसी नियमबद्ध वैश्विक व्यवस्था पर सहमति कैसे संभव होगी? हो भी गई तो अमेरिका और यूरोप को उसके पालन के लिए कैसे मनाया जा सकेगा? यह भी कि रूस से मिली हार और अमेरिका से मोहभंग के बाद अब यूरोप की भूमिका क्या रहेगी?
(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)













कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।