संपादकीय: समय पर न्याय मिलने की कोई गारंटी नहीं, लंबित मामलों की बढ़ रही संख्या
सुप्रीम कोर्ट आम आदमी के लिए है, यह कहना स्वागतयोग्य है, पर न्याय मिलने में देरी एक बड़ी समस्या है। महंगे वकील और लंबी तारीखों के कारण आम आदमी सुप्रीम कोर्ट जाने से डरता है। लंबित मामलों की संख्या बढ़ रही है और लोगों में निराशा घर कर रही है। न्यायपालिका में सुधार के लिए सरकार और सुप्रीम कोर्ट को मिलकर ठोस कदम उठाने होंगे, ताकि लोगों का विश्वास बना रहे।
HighLights
सुप्रीम कोर्ट आम आदमी से दूर होता जा रहा
लंबित मामलों की संख्या में लगातार वृद्धि
न्यायपालिका में सुधार की तत्काल आवश्यकता
यह स्वागतयोग्य तो है कि उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सूर्यकांत ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट आम आदमी के लिए है और उनकी पहली प्राथमिकता लंबित मामलों को निपटाने तथा मुकदमेबाजी की लागत को कम करने की है, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि एक लंबे समय से एक के बाद एक न्यायाधीशों की ओर से ऐसा ही कुछ कहा जा रहा है और फिर भी नतीजा ढाक के तीन पात वाला है।
आज की कटु सच्चाई यह है कि सुप्रीम कोर्ट आम आदमी की पहुंच से दूर होता जा रहा है। वकीलों की महंगी फीस और तारीख पर तारीख के सिलसिले को देखते हुए आम आदमी के लिए यह संभव नहीं कि वह अपने मामले की सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने का साहस जुटा सके। यदि वह किसी तरह ऐसा कर भी ले तो समय पर न्याय मिलने की कोई गारंटी नहीं।
यह एक तथ्य है कि निचली अदालतों और उच्च न्यायालयों की तरह सुप्रीम कोर्ट में भी लंबित मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है। देश की जनता यह भी अच्छे से देख रही है कि किस तरह कुछ बड़े वकीलों के लिए सब कुछ सुगम होता है। कोई नहीं जानता कि उनके मामलों की सुनवाई प्राथमिकता के आधार पर कैसे होने लगती है?
यह पहली बार नहीं जब सुप्रीम कोर्ट के किसी मुख्य न्यायाधीश ने समय पर न्याय देने, लंबित मामलों का बोझ कम करने और मुकदमेबाजी की लागत कम करने की दिशा में कदम उठाने का भरोसा दिलाया हो। यह सिलसिला दशकों से कायम है। हर नया मुख्य न्यायाधीश न्यायिक तंत्र में आमूल-चूल सुधार का वादा करता है, लेकिन अभी तक का अनुभव यही कहता है कि स्थितियों में कोई बुनियादी बदलाव नहीं हुआ है। इसका परिणाम यह है कि अब लोगों में निराशा घर करने लगी है।
वे मुश्किल से ही अदालतों का दरवाजा खटखटाते हैं। यह समझा जाना चाहिए कि न्यायिक तंत्र में सुधार की बातें करने मात्र से ऐसा होने वाला नहीं है। न्यायपालिका के प्रति लोगों की आस्था डिगे, इसके पहले न्यायिक तंत्र में सुधार के ठोस कदम उठाने होंगे। ऐसा इसलिए भी करना होगा, क्योंकि किसी देश का विकास बहुत कुछ उसकी सुगम न्यायप्रणाली पर निर्भर करता है। जिस देश में समय पर न्याय नहीं मिलता, वहां केवल विवाद ही नहीं बढ़ते, बल्कि विकास के काम भी बाधित होते हैं और व्यवस्था के प्रति असंतोष उपजता है।
इसके चलते नियम-कानूनों की अवहेलना करने की प्रवृत्ति बढ़ती है। समस्या केवल न्यायपालिका के स्तर पर ही नहीं, कार्यपालिका के स्तर पर भी है। आखिर यह एक तथ्य है कि सरकारें अपने ही लोगों से मुकदमेबाजी में उलझी हुई हैं। अच्छा हो कि सरकार और सुप्रीम कोर्ट मिलकर समस्या का समाधान करने के लिए आगे आएं। इसमें देरी स्वीकार्य नहीं, क्योंकि पहले ही बहुत देर हो चुकी है।













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