अजय सहाय। भारत आज अपने निर्यात पारिस्थितिकी तंत्र के एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। देश के छह करोड़ से अधिक सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) विश्व के सबसे बड़े कारीगर, शिल्पकार और छोटे उद्यमी समुदाय की आधारशिला हैं। इन छोटे उद्यमियों, हथकरघा बुनकरों और हस्तशिल्प कलाकारों को ई-कामर्स निर्यात के माध्यम से वैश्विक बाजारों तक पहुंचने का एक नया और प्रभावी मार्ग मिला है।

अंतरराष्ट्रीय आनलाइन प्लेटफार्मों ने भारत के छोटे विक्रेताओं को बिना किसी विदेशी कार्यालय के दुनिया के 200 से अधिक देशों में उपभोक्ताओं तक पहुंचने में सक्षम बनाया है। डिजिटल बाजार और भारत की रचनात्मक, किफायती उत्पादन प्रणाली ने वैश्विक व्यापार में छोटे भारतीय विक्रेताओं के लिए अवसरों का विस्तार किया है। पिछले एक दशक में ई-कामर्स आधारित डायरेक्ट-टू-कंज्यूमर माडल ने भारत के छोटे उत्पादकों को उल्लेखनीय सशक्तीकरण दिया है।

इस माडल में उत्पाद विदेशी ग्राहकों द्वारा आर्डर मिलते ही सीधे भारत से भेजे जाते हैं, जिससे प्रवेश लागत कम होती है और घर-आधारित उद्यमी भी अंतरराष्ट्रीय व्यापार शुरू कर पाते हैं। भारत के हस्तशिल्प, वस्त्र, आभूषण, प्राकृतिक और पारंपरिक उत्पादों की वैश्विक मांग बढ़ रही है। यह माडल विशेषकर छोटे उद्यमों के लिए आय और पहचान का स्रोत बना है, भले ही उन्हें कस्टम्स, भुगतान निपटान और कर संबंधी चुनौतियों का सामना करना पड़ा हो।

अब एक नया परिवर्तन इस पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करने वाला है। बड़े वैश्विक ई-कामर्स भारत से वेयरहाउस आधारित निर्यात माडल की अनुमति चाहते हैं, जिसमें भारतीय विक्रेता माल को मार्केट प्लेस के घरेलू वेयरहाउस में जमा करेंगे और उसके बाद मार्केट प्लेस स्वयं इन उत्पादों का निर्यात कर उन्हें विदेश में बेचेगा।

उक्त परिवर्तन भारतीय विक्रेताओं की भूमिका को बदल देगा। वे अब निर्यातक नहीं रहेंगे, बल्कि केवल घरेलू आपूर्तिकर्ता बनकर रह जाएंगे। निर्यातक के रूप में मार्केट प्लेस मूल्य निर्धारण, इन्वेंटरी, विदेशी वितरण और फारेक्स प्राप्ति पर पूरा नियंत्रण रखेगा। हालांकि चीन, वियतनाम और मलेशिया सरीखे देशों में यह माडल पहले से अपनाया जा रहा है, लेकिन भारतीय संदर्भ में इनके गहरे और दीर्घकालिक प्रभाव चिंताजनक हैं।

वेयरहाउस माडल से छोटे विक्रेताओं का मूल्य निर्धारण पर नियंत्रण समाप्त हो सकता है, क्योंकि मार्केट प्लेस सभी आपूर्तिकर्ताओं की लागत संरचना जानकर कीमतों पर दबाव डाल सकता है। इससे छोटे विक्रेता “प्राइस-टेकर” बन जाएंगे और उनके लाभांश में भारी कमी हो सकती है। विदेशी बाजार में मिलने वाला पूरा रिटेल मार्जिन मार्केट प्लेस अपने पास रख सकता है, जबकि भारतीय विक्रेता को केवल थोक दर प्राप्त होगी, जो अंतिम बिक्री मूल्य का एक छोटा हिस्सा होती है।

इस माडल का प्रभाव यह भी है कि भारत के निर्यात मूल्य में वास्तविक कमी आ सकती है। आज जब एक भारतीय विक्रेता सीधे 2,000 रुपये की कालीन विदेश में बेचता है, तो पूरे 2,000 रुपये भारत के फारेक्स में दर्ज होते हैं, परंतु वेयरहाउस माडल में वही कालीन 1,100–1,200 रुपये में मार्केट प्लेस द्वारा खरीदी जाएगी और इसी राशि को भारत के निर्यात मूल्य के रूप में दर्ज किया जाएगा।

इससे न केवल भारत के आधिकारिक निर्यात मूल्य घटेंगे, बल्कि कई मामलों में मार्केट प्लेस अपने विदेश स्थित सहायक कंपनियों के माध्यम से मुनाफा भी विदेश में दर्ज कर सकते हैं, जिससे भारत का कर आधार भी कम होगा। जैसे-जैसे मार्केट प्लेस कम दरों पर बड़े पैमाने पर खरीद करेगा, लाखों कारीगरों का लाभ कम हो सकता है। लाभ में कमी आने पर कई उद्यमी गुणवत्ता से समझौता कर सकते हैं, जिससे भारत की वैश्विक ब्रांड प्रतिष्ठा को नुकसान होगा। जब निर्यात मार्केट प्लेस के नाम पर होगा तो भारतीय उत्पादों की पहचान एवं विशिष्टता खो सकती है।

भारत की व्यापार और एमएसएमई नीति लंबे समय से आत्मनिर्भरता, मूल्य संवर्धन और डिजिटल सशक्तीकरण पर आधारित रही है। वन डिस्ट्रिक्ट वन प्रोडक्ट, मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया और विदेशी व्यापार नीति जैसी पहलें छोटे उद्यमियों को वैश्विक बाजार से सीधे जोड़ने की दिशा में काम कर रही हैं।

ऐसे में वेयरहाउस माडल उस उद्देश्य से भी उलट है, जिसका लक्ष्य डिजिटल बाजारों का लोकतंत्रीकरण है। भारत के लिए नीति-निर्माण में संतुलन बनाना आवश्यक है, लेकिन छोटे निर्यातकों की स्वायत्तता और पहचान खोकर नहीं। भारत चाहे तो पीपीपी माडल के तहत तटस्थ ई-कामर्स एक्सपोर्ट हब विकसित कर सकता है, जो एमएसएमई के उत्पादों को एकत्र कर निर्यात में मदद करें, पर निर्यातक वही रहें।

वेयरहाउस माडल सतही रूप से सुविधाजनक दिखाई देता है, लेकिन यह भारत के जमीनी निर्यात ढांचे को कमजोर कर सकता है और लाखों उद्यमियों को साधारण आपूर्तिकर्ता में बदल सकता है। भारत की ई-कामर्स निर्यात यात्रा अब तक डिजिटल समावेशन, महिला सशक्तीकरण और रचनात्मक उद्यमिता की कहानी रही है। यह सुनिश्चित करना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए कि यह आगे चलकर डिजिटल निर्भरता की कहानी न बन जाए।

भारत को विदेशी प्लेटफार्म-प्रधान वेयरहाउस माडल नहीं, एक सशक्त और मूल्य-साझा करने वाला डिजिटल निर्यात पारिस्थितिकी तंत्र चाहिए। छोटे निर्यातकों की रक्षा करना किसी संरक्षणवाद का संकेत नहीं है, बल्कि एक आत्मनिर्भर, समावेशी और मूल्य केंद्रित निर्यात भविष्य के लिए आवश्यक आर्थिक दूरदर्शिता है।

डिजिटल युग में डाटा, प्लेटफार्म-नियंत्रण के साथ भौतिक व्यापार अवसंरचना भी महत्वपूर्ण है। भारत को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि छोटे उत्पादकों की स्वायत्तता सुरक्षित रहे, मूल्य पारदर्शिता बनी रहे, निर्यात से प्राप्त लाभ भारत में ही दर्ज हों।

(लेखक फियो के महानिदेशक एवं मुख्य कार्यकारी अधिकारी हैं)