संपादकीय: उच्च शिक्षा में सुधार की योजना, अमल की धीमी रफ्तार बनेगी चुनौती
शिक्षा मंत्रालय उच्च शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए प्रयासरत है, लेकिन अमल की धीमी गति एक चुनौती है। शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने और उद्योग की जरूरतों को पूरा करने पर ध्यान देना होगा। पाठ्यक्रमों को वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार बनाना चाहिए ताकि छात्र विदेश जाने के बजाय देश में ही गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त कर सकें। योग्य शिक्षकों की कमी को दूर करना और प्रतिष्ठित संस्थानों को दूसरों की मदद करनी चाहिए।
HighLights
उच्च शिक्षा में गुणवत्ता सुधार की धीमी गति
उद्योग की जरूरतों के अनुसार पाठ्यक्रम का विकास
शिक्षण संस्थानों में योग्य शिक्षकों की कमी
शिक्षा मंत्रालय उच्च शिक्षा को बेहतर बनाने के लिए उच्च शिक्षण संस्थानों को प्रतिस्पर्धी बनाने की योजना पर जो काम कर रहा है, वह सही तो है, लेकिन केवल इतने भर से बात बनने वाली नहीं है। उनमें प्रतिस्पर्धा बढ़ने के साथ ही उनकी शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर भी बढ़ना चाहिए। यह ठीक है कि नई शिक्षा नीति के तहत इस दिशा में कई प्रयत्न किए जा रहे हैं, लेकिन एक तो उन पर अमल की गति बहुत धीमी है और दूसरे चुनिंदा शिक्षा संस्थानों में ही सुधार हो पा रहा है।
उच्च शिक्षा के समक्ष जैसी चुनौतियां हैं और विशेष रूप से देश को जैसे सक्षम युवाओं की आवश्यकता है, उसे देखते हुए कुछ नए और ठोस उपायों पर शीघ्रता से काम किया जाना चाहिए। उच्च शिक्षा संस्थानों से ऐसे युवा निकलने चाहिए, जो उद्योग-व्यापार जगत की आवश्यकता पूरी करने में सक्षम हों। यह ठीक नहीं कि उच्च शिक्षा संस्थानों से निकले तमाम छात्र केवल शिक्षित बेरोजगारों की भीड़ बढ़ाएं।
इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि देश में सरकारी के साथ निजी स्तर पर भी उच्च शिक्षा के तमाम संस्थान खुलते चले जा रहे हैं, क्योंकि यह देखने में आ रहा है कि छात्रों को आज की आवश्यकता के अनुरूप पाठ्यक्रम नहीं उपलब्ध कराया जा पा रहा है। निःसंदेह इसके चलते भी बड़ी संख्या में हमारे छात्र विदेश पढ़ने चले जाते हैं। उनमें से कम ही देश लौटते हैं।
एक समस्या यह भी देखने को मिल रही है कि शिक्षा संस्थानों में योग्य शिक्षकों का अभाव व्याप्त हो रहा है। उच्च शिक्षा के कई शिक्षण संस्थान ऐसे भी हैं, जिनमें पर्याप्त संख्या में शिक्षक ही नहीं हैं। दुर्भाग्य से सरकारी शिक्षण संस्थानों में भी यह स्थिति देखने को मिल रही है। यह सामान्य बात नहीं कि केंद्रीय विश्वविद्यालयों तक में शिक्षकों के पद खाली हैं।
राज्य स्तर के विश्वविद्यालयों की स्थिति भी अच्छी नहीं। इसी तरह व्यावसायिक शिक्षा के संस्थानों में भी शिक्षकों के पद खाली पड़े हुए हैं। आखिर ऐसे कैसे काम चलेगा? पिछले कुछ समय से विदेशी विश्वविद्यालय भारत में अपने केंद्र खोल रहे हैं। हो सकता है कि इसके चलते भारत के छात्रों के विदेश पढ़ने जाने का सिलसिला कुछ थमे, लेकिन आखिर हमारे अपने शिक्षा संस्थान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा क्यों नहीं दे पा रहे हैं?
एक प्रश्न यह भी है कि जो प्रतिष्ठित और बड़े शिक्षण संस्थान हैं, वे अन्य शिक्षण संस्थाओं में पठन-पाठन की गुणवत्ता सुधारने में कोई सहयोग क्यों नहीं दे सकते? यदि देश भर के छात्र दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ना पसंद करते हैं तो इसका मतलब है कि सभी राज्यों में उच्च शिक्षा के अच्छे संस्थान नहीं हैं।













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