डॉ. रमेश चंद्र गौड़। वर्ष 1835 में जब थामस बैबिंगटन मैकाले ने अपना प्रसिद्ध ‘मिनट आन एजुकेशन’ लिखा, तब शायद उसे भी अनुमान नहीं था कि इसकी कुछ पंक्तियां सदियों तक भारत की शिक्षा-संरचना, भाषा-विचार और मानसिकता को इस गहराई तक प्रभावित करेंगी, लेकिन हुआ यही। एक छोटे से नोट ने भारत की विशाल और बहुभाषी शिक्षा परंपरा को झकझोर कर रख दिया। ब्रिटिश शासन से पहले भारत में शिक्षा स्वाभाविक, स्थानीय और सांस्कृतिक रूप से जुड़ी हुई थी। गुरुकुल, पाठशालाएं, गुरु-शिष्य परंपरा, वैदिक-गणित, खगोलशास्त्र, चिकित्सा, तर्क-शास्त्र-सब भारतीय भाषाओं में पनपे।

बच्चा अपनी भाषा में सोचता था, सीखता था और जीवन-ज्ञान अर्जित करता था। ज्ञान केवल पुस्तकों एवं पांडुलिपियों तक सीमित नहीं था, यह जीवन और संस्कृति का हिस्सा था। ईस्ट इंडिया कंपनी शुरू में शिक्षा में रुचि नहीं रखती थी, परंतु धीरे-धीरे अंग्रेजों को यह समझ आया कि भारत जैसा विशाल देश केवल ताकत से नहीं, बल्कि शिक्षा एवं संस्कृति को बदलकर ही चलाया जा सकता है। यहीं से शुरू हुई भारतीय समाज को अंग्रेजी भाषा और पश्चिमी सोच के दायरे में ढालने की नीति। मैकाले ने साफ लिखा कि पश्चिमी साहित्य और विज्ञान सर्वोच्च हैं और भारतीय ग्रंथ-परंपराएं ‘कमतर’।

इसमें कहा गया कि सरकार का लक्ष्य ऐसा वर्ग तैयार करना होना चाहिए ‘जो रक्त और रंग से भारतीय हो, किंतु विचारों और रुचियों से अंग्रेज।’ अंग्रेज जानते थे कि स्थानीय भाषाओं में दी गई शिक्षा भारतीय समाज को एकजुट रखती है। इसलिए अंग्रेजी को आधुनिक और श्रेष्ठ घोषित किया गया तथा भारतीय भाषाओं को धीरे-धीरे प्रशासन, न्यायपालिका और उच्च शिक्षा से दूर किया गया। अंग्रेजी उच्च शिक्षा की एकमात्र सीढ़ी बन गई और भारतीय भाषाएं केवल ‘घर-परिवार की भाषा’ कहकर पीछे धकेल दी गईं।

स्वतंत्रता के बाद भी जारी रहा प्रभाव

देश स्वतंत्र हुआ पर जिस शिक्षा व्यवस्था को हमने विरासत में पाया, वह पूरी तरह ब्रिटिश माडल पर आधारित थी। नीति-निर्माता स्वयं उसी औपनिवेशिक ढांचे में पढ़कर आए थे। कई लोग इंग्लैंड, यूरोप या भारत के अंग्रेजी माडल वाले विश्वविद्यालयों के उत्पाद थे। इस कारण, स्वतंत्रता के बाद शिक्षा सुधार की दिशा तो बदली, पर संरचना और विचार वही रहे। यह प्रभाव इतना गहरा था कि आज भी कई परिवार अंग्रेजी माध्यम को ‘बेहतर जीवन’ का प्रतीक मानते हैं। स्वतंत्रता के बाद बड़े आयोग बने-पर दृष्टिकोण यूरोपीय माडल का ही रहा।

यह सिलसिला 1948 की राधाकृष्णन समिति, 1964-66 के कोठारी आयोग, 1968 और 1986 की राष्ट्रीय शिक्षा नीतियां और 2005 में राष्ट्रीय ज्ञान आयोग तक चलता रहा। इन सबके द्वारा शिक्षा में कुछ सुधार तो किया गया, पर ढांचा वही रहा- परीक्षा-केंद्रित, अंग्रेजी-प्रधान और पश्चिमी अकादमिक संरचना की नकल करने वाली शिक्षा। स्वतंत्रता के बाद स्थापित कई विश्वविद्यालय, जिनमें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसी संस्थाएं भी शामिल हैं, ने ब्रिटिश और यूरोपीय विश्वविद्यालय माडल से आकार पाए।

कुछ भारतीय भाषाएं यहां भी ‘अध्ययन का विषय’ तो बन सकीं, पर ‘ज्ञान की भाषा’ नहीं। अंग्रेजी आधारित शिक्षा के कारण भारतीय भाषाएं, विशेषतः संस्कृत, हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं, धीरे-धीरे उच्च शिक्षा में निम्नतम स्तर पर चलती चली गईं। 1991 के बाद शिक्षा में निजी क्षेत्र के प्रवेश ने अंग्रेजी शिक्षा को और तेजी से बढ़ावा दिया। निजी स्कूलों में अंग्रेजी माध्यम को प्रतिष्ठा का प्रतीक बनाया गया। सरकारी स्कूल भारतीय भाषाओं तक सीमित हो गए। यह वही मानसिकता है जिसकी जड़ें मैकाले की नीति में थीं।

बदलाव की पहली बयार

नई शिक्षा नीति 2020 पहली नीति है जिसने कहा कि भारतीय भाषाएं शिक्षा की मूल भाषा हों, मातृभाषा में शिक्षा को बढ़ावा मिले, भारत का ज्ञान-दर्शन, कला, गणित, साहित्य मुख्य धारा में आए, शिक्षा कौशल और समझ पर आधारित हो, न कि रटने पर। इसमें सामने आया 5+3+3+4 का नया ढांचा, जो भारतीय बचपन, सीखने की प्रकृति और भाषा-मनोविज्ञान से मेल खाता है।

उच्च शिक्षा में बहुविषयक विश्वविद्यालयों का विचार गुरुकुल और तक्षशिला की परंपरा जैसा है। भारतीय शिक्षा अपनी जड़ों की ओर लौट रही है और भारतीय मन औपनिवेशिक छाया से बाहर आने की तैयारी कर रहा है। यह राष्ट्रीय पुनर्जागरण का संकेत है- जहां शिक्षा भारतीय होगी, भाषा भारतीय होगी और भविष्य भारतीय ज्ञान की रोशनी में लिखा जाएगा।

समग्र विकास का ढांचा

5+3+3+4 ढांचा पारंपरिक 10+2 प्रणाली को बदलकर स्कूली शिक्षा को चार चरणों में बांटता है: 5 साल का फाउंडेशन स्टेज (3 साल प्री-स्कूल + कक्षा 1-2), 3 साल का प्रारंभिक स्टेज (कक्षा 3-5), 3 साल का मध्य स्टेज (कक्षा 6-8) और 4 साल का माध्यमिक स्टेज (कक्षा 9-12)
लक्ष्य बच्चों के संज्ञानात्मक विकास पर ध्यान केंद्रित करते हुए समग्र और व्यावहारिक शिक्षा देना है, जिसमें तीन साल की उम्र से ही संरचित शिक्षा शुरू होती है।

(लेखक इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र में प्रोफेसर एवं कलानिधि विभाग के प्रमुख हैं)