विचार: इतिहासबोध की दिशा में सार्थक पहल
एनसीईआरटी का संशोधन वैचारिक अन्याय का उत्तर है। यह इतिहास को न कटुता से लिखता है, न प्रतिशोध की भावना से। यह केवल यह कहता है कि इतिहास को जैसा था, वैसा स्वीकार किया जाए। बिना सत्य के न तो आत्मविश्वास संभव है, न सामाजिक समरसता। इतिहास का उद्देश्य समाज को बांटना नहीं, बल्कि उसे उसकी वास्तविक यात्रा से परिचित कराना है।
HighLights
एनसीईआरटी संशोधन: वैचारिक अन्याय का एक महत्वपूर्ण उत्तर
इतिहास को कटुता और प्रतिशोध से मुक्त करना आवश्यक
सत्य के बिना आत्मविश्वास और सामाजिक समरसता असंभव
प्रणय कुमार। एनसीईआरटी द्वारा कक्षा सात की सामाजिक अध्ययन की नई पुस्तक ‘एक्सप्लोरिंग सोसाइटीज: इंडिया एंड बियांड-पार्ट 2’ में किया गया संशोधन केवल पाठ्यक्रम परिवर्तन नहीं है। यह उस वैचारिक जड़ता को तोड़ने की कोशिश है, जिसने दशकों तक भारतीय इतिहास को आधा-अधूरा, चयनात्मक और भ्रमित रूप में विद्यार्थियों के सामने रखा। यह पहल इतिहासबोध की पुनर्स्थापना की दिशा में एक साहसिक और आवश्यक कदम है। स्वतंत्रता के बाद भारतीय इतिहास-लेखन पर एक खास वैचारिक प्रभुत्व हावी रहा।
इसके अंतर्गत मध्यकालीन भारत के आक्रमणों को या तो संक्षेप में प्रस्तुत किया गया या उन्हें केवल साम्राज्य-विस्तार और आर्थिक लूट के सीमित दायरे में देखा गया। मंदिर-विध्वंस, धार्मिक उत्पीड़न, गैर-मुसलमानों के व्यापक नरसंहार, दास-व्यापार और ज्ञान-केंद्रों के सुनियोजित विनाश जैसे तथ्य या तो दबा दिए गए या ‘सुल्तानों-राजाओं के युद्ध’ बताकर खारिज कर दिए गए। इससे भी आगे बढ़कर इन आक्रमणों के पीछे सक्रिय उस वैचारिक मानसिकता पर लगभग मौन साध लिया गया, जो ‘कुफ्र-काफिर’ की अवधारणा में विश्वास करती है। नतीजा यह हुआ कि इतिहास का एक निर्णायक और पीड़ादायक पक्ष पीढ़ियों तक छात्रों की समझ से बाहर ही रहा।
एनसीईआरटी की नई पुस्तक इतिहास को किसी वैचारिक सुविधा के अनुसार नहीं, बल्कि प्रमाणिक स्रोतों और ठोस ऐतिहासिक संदर्भों के आधार पर प्रस्तुत करती है। सच को सच कहना सांप्रदायिकता नहीं, बल्कि बौद्धिक ईमानदारी का परिचायक है। इस पुस्तक की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि यह भारतीय इतिहास को दिल्ली और उत्तर भारत-केंद्रित दृष्टिकोण की सीमाओं से मुक्त करती है। इसमें काकतीय, चालुक्य, पल्लव, होयसल, पूर्वी गंग, ब्रह्मपाल जैसे वंशों के साथ-साथ भंजा, गुहिल, कलचुरी, मैत्रक, मौखरी, शिलाहार, सोमवंशी, तोमर और चैहमान (चौहान) जैसे अनेक राजवंशों के योगदान को भी समुचित स्थान दिया गया है। इस पुस्तक में मंदिर स्थापत्य को केवल पूजा-स्थल या धार्मिक प्रतीक भर मानकर नहीं देखा गया है, बल्कि उसे मध्यकालीन भारतीय समाज की शिक्षा, कला, विज्ञान और सामुदायिक जीवन के जीवंत केंद्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
बेलूर–हलेबिडु के होयसल मंदिरों की अद्वितीय सूक्ष्म नक्काशी हो या फिर एलोरा का कैलाशनाथ मंदिर, ये सभी उस तकनीकी दक्षता, स्थापत्य-ज्ञान और सौंदर्य-बोध के ठोस प्रमाण हैं, जिस पर भारत की सभ्यता सदियों तक खड़ी रही। यह प्रस्तुति उस लंबे समय से प्रचारित मिथक को स्वतः ध्वस्त करती है कि मध्यकालीन भारत बौद्धिक, वैज्ञानिक या रचनात्मक रूप से किसी प्रकार पिछड़ा हुआ था। पुस्तक में सम्मिलित ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ और ‘इंडिया, ए होम टू मेनी’ जैसे अध्याय भारत के उस सभ्यतागत आत्मा को सामने लाते हैं, जिसकी जड़ें सहिष्णुता, सह-अस्तित्व और सम्मान में रची-बसी हैं। यहूदी और पारसी समुदायों को न केवल शरण देना, बल्कि उन्हें सम्मान, सुरक्षा और सामाजिक स्वीकार्यता प्रदान करना भारतीय समाज की ऐतिहासिक परंपरा रही है।
नई पुस्तक में जोड़ा गया ‘इंडिया एंड हर नेबर्स’ अध्याय में पाकिस्तान के संदर्भ में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि उसका निर्माण धार्मिक आधार पर हुआ और विभाजन ने चुनौतियां कम नहीं कीं, अपितु भारतीय मानस को गहरे घाव दिए। यह प्रस्तुति उस वैचारिक भ्रम को तोड़ती है, जिसके अनुसार भारत-पाक विभाजन एक राजनीतिक दुर्घटना मात्र थी। पड़ोसी देशों के साथ भारत के संबंधों को साझा सभ्यतागत विरासत के संदर्भ में समझाने का प्रयास छात्रों को व्यापक दृष्टि प्रदान करता है।
वामपंथी खेमा सर्वाधिक असहज उन अध्यायों को लेकर है, जिनमें महमूद गजनवी, मोहम्मद गोरी और बख्तियार खिलजी के आक्रमणों का विस्तृत वर्णन किया गया है।
कारण स्पष्ट है, क्योंकि पहली बार विद्यालयी पाठ्यक्रम में इन आक्रमणों को उनकी वास्तविक वैचारिक पृष्ठभूमि के साथ प्रस्तुत किया गया है। गजनवी के 17 आक्रमण-सोमनाथ मंदिर का विध्वंस, मथुरा और कन्नौज के देवालयों का नाश, बड़े पैमाने पर नरसंहार और स्त्री-बच्चों को दास बनाकर गजनी ले जाना, ये सब अब ‘कथा’ नहीं, बल्कि ऐतिहासिक तथ्य के रूप में सामने हैं। अल-उत्बी, अल-बिरूनी, फिरदौसी जैसे समकालीन फारसी स्रोत स्वयं स्वीकार करते हैं कि गजनवी अपने अभियानों को ‘काफिरों के विरुद्ध जिहाद’ मानता था।
इसी क्रम में मुहम्मद बिन कासिम द्वारा सिंध पर किया गया आक्रमण हो, बख्तियार खिलजी द्वारा नालंदा और विक्रमशिला का विध्वंस हो या तैमूर द्वारा 1398 में दिल्ली में किया गया भीषण नरसंहार, इन सभी घटनाओं के पीछे केवल राजनीतिक कारण नहीं थे। स्वयं तैमूर ने ‘तुजुक-ए-तैमूरी’ में स्वीकार किया है कि उसका अभियान ‘कुफ्र के उन्मूलन’ की मजहबी प्रेरणा से संचालित था।
एनसीईआरटी का संशोधन वैचारिक अन्याय का उत्तर है। यह इतिहास को न कटुता से लिखता है, न प्रतिशोध की भावना से। यह केवल यह कहता है कि इतिहास को जैसा था, वैसा स्वीकार किया जाए। बिना सत्य के न तो आत्मविश्वास संभव है, न सामाजिक समरसता। इतिहास का उद्देश्य समाज को बांटना नहीं, बल्कि उसे उसकी वास्तविक यात्रा से परिचित कराना है।
(लेखक शिक्षाविद हैं)













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