विजय क्रांति। कुछ दिन पहले अरुणाचल प्रदेश के तवांग में छठे दलाई लामा के बारे में आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय कांफ्रेंस में भाग लेने का निमंत्रण मिलने पर मैंने कई पत्रकार और राजनयिक मित्रों को संदेश भेजकर कहा था कि वे चीन सरकार के गुस्से और तिलमिलाहट भरे बयान सुनने के लिए तैयार रहें। यह बात मैंने किसी भविष्यवक्ता होने के नाते नहीं, बल्कि तिब्बत और भारत के बारे में चीनी रवैये और नीतियों पर अपने पांच दशकों के अध्ययन के आधार पर कही थी। हुआ भी वैसा ही। तीन से छह दिसंबर तक चली इस कांफ्रेंस के तीन दिन बाद ही चीन सरकार ने तिब्बत के बारे में अपनी नीति बताने वाली वेबसाइट पर भारत सरकार, अरुणाचल के मुख्यमंत्री और इस कांफ्रेंस के खिलाफ जिस तरह की जहरीली प्रतिक्रिया व्यक्त की वह चीन सरकार के गुस्से, तिलमिलाहट और आक्रामकता की ही अभिव्यक्ति थी कि उसकी दुखती रग दबाई गई है।

चीनी सरकार के एक टिप्पणीकार के बयान में अरुणाचल के लिए न केवल चीनी नाम ‘झांगमान’ और तिब्बत के लिए ‘शीझांग’ का इस्तेमाल किया गया, बल्कि इस क्षेत्र को ‘दक्षिणी तिब्बत’ बताते हुए इस कांफ्रेंस को ‘दक्षिण-पूर्वी चीन’ के हिस्से पर भारत सरकार की ओर से किया गया ‘सांस्कृतिक अतिक्रमण’ तक बता दिया। हालांकि भारत पर ऐसे आरोप लगाते हुए चीन सरकार इस सच्चाई को पूरी तरह निगल गई कि अरुणाचल प्रदेश को ‘दक्षिणी तिब्बत’ बताकर उस पर अपना अधिकार जताने के पीछे उसकी एकमात्र दलील केवल यही है कि चीन खुद ही 1951 से तिब्बत पर गैर-कानूनी और औपनिवेशिक कब्जा जमाए बैठा है। दुर्भाग्य से नेहरू काल से लेकर आज तक अरुणाचल प्रदेश और देश हिमालयी सीमा पर चीनी आक्रामकता सहता आ रहा है। किसी भी सरकार ने यह साहस नहीं दिखाया कि वह तिब्बत पर चीन सरकार के गैरकानूनी कब्जे को चुनौती देकर इस विवाद की असली जड़ पर हमला करे।

हाल में आयोजित कांफ्रेस के आयोजन के पीछे मूल कारण छठे दलाई लामा ग्यालवा त्सांगयांग ग्यात्सो के ऐतिहासिक महत्व को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रेखांकित करना था। छठे दलाई लामा इस मायने में अनूठे थे कि उनका जन्म एक मार्च, 1683 के दिन तिब्बत से बाहर भारत के तवांग क्षेत्र (अरुणाचल) में हुआ था। संयोग से तिब्बत पर 1951 के चीनी कब्जे और बाद में 1959 में चीनी सेना के हाथों पकड़े जाने या हत्या किए जाने के डर से भागे हुए 14वें दलाई लामा ने जब भारत में शरण ली तब तवांग के रास्ते ही भारत में प्रवेश किया था। इसलिए तिब्बत के दो दलाई लामाओं के साथ गहरे संबंध के कारण ही तवांग का विशेष महत्व है। कांफ्रेंस को तवांग में आयोजित किए जाने का भी यही कारण रहा।

चीन इस बात से परेशान है कि इस कांफ्रेंस में भारत और तिब्बत के अलावा अमेरिका, जापान, मंगोलिया, इजरायल, कनाडा समेत कई अन्य देशों के नामी गिरामी तिब्बत-विशेषज्ञों, चीनी मामलों के जानकर और बौद्ध धर्म के विद्वानों ने हिस्सा लिया। चीन सरकार के लिए हताशा और तिलमिलाहट का एक कारण यह भी था कि इस सम्मेलन का आयोजन भारत सरकार के इंटरनेशनल बुद्धिस्ट कन्फेडरेशन (आइबीसी) ने अरुणाचल सरकार के कार्मिक एवं आध्यात्मिक विभाग के माध्यम से किया। इसमें अरुणाचल के थुबतेन शेड्रुबलिंग फाउंडेशन और सेंटर फार कल्चरल रिसर्च एंड डाक्युमेंटेशन जैसी सम्मानित संस्थानों की भी सक्रिय रही।

आइबीसी को लेकर चीन सरकार की सबसे बड़ी छटपटाहट यह है कि भारत के इस संस्थान ने दो दशकों से चल रहे उन चीनी प्रयासों पर पानी फेर दिया है, जिनका लक्ष्य तिब्बत में अपनी उपस्थिति को आधार बनाकर चीन के ‘वर्ल्ड बुद्धिस्ट फोरम’ (डब्ल्यूबीएफ) के माध्यम से चीन को अंतरराष्ट्रीय बौद्ध जगत का सर्वोच्च और एकमात्र प्रतिनिधि स्थापित करना है। चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने सत्ता में आने के बाद ही इस अभियान को लेकर अपनी साख दांव पर लगा दी। चीन को वैश्विक बौद्ध समाज का एकमात्र नेतृत्वकर्ता स्थापित करने के लिए राष्ट्रपति शी भारत में रहने वाले दलाई लामा को दरकिनार कर चीन के कठपुतली पंचेन लामा ग्यालसेन नोरबू को दुनिया का सर्वोच्च बौद्ध नेता स्थापित करने की पुरजोर कोशिशें करते आए हैं।

यह बात अलग है कि स्वयं तिब्बती जनता द्वारा ठुकरा दिए गए नोरबू को अंतरराष्ट्रीय बौद्ध धर्मगुरुओं और विद्वानों के बीच मान्यता नहीं मिल पाई है। दूसरी ओर भारत के आइबीसी ने अपने कई प्रभावशाली आयोजनों के माध्यम से दुनिया भर के वरिष्ठ बौद्ध धर्मगुरुओं को संगठित करने और उन्हें एक मंच पर लाकर भारत को वैश्विक बौद्ध नेतृत्व के अग्रणी केंद्र के रूप में स्थापित करने की दृष्टि से उल्लेखनीय सफलता हासिल की है। पिछले कई वर्षों से अगले दलाई लामा के अवतार का चुनाव करने पर चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के एकाधिकार के प्रयासों को इस साल जुलाई में आइबीसी के अंतरराष्ट्रीय बौद्ध सम्मेलन में दुनिया भर से आए बौद्ध धर्मगुरुओं ने सिरे से ठुकरा दिया था।

तवांग कांफ्रेंस के खिलाफ अपने इस तल्खी भरे बयान से एक पखवाड़ा पहले ही चीन ने अरुणाचल की एक भारतीय महिला यात्री को एक चीनी हवाई अड्डे पर महज इस आधार पर अपमानित और परेशान किया था कि उनका पासपोर्ट भारतीय है। चीन का कहना था कि अरुणाचल पर चीनी दावे के हिसाब से उनके पास ‘चीनी पासपोर्ट’ होना चाहिए था। उससे भी पहले दर्जनों बार चीन सरकार भारत के अरुणाचली खिलाड़ियों को चीनी वीजा देने से मना कर चुकी है और भारतीय राष्ट्रपति से लेकर दलाई लामा की अरुणाचल यात्राओं का भी विरोध कर चुकी है।

इस बार भी चीनी टिप्पणी में बार-बार छठे दलाई लामा का जन्मस्थान होने के आधार पर अरुणाचल प्रदेश को तिब्बत का हिस्सा बताने का प्रयास किया गया है। ऐसे में चीन की आक्रामकता और धमकियों का सही जवाब यही होगा कि भारत सरकार तिब्बत पर चीन के गैरकानूनी और अनैतिक कब्जे को चुनौती देकर चीन की खुराफातों की दुखती रग को दबाने का काम करे। यदि ऐसा नहीं किया जाता चीन को गलत संदेश जाएगा।

(लेखक तिब्बत-चीन मामलों के विशेषज्ञ और सेंटर फॉर हिमालयन एशिया स्टडीज एंड एंगेजमेंट के चेयरमैन हैं)