शिशिर शुक्ला। अंधकार पर प्रकाश की विजय के पर्व दीपावली को संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) की सांस्कृतिक विरासत सूची में शामिल किया गया है। भारत के लिए यह एक उपलब्धि है। अभी तक यूनेस्को की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत सूची में भारत की 15 धरोहरें शामिल थीं। इनमें कुंभ मेला, गुजरात का गरबा नृत्य, कोलकाता की दुर्गा पूजा, योग, वेद पाठ, रामलीला, छाऊ नृत्य, नवरोज त्योहार, कालबेलिया नृत्य प्रमुख हैं। दीपावली को 16वीं अमूर्त विरासत के रूप में यूनेस्को की सूची में जोड़ा गया है। भारत की सांस्कृतिक परंपराएं महज अतीत का एक प्रमाण मात्र ही नहीं हैं, अपितु वे पूर्णतया जीवंत हैं और प्रत्येक भारतीय के जीवन के सूक्ष्म अनुभवों में धड़कती हैं।

भारत अपने त्योहारों, रीति-रिवाजों, लोककथाओं, संगीत, नृत्य, खान-पान और सामाजिक व्यवहारों के माध्यम से केवल अपना अतीत ही नहीं संभालता, बल्कि अपने आत्मा को भी जीवंत रखता है। जब कोई सांस्कृतिक परंपरा वैश्विक पटल पर प्रतिष्ठित होती है, तो उसके अर्थ एवं भाव स्थानीयता से उठकर सार्वभौमिकता की ओर बढ़ जाते हैं। यूनेस्को ने दीपावली को न केवल एक त्योहार के रूप में देखा, बल्कि एक सांस्कृतिक दर्शन के रूप में पहचाना, जो अनंत काल से हमारे समाज का अभिन्न अंग बना हुआ है। भारत का सांस्कृतिक तंत्र जितना विशाल है, उतना ही जटिल भी है।

यहां पग-पग पर भाषा, भोजन की शैली, पहनावा, लोकगीतों का सुर, त्योहारों की परंपरा, आचार-विचार आदि भिन्न रूप ग्रहण करते हुए सामने आते हैं, किंतु इन तमाम विविधताओं को एक सूत्र में बांधने का कार्य उसी विविधता में विद्यमान एकता के द्वारा किया जाता है। दीपावली का त्योहार इस एकतासूत्र का सर्वोत्तम उदाहरण है। देश के विभिन्न हिस्सों में हर जगह दीपों की संख्या भले ही अलग हो, किंतु प्रकाश का अर्थ, स्वरूप एवं उसमें निहित संदेश एक ही रहता है। इस व्यापकता और बहुस्तरीयता को समझना अपने आप में भारत की सांस्कृतिक शक्ति को समझना है। दीपावली का यूनेस्को सूची में शामिल होना एक सांस्कृतिक उपलब्धि भर नहीं है, बल्कि भारत के लिए व्यापक अवसर है-सांस्कृतिक संवाद को विस्तार देने का, वैश्विक प्रभाव बढ़ाने का और आने वाली पीढ़ियों में सांस्कृतिक आत्मविश्वास जगाने का।

हम इस अवसर का उपयोग सांस्कृतिक संवर्धन, आर्थिक सशक्तीकरण और सामाजिक सामंजस्य के रूप में कर सकें तो बेहतर, क्योंकि भविष्य में दीपावली के अवसर पर विदेशी पर्यटक भी भारत की ओर भ्रमण हेतु उन्मुख होंगे। इससे हमारे सांस्कृतिक एवं परंपरागत उद्योग तथा कौशल विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाने में सक्षम हो सकेंगे।

विश्व का कोई भी देश हो, वहां पर भारतीयता किसी न किसी रूप में अवश्य मौजूद है। दुनिया भर के भारतवंशी दीपावली को उसी स्तर की वैश्विक स्वीकार्यता दिला सकते हैं, जैसी क्रिसमस अथवा न्यू ईयर को मिली हुई है। विभिन्न देशों में रह रहे भारतीय मूल के लोगों को दीपावली संस्कृति को विश्व पटल पर स्थापित करने में योगदान देना चाहिए। भारतीय दूतावासों-उच्चायोगों को भी इस दिशा में पहल करनी होगी। वैश्विक स्वीकार्यता का अर्थ केवल अंतरराष्ट्रीय सम्मान अर्जित कर लेना ही नहीं है। इस स्वीकार्यता के साथ जिम्मेदारियां भी समानुपात में बढ़ती हैं। वैश्वीकरण के दौर में काफी कुछ बाजार की चमक में अपना मूल रूप खो देता है, लिहाजा दीपावली के मूल तत्वों को सुरक्षित रखना आज और भी आवश्यक एवं चुनौतीपूर्ण हो गया है। यह त्योहार मानव सभ्यता की गहरी सांस्कृतिक परतों में अध्ययन का विषय बनना चाहिए।

आज पश्चिमी जगत में बहुत सी सांस्कृतिक परंपराएं महज उत्सवों की औपचारिकताओं में सिमट गई हैं। इसके विपरीत भारत में लोक संस्कृति आज भी जीवित है। यह जीवंतता ही भारत को सांस्कृतिक रूप से अनूठा बनाती है। विश्व राजनीति में संप्रभुता वह शक्ति है जो सांस्कृतिक आकर्षण और नैतिक प्रभाव के माध्यम से देशों को जोड़ती है। योग, आयुर्वेद, भारतीय भोजन, भारतीय सिनेमा, भारतीय संगीत और अब दीपावली, ये सब भारत की संप्रभुता के स्तंभ बन चुके हैं। जब कोई राष्ट्र अपनी सांस्कृतिक विरासत के माध्यम से विश्व पटल पर पहचान बनाता है, तो उसकी वैश्विक छवि अधिक सकारात्मक बनती है और उसकी अंतरराष्ट्रीय भूमिका भी अधिक प्रभावी हो जाती है। पर्यटन, सांस्कृतिक उद्योग, हस्तशिल्प, पारंपरिक कला, लोकनृत्य, पारंपरिक खानपान, इन सभी क्षेत्रों को वैश्विक मंच मिलता है।

आज जब सभ्यताएं संघर्षों से गुजर रही हैं, तब एक ऐसा सांस्कृतिक संदेश जो प्रकाश, उत्साह, एकता और शुभता की बात करता है, वह मानवता के लिए एक दिशासूचक बन सकता है। यूनेस्को का यह निर्णय भारत को एक नवीन जिम्मेदारी सौंपता है और वह है अपनी संस्कृति का संरक्षण, संवर्धन और पुनर्जागरण। आधुनिक पीढ़ी को अपनी जड़ों से जोड़ना, त्योहारों को उनके वास्तविक अर्थ के साथ जीना और विदेशी प्रभावों एवं बाजारीकरण के बीच अपने सांस्कृतिक आत्मा को सुरक्षित रखना, ये उद्देश्य प्राप्त करना हमारा लक्ष्य होना चाहिए। दीपावली की वैश्विक मान्यता हमें स्मरण कराती है कि हमारी सांस्कृतिक परंपराएं केवल धार्मिक या सामाजिक व्यवहार नहीं हैं, बल्कि वे हमारे जीवन के अर्थ को समृद्ध करने में भी महती भूमिका का निर्वहन करती हैं।

(लेखक अस्टिटेंट प्रोफेसर हैं)