प्रो. रसाल सिंह। पिछले दिनों केंद्र सरकार ने भारतीय उच्च शिक्षा आयोग (विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की समाप्ति) विधेयक, 2018 में आंशिक परिवर्तन करते हुए उसके कार्यान्वयन का मार्ग प्रशस्त कर दिया। ‘विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान विधेयक, 2025’ नाम से पारित नया विधेयक संयुक्त संसदीय समिति को विचारार्थ प्रेषित किया गया है।

यह समूचे उच्च शिक्षा क्षेत्र का एकमात्र नियामक तंत्र होगा। हालांकि, चिकित्सा शिक्षा, फार्मेसी और विधि की शिक्षा इसके दायरे में नहीं होगी। अभी उच्च शिक्षा क्षेत्र में अनेक नियामक संस्थाएं कार्यरत हैं। उनके अपने–अपने मानदंड हैं। यूजीसी, एआइसीटीई, एनसीटीई, वास्तु परिषद, कृषि विज्ञान अनुसंधान परिषद, दूरस्थ और मुक्त शिक्षा, आनलाइन और डिजिटल शिक्षा तंत्र, आइसीएसएसआर, आइसीएआर, नैक, एनआइआरएफ जैसी एक दर्जन से अधिक नियामक संस्थाएं देश के कला, विज्ञान, व्यवसाय, अभियांत्रिकी, शिक्षा, प्रबंधन, कृषि शिक्षा आदि अनुशासनों से संबंधित उच्च शिक्षण संस्थाओं एवं शोध-संस्थानों की संबद्धता, मूल्यांकन, प्रत्यायन, रैंकिंग, वित्तपोषण और नियंत्रण आदि काम करती हैं। इन अलग-अलग नियामक संस्थाओं के अधीन उच्च शिक्षा पृथक्करण और बहुपरतीय नियंत्रण का शिकार थी।

देश भर में ऐसे अनेक उच्च शिक्षण एवं शोध-संस्थान हैं, जहां एक साथ कई प्रकार के पाठ्यक्रम पढ़ाए जाते हैं और उनसे संबंधित शोध-कार्य किया जाता है। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में सभी संस्थानों को क्रमशः बहु-अनुशासनिक बनाने पर जोर दिया गया है। विभिन्न पेशेवर और परंपरागत संस्थानों की आपसी दूरी और अलगाव के ‘स्टील फ्रेम’ की क्रमिक समाप्ति की जा रही है। नया आयोग भारत में उच्च शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण और सर्वसुलभ बनाने के लिए उत्तरदायी होगा। इन बहु-अनुशासनिक उच्च शिक्षण संस्थानों एवं शोध-संस्थानों को अलग-अलग नियामक संस्थाओं का दरवाजा खटखटाना पड़ता था।

इस प्रक्रिया में ये संस्थान अनेक प्रकार की समस्याओं का सामना करते रहे हैं। कई बार इन नियामक संस्थाओं में अनियमितता एवं पक्षपातपूर्ण रवैया अपनाने का दोषारोपण भी होता रहा है। पाठ्यक्रमों के निर्माण एवं उनके कार्यान्वयन में भी ये नियामक संस्थाएं दोषमुक्त नहीं रही हैं। ये स्वायत्त नियामक संस्थाएं आपसी टकराव और अंतर्विरोध का भी शिकार रही हैं। इससे संबंधित संस्थानों को अनावश्यक अड़चन और अवरोध का सामना करना पड़ता है। इसीलिए केंद्र सरकार ने इन सभी नियामक संस्थाओं की कार्यशैली का मूल्यांकन करते हुए इन्हें एक सर्वसक्षम निकाय के अधीन लाने का निर्णय लिया है।

नई व्यवस्था में विकसित भारत शिक्षा अधिष्ठान सीधे शिक्षा मंत्रालय की निगरानी में काम करेगा। यह यूजीसी एक्ट–1956, एआइसीटीई एक्ट–1987 और एनसीसीटी एक्ट–1993 का स्थान लेगा। ऐसे एकल और केंद्रीकृत निकाय की संस्तुति राष्ट्रीय ज्ञान आयोग (2009) और यशपाल समिति (2010) ने भी की थी। यह आयोग विभिन्न संस्थाओं के आपसी सामंजस्य, समन्वय और सक्रियता के अभाव और लालफीताशाही के प्रभाव की समाप्ति और जवाबदेही और पारदर्शिता और समयबद्ध कार्रवाई सुनिश्चित करेगा। चेयरमैन के अलावा इसके 12 सदस्य और होंगे। इस आयोग के विकसित भारत शिक्षा विनियमन परिषद, विकसित भारत मानक परिषद और विकसित भारत शिक्षा गुणवत्ता परिषद जैसे तीन आयाम (वर्टिकल) होंगे। ये आयाम नियमन, मान्यता और व्यावसायिक मानक निर्धारण का कार्य करेंगे।

निर्धारित मानकों, प्रक्रियाओं और गुणवत्ता का अनुपालन न करने वाले संस्थानों पर 10 लाख से लेकर 2 करोड़ रुपये तक जुर्माने का भी नई व्यवस्था में प्रविधान हुआ है। यह आयोग उच्च शिक्षण संस्थानों के दोहरे-तिहरे नियमन की मौजूद व्यवस्था का सरलीकरण और स्तरीकरण करेगा, ताकि शिक्षण संस्थानों के प्रबंधन में दोहरा/तिहरा हस्तक्षेप न हो। इस आयोग द्वारा उच्च शिक्षा में मानकों और गुणवत्ता के संबंध में पारदर्शी तरीके से सार्वजनिक प्रस्तुतीकरण और योग्यता आधारित निर्णय के माध्यम से विनियमन किया जाएगा।

इस आयोग को अधिगम परिणामों (लर्निंग आउटकम) पर विशेष ध्यान देने के अलावा शैक्षणिक मानकों में सुधार, संस्थानों के शैक्षणिक प्रदर्शन का मूल्यांकन, संस्थानों का परामर्श, शिक्षकों का प्रशिक्षण, अधुनातन शैक्षिक पद्धतियों और प्रौद्योगिकी के उपयोग को बढ़ावा देने आदि का काम भी करना होगा। यह आयोग संस्थानों के नियमन और संचालन के लिए अनुकूलित वातावरण बनाते हुए अधिक लचीलेपन के साथ स्वायत्तता प्रदान करेगा। इस आयोग के पास उच्च शिक्षण संस्थानों में शैक्षणिक गुणवत्ता मानकों का अनुपालन सुनिश्चित करवाने तथा स्तरहीन और कागजी संस्थानों को बंद कराने की शक्ति भी होगी। इस एकीकृत और सर्वसक्षम आयोग के गठन से समय, श्रम–ऊर्जा, संसाधन और धन की भी बचत होगी।

यह नई पहल बहुत सार्थक है, लेकिन यह भी समझना होगा कि शिक्षा तंत्र को सिर्फ सरकार का दायित्व न मानकर सभी हितधारकों को उसमें भागीदारी और जवाबदेही सुनिश्चित करनी होगी। नियुक्ति प्रक्रिया में गुणवत्ता और पारदर्शिता, संचालन में दूरदर्शिता और सक्षमता, आधारभूत ढांचे के निर्माण में आंशिक और आनुपातिक भागीदारी और उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए सभी हितधारकों को अपना सर्वोत्तम योगदान देने के बारे में गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है।

दायित्व–विमुख और अधिकार–सचेत बौद्धिक समाज उच्च शिक्षा तंत्र न तो सरकार से प्रश्न पूछने का नैतिक साहस रखता है और न ही देश और समाज का कल्याण करने की सामर्थ्य रखता है। यह हास्यास्पद ही है कि कुछ विपक्षी और दक्षिण भारत के सांसदों ने इस अधिष्ठान के नाम पर तंज कसते हुए इसे हिंदी थोपने की कोशिश बताया है। ध्यान रहे कि यह सकारात्मक सुधारों को स्वीकारते हुए उनके बेहतर कार्यान्वयन की दिशा में संगठित प्रयास करने का समय है। अन्यथा उच्च शिक्षा तंत्र भी स्कूली शिक्षा तंत्र की गति को प्राप्त हो जाएगा।

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के रामानुजन कालेज में प्राचार्य हैं)