विचार: सूरा सो पहचानिये, जो लरै दीन के हेत
यह विश्व इतिहास की विरल घटना है कि मतांतरण की बात न स्वीकारने पर नौ और छह साल के दो बच्चे शासक के आदेश से दीवार में जीवित चुनवा दिए गए हों, मगर करीब 320 वर्ष पूर्व यही हुआ था पंजाब में। वीर बाल दिवस (26 दिसंबर) पर शंभू दयाल वाजपेयी पलट रहे हैं वह अध्याय, जो है धर्म की रक्षा के लिए गुरु गोबिंद सिंह जी के चारों बेटों और उनकी वृद्ध माता के बलिदान का...
HighLights
गुरु गोबिंद सिंह के बेटों का अद्वितीय बलिदान
धर्म न बदलने पर बेटों को दीवार में चुनवाया
शंभू दयाल वाजपेयी। करीब 320 वर्ष पहले दिसंबर की भीषण ठंड में पंजाब में शौर्य और धर्मयुद्ध के इतिहास का अप्रतिम अध्याय लिखा जा रहा था। यह अध्याय है गुरु गोबिंद सिंह के चारों बेटों और उनकी वृद्ध मां के आत्म-बलिदान का। यह विश्व इतिहास की एक विरल घटना है कि धर्म बदलने की बात न मानने के लिए नौ और छह साल के दो बच्चे शासक के आदेश से दीवार में जीवित चुनवा दिए गए हों। हाथ बंधे, कैद में नंगी तलवारों से घिरे गुरु गोबिंद सिंह जी के दोनों छोटे बेटे मुगल सत्ता के एक शक्तिशाली प्रतिनिधि से बकायदा जंग लड़ रहे थे। अपनी तेजस्विता और संकल्प बल से, यही उनके पास था।
दिसंबर, 1704 के उत्तरार्ध में एक रात जब गुरु गोबिंद सिंह ने सुरक्षित जाने देने की बादशाह औरंगजेब की कुरान और पहाड़ी राजाओं की गाय की शपथ पर आनंदपुर साहिब छोड़ा तो वही हुआ, जिसका उन्हें अंदेशा था। मुगल और पहाड़ी राजाओं की संयुक्त सेना ने पीछे से उन पर हमला बोल दिया। धोखा देकर किए गए इस हमले की आपाधापी में कई सिख सैनिक मारे गए और गुरु गोबिंद सिंह जी का कीमती सामान, पोथियां, ‘विद्यासागर’ आदि रचनाएं व संस्कृत से अनुवाद कराया गया साहित्य वगैरह नदी में नष्ट हो गए। गुरु परिवार भी बिखर गया।
दो दिन तक किए जुल्म
इस धोखे और आपाधापी के बाद गुरु गोबिंद सिंह जी की माता गुजरी जी रास्ता भटक गईं और उनके साथ गुरु गोबिंद सिंह जी के दो छोटे बेटे नौ साल के बाबा जोरावर सिंह और छह साल के बाबा फतेह सिंह गिरफ्तार कर सरहिंद (जिला फतेहगढ़ साहिब) ले जाए गए। सरहिंद के फौजदार नवाब वजीर खां ने उन्हें नदी के किनारे सुनसान पड़े और चारों ओर से खुले एक ऊंचे बुर्ज में रखवाया। भीषण ठंड में पुआल में बैठकर ठिठुरते हुए दोनों बच्चों और माता गुजरी ने रात काटी। 23 दिसंबर, 1705 को सुबह माता गुजरी को वहीं छोड़ सशस्त्र सिपाही दोनों लड़कों को फौजदार के दरबार ले गए। दो दिन तक यह क्रम चला।
प्रलोभन के बदले चुना बलिदान
नवाब ने बच्चों का मनोबल तोड़ने को यह भी कहा कि तुम्हारे बाप-भाई वगैरह सब मार दिए गए हैं, अब तुम उनसे कभी नहीं मिल पाओगे। हमारी बात मान लो तो ऐश करोगे। समझाया, प्रलोभन दिया और क्रूरतापूर्वक मार दिए जाने को डराया। कहा- इस्लाम अपना लो, रिहा कर दिए जाओगे। बच्चे तनकर कहते- मार दो, मगर धर्म नहीं छोड़ेंगे। नवाब भी हैरान-परेशान था, उसने ऐसे निडर और संकल्प के धनी लड़के नहीं देखे थे। वे ऐसे कड़क जवाब देते रहे कि उसने झल्लाकर तीसरे दिन उन्हें जिंदा दीवार में चुनवा देने का आदेश दे दिया। ये बच्चे कई रातों के जगे और कई दिनों के भूखे थे, तब भी। दोनों बच्चे अडिग थे, उनके चेहरे पर शिकन नहीं। दीवार चुन दी गई और दम घुटने से दोनों की सांसें थम गईं। ‘सूरज प्रकाश’ और ‘गुरबिलास’ के अनुसार दोनों के सिर कलम किए गए। कहा जाता है कि दीवार गिर गई तो बाद में जल्लाद ने उनके सिर काटे।
दो बेटे युद्ध में हुए बलिदान
उधर 22 दिसंबर, 1704 को चमकौर में हुए युद्ध में गुरु गोबिंद सिंह जी के दोनो बड़े बेटे 18 साल के साहिबजादा अजीत सिंह, 14 वर्षीय बाबा जुझार सिंह और 37 सिख वीरगति को प्राप्त हुए। यह विश्व इतिहास का अनूठा युद्ध है, जिसमें करीब एक लाख की मुगल सेना भीषण युद्ध के बाद भी कच्ची गढ़ी में गुरु गोबिंद सिंह जी तक पहुंच नहीं पाई। गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ उनके दो बड़े बेटे और मात्र चालीस सिख थे। गुरु गोबिंद सिंह जी ने बड़े उत्साह से अपने पुत्रों को गले लगा कर और पीठ थपथपा कर चार सिखों के जत्थे के साथ युद्ध मैदान में जाने को भेजा और बड़े बेटे के बाद छोटे बेटे का बलिदान भी देखा!
अपने पितामह की तरह दोनों बालकों नौ साल के बाबा जोरावर सिंह और छह साल के बाबा फतेह सिंह ने प्राण तो दे दिए, लेकिन धर्म नहीं दिया। ये दोनों गुरु गोबिंद सिंह जी के बेटे थे, वही गुरु गोबिंद सिंह जी जिन्हें इस घटना के ढाई-तीन साल बाद औरंगजेब के उत्तराधिकारी और बड़े बेटे बहादुर शाह ने ‘हिंद का पीर’ यानी भारत का संत कहा। अपने दोनों पौत्र, बाबा जोरावर सिंह और बाबा फतेह सिंह को जीवित दीवार में चुनवा दिए जाने का सदमा 81 वर्षीया दादी माता गुजरी बर्दाश्त नहीं कर सकीं और यह खबर सुनने पर उसी दिन उनके प्राण-पखेरू उड़ गए। वह विश्व इतिहास का अकेला ऐसा नाम हैं, जो आत्म बलिदानी की पत्नी थीं, मां थीं, दादी थीं और स्वयं भी सिख सिद्धांतों को लेकर बलिदान हुईं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)













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