डॉ. बिभा त्रिपाठी। कहते हैं, सामाजिक कुप्रथाओं का कोई मजहब नहीं होता। हिंसा की कोई जाति नहीं होती। ये बातें तब फिर सही साबित होती दिखीं, जब हाल में सर्वोच्च न्यायालय ने संवेदनशीलता दिखाते हुए संवैधानिक समानता और सामाजिक असमानता के बीच की गहरी खाई पाटने का प्रयास किया। हाल में अजमल बेग बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में निर्णय देते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह स्पष्ट कर दिया कि सामाजिक समस्याएं कभी खत्म नहीं होतीं, बल्कि उन पर समय की गर्द पड़ जाती है और हम कुछ अन्य समस्याओं को समसामयिक और ज्वलंत मानते हुए उनकी चर्चा में उलझ जाते हैं। 1961 में लंबी जद्दोजहद के बाद दहेज प्रतिषेध कानून अस्तित्व में आया और भारतीय दंड संहिता में उसके 25 वर्ष बाद (1986) दहेज हत्या के अपराध को जगह मिली।

हाल के दिनों में कुछ महिलाओं द्वारा दहेज प्रतिषेध कानून के दुरुपयोग के मामलों पर चर्चाओं ने इतना जोर पकड़ा कि हम भूल गए कि आज भी नवविवाहिताओं को दहेज की प्रताड़ना झेलनी पड़ती है। इस मामले में न्यायालय ने एक तरफ अपने से ऊंचे ओहदे वाले परिवारों में शादी की परंपरा का उल्लेख किया और यह बताना चाहा कि कई बार उसकी कीमत युवा महिलाओं को अपनी जान देकर चुकानी पड़ती है। न्यायालय ने यह भी कहा कि जिस मुस्लिम समुदाय में दहेज का कोई प्रविधान ही नहीं है, उलटे जहां ‘मेहर’ की बात की गई है, उसी समुदाय में किसी महिला को जलाकर मार दिया जाना यह प्रमाणित करता है कि हमारा समाज विद्रूपताओं को अपनाने वाला समाज है। इसमें हम आदर्श से हर वक्त किनारा करते दिखाई देते हैं।

कानूनी प्रविधानों तथा सामाजिक सोच में समानता न होने का प्रमाण हर बार दिखाई देता है। जब देश के विधि निर्माताओं को लगा कि यदि हम महिलाओं को जन्म से ही बराबर मानते हुए उन्हें पैतृक संपत्ति में बराबर का भागीदार बना देंगे तो दहेज की समस्या स्वतः ही खत्म हो जाएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। या तो पारिवारिक संबंध बचाए रखने के लिए महिलाओं को हलफनामा देना पड़ता है कि वे पैतृक संपत्ति में अपने हक की मांग ही नहीं करेंगी अथवा यदि मांग करेंगी भी तो परिवार स्वेच्छा से उन्हें यह अधिकार नहीं देगा और सर्वोच्च न्यायालय तक अपने हक की लड़ाई लड़नी पड़ेगी।

समाज अभी भी आधी आबादी को बराबरी का पूरा दर्जा देने के लिए तैयार नहीं है। इसलिए आज भी दहेज की मांग जारी है और नवविवाहिताओं की हत्या के मामले भी सामने आते हैं। समाज यहीं नहीं रुकता, बल्कि जब एक महिला गर्भधारण करती है तो अनेक घरों में उसके संबंधी यही आस लगाए रहते हैं कि होने वाली संतान बेटा ही हो। पहली संतान के रूप में बेटी फिर भी स्वीकार हो जाती है, लेकिन दूसरी बार विधियों के दुरुपयोग की तलाश प्रारंभ हो जाती है, जो कई बार कन्या भ्रूण हत्या का कारण बनती है। शायद इसी कारण विश्व आर्थिक संगठन ने यह अनुमान लगाया है कि वैश्विक स्तर पर पूर्ण लैंगिक समानता 2150 तक ही आ पाएगी। यानी अभी 125 वर्ष और लगेंगे। क्या तब तक ऐसे ही नवविवाहित महिलाएं प्रताड़ित होंगी और बेटियां गर्भ में मारी जाती रहेंगी? यदि माता-पिता ने समाज से संघर्ष करते हुए उन्हें जन्म दे भी दिया तो क्या वे फिर दहेज की विभीषिका का शिकार होंगी?

दहेज प्रतिषेध कानून एक पंथनिरपेक्ष अधिनियम है और हर पंथ के लोगों पर लागू होता है। यही वजह है कि अजमल बेग के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय ने एक साथ अनेक दिशानिर्देश जारी किए हैं। मसलन, स्कूली पाठ्यक्रम में ऐसे बदलाव किए जाएं, जिनसे लैंगिक रूढ़िवादिता समाप्त हो। आरंभ से संदेश जाए कि विवाह में दोनों पक्ष समान हैं और कोई भी दूसरे के अधीन नहीं है। यह संवैधानिक समानता की भावना जब तक सामाजिक समानता के धरातल पर चरितार्थ नहीं होगी, तब तक हम पूर्ण न्याय पाने की स्थिति में नहीं होंगे।

सभी राज्यों में न केवल दहेज निषेध अधिकारियों की प्रभावी नियुक्ति सुनिश्चित की जानी चाहिए, बल्कि उनके नाम, फोन नंबर और ई-मेल जैसी जानकारी स्थानीय स्तर पर व्यापक रूप से प्रसारित करने के साथ उन्हें संवेदनशील बनाया जाना चाहिए। महिला एवं बाल कल्याण अधिकारियों के साथ-साथ पुलिस और न्यायिक अधिकारियों को भी प्रशिक्षित किया जाए, ताकि दहेज मृत्यु और क्रूरता के मामलों के सामाजिक-मनोवैज्ञानिक पहलुओं को समग्रता में समझा जा सके और वास्तविक मामलों तथा झूठे अथवा दुरुपयोग वाले मामलों में अंतर किया जा सके।

इसी कारण सभी उच्च न्यायालयों को भी निर्देश दिया गया है कि वे दहेज मृत्यु और दहेज प्रताड़ना से जुड़े लंबित मामलों की समीक्षा कर उनके शीघ्र निपटारे के लिए प्रभावी कदम उठाएं। इसका तात्पर्य यह है कि समाज का हर परिवार अपने बच्चों को शिक्षा दे, उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के लिए प्रशिक्षण प्रदान करे और समानता के मजबूत ताने-बाने के साथ विवाह जैसे रिश्ते की बुनियाद डाले, ताकि पूरे समाज को यह संदेश मिले कि विवाह एक सामाजिक संस्था है और मातृत्व एक सामाजिक जिम्मेदारी। गृहस्थी की गाड़ी एक पहिये पर नहीं चल सकती, बल्कि हर व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी निभानी पड़ती है। एक सुलझे हुए परिवार में ही एक सुलझा हुआ समाज बसता है।

(लेखिका काशी हिंदू विश्वविद्यालय के विधि संकाय में प्रोफेसर हैं)