विचार: विश्व की दिशा परिवर्तन का वर्ष
स्वीडन के पूर्व प्रधानमंत्री कार्ल बिल्ट ने ट्रंप के इस रवैये को अमेरिका की ‘सभ्यतागत आत्महत्या’ की संज्ञा दी है। उदार लोकतंत्र, खुली स्पर्धा और नियमबद्ध व्यवस्था जैसे आदर्शों को ताक पर रखकर ट्रंप तीन महाशक्तियों के दबदबे वाली दुनिया बनाने की राह पर हैं। संयुक्त राष्ट्र के किसी मंच पर अब जुबानी जमाखर्च के सिवा इन तीनों की आमराय के बिना कुछ हो पाने की संभावना कम ही दिखती है। ऐसे में असली चुनौती यूरोप और भारत के सामने है कि कैसे अपनी सुरक्षा में आत्मनिर्भर होकर अपना दबदबा बढ़ाएं और कारोबार फैलाएं।
HighLights
ट्रंप का रवैया: अमेरिका की सभ्यतागत आत्महत्या
तीन महाशक्तियों के दबदबे वाली दुनिया की राह
यूरोप और भारत के लिए सुरक्षा की चुनौती
शिवकांत शर्मा। विश्व आर्थिक मंच, यूरोपीय संघ और संयुक्त राष्ट्र व्यापार एवं विकास सम्मेलन (अंकटाड) जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं, राजनयिक और विश्लेषक वर्ष 2025 को दुनिया की दिशा बदलने वाले वर्ष के रूप में परिभाषित कर रहे हैं। इसकी वजह अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की नाटकीय टैरिफ नीति, वैश्विक समीकरणों और व्यवस्थागत नियमों में हुई ऐसी उथल-पुथल है, जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद से चली आ रही विश्व व्यवस्था में पहले कभी नहीं देखी गई।
वैश्वीकरण के दौर में विश्व व्यापार बढ़कर 40 गुना से अधिक हो गया था जिसके कारण दुनिया के एक अरब से अधिक लोग गरीबी के दायरे से बाहर निकल सके, लेकिन इस दौर में उद्योग-धंधे अमेरिका और यूरोप छोड़कर एशियाई देशों में चले गए, जहां कच्चा माल और मज़दूरी सस्ती थी। इससे अमेरिका और यूरोप में कामगार बेरोजगार हुए और व्यापार घाटे भी बढ़े। ट्रंप इसी प्रक्रिया को पलटने के वादे पर चुनाव जीते थे। इसलिए उन्होंने सत्ता संभालते ही कुछ देशों पर भारी टैरिफ लगाने के साथ-साथ छोटे-बड़े सभी देशों पर टैरिफ लगा दिए। इन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर लगाया गया, ताकि विश्व व्यापार संगठन में चुनौती न दी जा सके। पिछले 70 वर्षों से मुक्त व्यापार की वकालत करते आ रहे देश ने 30 वर्ष लंबी गैट वार्ताओं के बाद बनी विश्व व्यापार की व्यवस्था को एक एलान से ध्वस्त कर दिया।
ट्रंप के टैरिफ युद्ध का प्रमुख निशाना चीन था, परंतु उसने अपने दुर्लभ खनिजों और औद्योगिक चुंबकों के ब्रह्मास्त्र से अपना बचाव कर लिया। भारत और ब्राजील इसके लिए तैयार नहीं थे। इसलिए दोनों पर सर्वाधिक ऊंचे 50 प्रतिशत टैरिफ लगे हैं। दिलचस्प बात यह है कि रूस पर युद्धविराम का दबाव डालने के लिए ट्रंप भारत पर रूसी तेल खरीदना बंद करने का दबाव डाल रहे हैं, जिसे वे दोस्त कहते हैं। जबकि रूसी तेल के सबसे बड़े खरीदार और प्रतिद्वंद्वी चीन से कुछ नहीं कहते। नाटो में अपने सहयोगी तुर्किये से कुछ नहीं कहते। अपने दोस्त हंगरी के नेता ओर्बान को खरीदने की छूट दे रहे हैं और खुद रूस से परमाणु ईंधन की खरीदारी जारी है। ट्रंप की अबूझ नीतियों के कारण यह साल 25 वर्षों से घनिष्ठ होते आ रहे भारत-अमेरिका रिश्तों पर संदेह और अनिश्चितता के साए का साल रहा।
इस नियमहीन धौंस की कूटनीति ने चीन, रूस और ब्राजील जैसी ब्रिक्स शक्तियों को डालर के बिना व्यापार करने के उपाय खोजने पर विवश किया। ये देश अब अपना अधिकांश व्यापार अपनी मुद्राओं में करने लगे हैं। रूस और चीन करीब 250 अरब डालर के व्यापार का 99.1 प्रतिशत अपनी मुद्राओं में करते हैं। भारत-रूस भी अपने व्यापार का 96 प्रतिशत अपनी मुद्राओं में करते हैं। चीन और ब्राजील भी आपसी व्यापार अपनी मुद्राओं में करने लगे हैं। आर्थिक प्रतिबंधों से बचने के लिए डालर मुक्त व्यापार नया नहीं है, पर ट्रंप की मनमानी और धौंस ने इसे नई गति दी है।
ट्रंप की नीतियों की अस्थिरता और अप्रत्याशितता ने सामरिक समीकरणों को भी उलटा-पलटा है। यूरोप के साथ अमेरिका के रिश्तों की बुनियाद सदियों पुरानी है। दूसरे महायुद्ध में यूरोप के जर्जर और कंगाल हो जाने के बाद अमेरिका विश्व की सबसे बड़ी सामरिक और आर्थिक शक्ति बनकर उभरा था। इसलिए उसने अपने नेतृत्व में विश्व के लिए एक नई नियमबद्ध व्यवस्था बनाई जो उसके उदार लोकतंत्र, खुली स्पर्धा वाली आर्थिकी और कानून व्यवस्था के सिद्धांतों पर आधारित थी।
यूरोप उसका सामरिक साथी और वैचारिक प्रयोगशाला बना। यूरोप ने शीतयुद्ध के दौरान साम्यवादी एकदलीय तानाशाही के फैलाव को रोके रखा। सोवियत संघ से स्वतंत्र हुए पूर्वी यूरोप के देशों ने अमेरिका और यूरोप की व्यवस्था को केवल तेज आर्थिक विकास के लिए ही नहीं अपनाया था। उन्हें साम्यवादी तानाशाही से अपना अस्तित्व भी बचाना था और उम्मीद थी कि यूरोप और अमेरिका उनकी रक्षा करेंगे। ट्रंप यूक्रेन के बचाव की जगह पुतिन को खुश रखने के लिए जिस तरह उसकी जमीन और सुरक्षा का सौदा करने में लगे हैं, उसने इस भ्रम को भी तोड़ दिया है।
यूरोप को सबसे बड़ा धक्का ट्रंप की नई सुरक्षा नीति में पुतिन के हमले और तानाशाही की आलोचना की जगह अपनी आलोचना को पढ़कर लगा है। अमेरिकी सुरक्षा नीति कहती है कि लचर नीतियों के कारण यूरोप के कुछ देशों में कुछ ही दशकों के भीतर यूरोपीय सभ्यता लुप्त हो जाएगी, क्योंकि गैर-यूरोपीय बहुसंख्यक बन जाएंगे। इसलिए वह यूरोप में राष्ट्रवादी पार्टियों को सत्ता में देखना चाहती है। स्पष्ट है कि ट्रंप यूरोप को अब एक बोझ के सिवा कुछ नहीं मानते। दूसरी तरफ पुतिन का स्वागत वे महाशक्ति की तरह तालियां बजाकर करते हैं। चीनी राष्ट्रपति के साथ होने वाली शिखर बैठक को जी-2 की संज्ञा देकर वे स्वयं स्वीकार करते हैं कि चीन अब बराबर की महाशक्ति है।
स्वीडन के पूर्व प्रधानमंत्री कार्ल बिल्ट ने ट्रंप के इस रवैये को अमेरिका की ‘सभ्यतागत आत्महत्या’ की संज्ञा दी है। उदार लोकतंत्र, खुली स्पर्धा और नियमबद्ध व्यवस्था जैसे आदर्शों को ताक पर रखकर ट्रंप तीन महाशक्तियों के दबदबे वाली दुनिया बनाने की राह पर हैं। संयुक्त राष्ट्र के किसी मंच पर अब जुबानी जमाखर्च के सिवा इन तीनों की आमराय के बिना कुछ हो पाने की संभावना कम ही दिखती है। ऐसे में असली चुनौती यूरोप और भारत के सामने है कि कैसे अपनी सुरक्षा में आत्मनिर्भर होकर अपना दबदबा बढ़ाएं और कारोबार फैलाएं।
इसमें कोई बड़ी कठिनाई नहीं होनी चाहिए, क्योंकि यदि दुनिया तिकोना रूप लेती है तो समर्थन-शक्ति के लिए कई छोटे देश साथ आना चाहेंगे। तीन या अधिक धुरियों में बंटी दुनिया में जलवायु परिवर्तन और जिहादी आतंक की रोकथाम जैसी वैश्विक चुनौतियों पर अब क्षेत्रीय सहयोग जुटाना अधिक महत्वपूर्ण हो जाएगा। इसके अलावा इस वर्ष का सबसे बड़ा दिशा परिवर्तन एआइ या यंत्रमेधा का आर्थिक गतिविधि के हर क्षेत्र में सक्रिय हो जाना है। 30 वर्ष पुरानी सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति के बाद यह उससे भी बड़ी क्रांति है, जो खोज से लेकर निर्माण और उपभोग तक उत्पादन के हर पहलू को और कामकाज को प्रभावित करेगी।
(लेखक बीबीसी हिंदी के पूर्व संपादक हैं)













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