जागरण संपादकीय: माओवाद से मिलती मुक्ति, सफल होता दिख रहा पीएम मोदी का मिशन
इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि माओवादी जब-तब सुरक्षा बलों को चुनौती देते रहते हैं। इसे देखते हुए बचे-खुचे माओवादियों के खिलाफ सख्ती का परिचय देने में संकोच नहीं किया जाना चाहिए। उन्हें न तो सिर उठाने का अवसर दिया जाना चाहिए और न ही संगठित होने का। ऐसे हालात पैदा करने होंगे, जिससे उनके सामने समर्पण करने के अलावा और कोई उपाय ही न रहे। भूमिगत माओवादी नेताओं के साथ-साथ उन्हें वैचारिक खुराक देने वाले उन तत्वों पर भी कड़ी निगाह रखी जानी चाहिए, जो अर्बन नक्सल कहे जाते हैं।
HighLights
माओवादियों के खिलाफ सख्ती का परिचय देना चाहिए
माओवादियों के खिलाफ जारी अभियान को फिर से एक बड़ी सफलता मिली। इस बार यह सफलता मिली ओडिशा के कंधमाल जिले में, जहां 1.1 करोड़ के इनामी माओवादी सरगना गणेश उइके अपने चार साथियों के साथ मुठभेड़ में मारा गया। इसके कुछ घंटे पहले ओडिशा में ही दो और माओवादी मारे गए थे। ओडिशा में माओवादी सरगना गणेश के मारे जाने के बाद यह राज्य भी माओवाद से मुक्त होने की कगार पर आ खड़ा हुआ है।
इसी के साथ देश के अगले वर्ष मार्च तक माओवाद से मुक्त होने के आसार बढ़ गए हैं। इसे गृहमंत्री अमित शाह ने जिस तरह नए सिरे से दोहराया, उससे इस लक्ष्य की प्राप्ति को लेकर उनकी प्रतिबद्धता का ही पता चलता है। कितना अच्छा होता कि ऐसी ही प्रतिबद्धता मनमोहन सरकार ने भी दिखाई होती। हालांकि मनमोहन सरकार के समय जब चिदंबरम गृहमंत्री थे तो माओवादियों के खिलाफ आपरेशन ग्रीनहंट चलाया गया, लेकिन उसका विरोध कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों ने ही शुरू कर दिया।
इसके चलते यह आपरेशन धीरे-धीरे निष्प्रभावी हो गया। इसकी देश को बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। इससे माओवादियों का दुस्साहस बढ़ा। उन्होंने अपने को संगठित कर सुरक्षा बलों पर घातक हमले किए और आदिवासियों का दमन करने के साथ ही विकास कार्यों को रोका और अपनी लूट-खसोट तेज की। इसमें कोई संशय नहीं रह जाना चाहिए कि माओवाद विषैली विचारधारा से लैस ऐसे हथियारबंद लोगों का निर्मम समूह है, जो गरीबों की हित रक्षा की आड़ लेकर हर तरह की मनमानी और उगाही करता है।
हाल के समय में जिस तरह एक के बाद एक माओवादी सरगना मारे गए हैं और बड़ी संख्या में उनके सहयोगियों ने समर्पण किया है, उससे माओवाद अंतिम सांसें लेता हुआ दिख रहा है। इसकी पुष्टि इससे भी होती है कि अब माओवाद से प्रभावित जिलों की संख्या 11 ही रह गई है। एक समय में ऐसे जिलों की संख्या 182 थी। बीतते कुछ समय में माओवाद से कई ऐसे क्षेत्र भी मुक्त हुए हैं, जो कभी उनके गढ़ हुआ करते थे। हालांकि कई भूमिगत माओवादी नेता इस नतीजे पर पहुंच चुके हैं कि वे हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन वे हथियार छोड़ने के लिए तैयार नहीं।
इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि माओवादी जब-तब सुरक्षा बलों को चुनौती देते रहते हैं। इसे देखते हुए बचे-खुचे माओवादियों के खिलाफ सख्ती का परिचय देने में संकोच नहीं किया जाना चाहिए। उन्हें न तो सिर उठाने का अवसर दिया जाना चाहिए और न ही संगठित होने का। ऐसे हालात पैदा करने होंगे, जिससे उनके सामने समर्पण करने के अलावा और कोई उपाय ही न रहे। भूमिगत माओवादी नेताओं के साथ-साथ उन्हें वैचारिक खुराक देने वाले उन तत्वों पर भी कड़ी निगाह रखी जानी चाहिए, जो अर्बन नक्सल कहे जाते हैं।








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