विचार: बुनियादी बदलाव से बचती कांग्रेस
राज्यों में भी भाजपा मोदी के नाम की गारंटी लेकर उतरती है। यह सच है कि भाजपा की विश्वसनीयता और लोकप्रियता आज के दिन मोदी के नेतृत्व के कारण है। कुछ राज्यों में अलग-अलग नेताओं ने भी नेतृत्व दिया है और बार-बार जीत भी रहे हैं। कांग्रेस को विश्वसनीयता के संकट से बाहर आना ही होगा।
HighLights
राहुल गांधी में संवाद की कमी
कांग्रेस में विश्वसनीयता का संकट
आशुतोष झा। अभी हाल में दो तस्वीरें आईं, जो काफी चर्चा में रहीं। एक में कांग्रेस की सांसद प्रियंका गांधी वाड्रा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह, लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला समेत पक्ष-विपक्ष के कई नेताओं के साथ मुस्कुराते हुए चाय की चुस्की ले रही हैं। दूसरी तस्वीर उसके एक दिन पहले आई, जिसमें प्रियंका सड़क परिवहन मंत्री नितिन गडकरी के साथ हिमाचल की सड़कों को लेकर और केरल में अपनी प्राथमिकताओं पर चर्चा कर रही हैं। वैसे तो संसदीय परंपरा में ये सामान्य घटनाएं हैं, लेकिन इसका संदेश गूंजता है। विपक्ष सलाह दे सकता है, शक्ति हो तो दबाव बना सकता है, लेकिन सरकार को अस्वीकार नहीं कर सकता, जिसकी कोशिश खासतौर से मुख्य विपक्ष की ओर से होती रही है।
इससे शायद ही कोई इन्कार करे कि एक मोड़ पर जाकर नेतृत्व ही अहम हो जाता है। वही पार्टी की दिशाएं तय करने लगता है, उसकी विश्वसनीयता और अविश्वसनीयता से पार्टी की पहचान होने लगती है। वही पार्टी को हराता और जिताता है और भविष्य तय करने लगता है। वर्ष 2025 इस सवाल का बार-बार जवाब देते दिखा। इस वर्ष दो अहम चुनाव हुए। एक देश की राजधानी दिल्ली में और दूसरा हमेशा से राजनीति का अखाड़ा बने रहे बिहार में। 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद राहुल गांधी नेता विपक्ष तो बने ही, पार्टी के अंदर भी उन्होंने प्रभावी नेता के रूप में खुद को स्थापित कर लिया। इन दोनों राज्यों में चुनाव के बाद फिर से स्पष्ट हो गया कि खुद को अपग्रेड करने की उनकी क्षमता कहीं न कहीं लुप्त है। वे कांग्रेस नेता से खुद को नेता प्रतिपक्ष के रूप में अपग्रेड नहीं कर सके। कारण है संवाद की कमी, जिद और अकड़।
राहुल विपक्ष के नेताओं से तारतम्य बनाने में असफल रहे हैं। सरकार से संवाद करना उनके लिए असहज है। संसद के अंदर भी उनका सख्त चेहरा ही दिखता है। पार्टी में संवाद की स्थिति क्या है, यह बार-बार पार्टी नेताओं की ओर से ही सोनिया गांधी को लिखी जा रही चिट्ठी से स्पष्ट हो जाता है। ऐसे में प्रियंका की तस्वीरों ने चर्चा को छेड़ दिया है तो यह असामान्य नहीं है। दूसरी तरफ भाजपा के नेता प्रधानमंत्री मोदी हैं, जो हर किसी से संवाद में माहिर हैं। विपक्ष के नेताओं के साथ उनके उन्मुक्त संवाद को देखा जा सकता है। वे उन मुद्दों को छूते हैं, जो जनता को स्पर्श करें। चुनाव के वक्त पार्टी के साथ खड़े होते हैं और जिम्मेदारी अपने कंधों पर लेते हैं। उनकी ओर से दिखाए जाने वाले इतिहास के कुछ पन्नों से कांग्रेस परेशान जरूर होती है, पर बतौर प्रधानमंत्री उनकी यह जिम्मेदारी भी तो है कि युवाओं को इतिहास याद दिलाएं। सकारात्मक सोचने की अपील करें।
जब संसद का शीतकालीन सत्र शुरू हुआ था तो लगा था कि कांग्रेस समय और लोगों की अपेक्षा के अनुसार बदलने को तैयार होने लगी है। बहुत लंबे अरसे के बाद ऐसा हुआ कि दो दिन के शोर-शराबे के बाद विपक्ष भी चर्चा करने और कार्यवाही को सुचारु करने के लिए राजी हो गया। यह सुखद अहसास था, लेकिन मानसिक रूप से बदलाव नहीं हुआ। चुनाव सुधार पर चर्चा हुई तो सार्थक सुझाव दिए जाने चाहिए थे। बजाय इसके चुनाव आयोग के अधिकार को छीनने की मांग ही होती रही। संविधान भी कहता है और सुप्रीम कोर्ट भी कह चुका है कि एसआइआर कराना चुनाव आयोग का अधिकार है, लेकिन विपक्ष चाहता है कि यह हो ही नहीं। जो सवाल किए गए, उसमें चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए कमेटी की बात भी आई। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार ही सरकार ने एक नियम तय किए, जो सरकार का अधिकार है।
सरकार के अधिकार को नकारने का क्या अर्थ? युवाओं को तर्क से समझाना होता है, इतिहास से उदाहरण बताना होता है। तभी वे जुड़ते हैं। युवाओं को तो यही समझ आया कि पहले नेता विपक्ष भी कमेटी में नहीं होते थे। अब मोदी सरकार ने लोकसभा के नेता विपक्ष को शामिल कर दिया। यह नियम किसी भी सरकार पर लागू होगा। ऐसे में राहुल गांधी को अपनी छवि बड़ी बनानी थी। उन्हें राजनीति में अपराधीकरण रोकने की बात करनी चाहिए थी, एक ही स्थान से चुनाव लड़ने के लिए कानून बनाए जाने का सुझाव देना चाहिए था। एसआइआर पर तो अब चुनाव आयोग ने चुनौती दे दी है और कहा कि कुछ राज्यों में एसआइआर के बाद ड्राफ्ट मतदाता सूची जारी की है। उसे देख लीजिए और कोई आपत्ति हो तो बताइए।
संसद सत्र के दौरान ही सूचना आयुक्तों की नियुक्ति को लेकर भी बैठक हुई और नेता प्रतिपक्ष ने आपत्ति जताते हुए सारे नाम खारिज कर दिए कि उसमें सामाजिक न्याय का ख्याल नहीं रखा गया, पर जब सूची आई तो उसमें आठ में पांच नाम वंचित वर्ग से थे। ऐसी फिसलनों से विश्वसनीयता का संकट खड़ा होता है। हाल में एसआइआर को लेकर कांग्रेस की एक बैठक हुई। उसमें चिंता जताई गई कि कांग्रेस के पास बूथ लेवल एजेंट बहुत कम हैं। देश पर छह दशक तक राज करने वाली पार्टी के पास बीएलए न हों तो दोष नेतृत्व का माना जाएगा। पश्चिम बंगाल चुनाव आने वाला है और बताते हैं कि तृणमूल के एक नेता ने किसी से कहा कि कांग्रेस की ओर से अगर गठबंधन की बात होगी तो उनसे स्पष्ट कहा जाएगा कि सहयोग कीजिए।
वंदे मातरम् के 150 वर्ष पूरे होने पर भी चर्चा हुई। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान देश के अंदर जो भाव था वंदे मातरम् उसकी अभिव्यक्ति थी। इसमें कोई शक नहीं कि पिछले 11 वर्षों में देश में राष्ट्रवाद की भावना ज्यादा बुलंद हुई है, लेकिन राहुल गांधी को शायद उस चर्चा में रुचि नहीं थी। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने चुनाव सुधार पर चर्चा के दौरान जो बात कही, वह तर्कसंगत थी। उन्होंने कहा कि चुनाव में हार-जीत नेतृत्व के कारण होती है। कांग्रेस में यह बात पहले भी कई शीर्ष नेता कह चुके हैं। राज्यों में भी भाजपा मोदी के नाम की गारंटी लेकर उतरती है। यह सच है कि भाजपा की विश्वसनीयता और लोकप्रियता आज के दिन मोदी के नेतृत्व के कारण है। कुछ राज्यों में अलग-अलग नेताओं ने भी नेतृत्व दिया है और बार-बार जीत भी रहे हैं। कांग्रेस को विश्वसनीयता के संकट से बाहर आना ही होगा।
(लेखक दैनिक जागरण के राजनीतिक संपादक हैं)





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