विचार: खौफनाक नारेबाजी पर सख्ती जरूरी, भारत की संप्रुभता को सीधी चुनौती देने वालों पर राजद्रोह लगाना उचित
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी भी तरह की मनमानी स्वीकार्य नहीं हो सकती। याद रहे कि भड़काऊ, कपटपूर्ण और उकसाने वाली बातों पर प्रतिबंध ही सभ्यता की आधारशिला है। ऐसे प्रतिबंध नागरिकों के मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए अनिवार्य हैं और राष्ट्रीय संप्रभुता की नींव भी इन्हीं पर टिकी होती है। भारतीय संविधान सभा ने प्रारंभ में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी प्रकार की पाबंदी को अस्वीकार किया था, क्योंकि यह स्वराज की मांग का मूल तत्व माना जाता था।
HighLights
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर मनमानी अस्वीकार्य
भड़काऊ बातों पर प्रतिबंध सभ्यता की आधारशिला
संप्रभुता को चुनौती देने वालों पर राजद्रोह उचित
संध्या जैन। देश में समय-समय पर राजद्रोह कानून को लेकर चर्चा होती रहती है। स्वतंत्रता के बाद पहली बार राजद्रोह कानून का प्रयोग ऐसे उकसावे वाली नारेबाजी के मामले में किया गया, जो अंततः राज्य की सत्ता को चुनौती देते हैं। इसी संदर्भ में बीते दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति अरुण कुमार यादव का एक निर्णय चर्चा के केंद्र में है। न्यायमूर्ति यादव ने ‘गुस्ताख-ए-नबी की एक ही सजा, सर तन से जुदा’ जैसे नारे को लेकर कहा कि यह लोगों को हिंसक विद्रोह के लिए भड़काने की मंशा से जुड़ा है, जो भारत की संप्रुभता को सीधी चुनौती देता है, इसलिए इस पर राजद्रोह का आरोप लगाना उचित ही है।
यह मामला बरेली में इस साल 26 सितंबर की एक घटना से जुड़ा हुआ है। आल इंडिया इत्तेफाक मिन्नत काउंसिल के अध्यक्ष मौलाना तौसीफ रजा ने उस दिन जुमे की नमाज के बाद शहर के इस्लामिया इंटर कालेज में एक कार्यक्रम आयोजित किया। उसमें मुस्लिम युवाओं के खिलाफ कथित अत्याचारों और झूठे मामलों को लेकर विरोध प्रदर्शन किया गया। पुलिस ने आयोजकों को सूचित किया कि इस प्रकार का कार्यक्रम भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता यानी बीएनएसएस, 2023 की धारा 163 के अंतर्गत प्रतिबंधित है।
प्रशासन के इस हस्तक्षेप से उत्तेजित भीड़ ने पत्थरबाजी, फायरिंग से लेकर पेट्रोल बम तक फेंकने शुरू कर दिए। उसमें कई पुलिसकर्मी घायल हुए और सार्वजनिक तथा निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचा। इस दौरान उत्तेजित भीड़ ‘गुस्ताख-ए-नबी की एक ही सजा, सर तन से जुदा’ का नारा भी लगाती रही। काउंसिल के नेता नदीम खान ने भी प्रतिबंधात्मक आदेशों के बावजूद इस्लामिया इंटर कालेज की ओर कूच करने के लिए लोगों को उकसाया। लगभग पांच सौ लोग उनके घर पर इकट्ठा हुए और सरकार के खिलाफ नारेबाजी की, जिसमें इस्लाम के नबी के अपमान से जुड़ा विवादास्पद नारा भी शामिल था।
सार्वजनिक व्यवस्था में गतिरोध पैदा करने के लिए नागरिकों को उकसाना राष्ट्र के सामाजिक ताने-बाने को खतरे में डालता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का यह अर्थ नहीं कि इससे लोगों को कानून को चुनौती देने और दूसरों के प्रति हिंसा एवं उन्हें गंभीर चोट पहुंचाने का लाइसेंस मिल जाता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार ऐसी नारेबाजी के आरोपितों से स्पष्ट होता है कि भारतीय कानून एवं व्यवस्था के प्रति उनके मन में कोई सम्मान नहीं। ऐसा इसलिए, क्योंकि यदि किसी धर्म, पंथ या मजहब के आराध्य का अपमान होता है तो यह भारतीय न्याय संहिता यानी बीएनएस की धारा 152 और अन्य धाराओं के अंतर्गत दंडनीय है।
जबकि किसी भी धर्म या ईश्वर के प्रति निंदात्मक कृत्य (ब्लासफेमी) बीएनएस की धारा 299 और 196 के तहत दंडनीय अपराध है। बीएनएस का अध्याय 16 बहुत व्यापक स्वरूप लिए हुए है और इसमें धर्म-पंथ से संबंधित लगभग सभी अपराधों का समावेश किया गया है। जैसे किसी वर्ग के धर्म का अपमान करने के उद्देश्य से उपासना-स्थल को क्षति पहुंचाना या अपवित्र करना (धारा 298), किसी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को आहत करने के उद्देश्य से उसके धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करने वाले सुनियोजित और दुर्भावनापूर्ण कृत्य (धारा 299) एवं किसी व्यक्ति की धार्मिक भावनाओं को चोट पहुंचाने के लिए जानबूझकर कुछ अपमानजनक शब्दों का उच्चारण आदि (धारा 302) प्रमुख हैं। धर्म या धार्मिक प्रतीकों के विरुद्ध इन अपराधों के लिए विभिन्न धाराओं के तहत तीन से पांच वर्ष तक के कारावास का प्रविधान किया गया है।
‘गुस्ताख-ए-नबी...’ के नारे की बात की जाए तो यह नबी के अपमान पर ऐसा करने वाले का सिर काटने का आह्वान करता है। सबको पता है कि अभी बांग्लादेश में दीपू चंद्र दास के साथ क्या हुआ? यह नारा भारत और भारतीय कानूनी प्रणाली की संप्रभुता एवं अखंडता को चुनौती देता है। भारतीय संविधान सभी नागरिकों को जाति, धर्म या पंथ के बावजूद बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सहित अन्य-अनेक स्वतंत्रताएं प्रदान करता है। इसलिए, यदि कोई व्यक्ति लोगों को ऐसी सजा देने के लिए उकसाने का प्रयास करता है, जिसका आपराधिक कानूनों में कोई उल्लेख ही नहीं तो स्पष्ट रूप से वह अवैध है। उकसावे की ऐसी कोई भी कवायद या आह्वान बीएनएस की धारा 152 के तहत दंडनीय अपराध है।
देखा जाए तो ‘गुस्ताख-ए-नबी की एक सजा...’ का कोई आधार कुरान या हदीस में नहीं मिलता है। इसकी जड़ें तो पाकिस्तान में ईशनिंदा कानून से जुड़ी हुई मिलती हैं। पाकिस्तान में एक ईसाई महिला आसिया बीबी को 2011 में ईशनिंदा कानून में दोषी ठहराया गया था। पाकिस्तानी पंजाब के तत्कालीन गवर्नर सलमान तासीर ने इसका विरोध किया तो उसे लेकर हंगामा खड़ा हो गया। उस समय मुल्ला खादिम हुसैन रिजवी की अगुआई में इकट्टा हुई भीड़ ने पहली बार यह नारा लगाया, जो बाद में भारत सहित अन्य तमाम देशों में फैलता गया। अन्य धर्मों के लोगों को डराने, हिंसक विद्रोह के लिए उकसाने तथा राज्य की सत्ता को चुनौती देने के लिए इस नारे के दुरुपयोग की निंदा करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने गत 17 दिसंबर को अभियुक्तों को जमानत देने से इन्कार कर दिया।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर किसी भी तरह की मनमानी स्वीकार्य नहीं हो सकती। याद रहे कि भड़काऊ, कपटपूर्ण और उकसाने वाली बातों पर प्रतिबंध ही सभ्यता की आधारशिला है। ऐसे प्रतिबंध नागरिकों के मानवाधिकारों के संरक्षण के लिए अनिवार्य हैं और राष्ट्रीय संप्रभुता की नींव भी इन्हीं पर टिकी होती है। भारतीय संविधान सभा ने प्रारंभ में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर किसी प्रकार की पाबंदी को अस्वीकार किया था, क्योंकि यह स्वराज की मांग का मूल तत्व माना जाता था। हालांकि शीघ्र ही सदस्यों ने सरदार वल्लभभाई पटेल जैसे नेताओं की दूरदृष्टि को समझा, जो असीमित वाक्-स्वातंत्र्य पर यथोचित नियंत्रण के पक्षधर थे। अंततः जवाहरलाल नेहरू ने संविधान के प्रथम संशोधन के माध्यम से राजद्रोह को पुनः कानून में शामिल किया।
(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)








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