आदित्य सिन्हा। आर्थिक विकास कई बिंदुओं पर निर्भर करता है। ऐसा ही एक प्रमुख बिंदु है कारोबारी सुगमता अर्थात लोगों के लिए कोई व्यवसाय शुरू करना, उसे चलाना और उसका विस्तार करना कितना आसान है। जब नियम सरल होते हैं और निर्णय पूर्वानुमानित होते हैं तो कंपनियां उत्पादन, भर्ती और निवेश पर ध्यान केंद्रित करती हैं।

जब प्रक्रियाएं धीमी या अनिश्चित होती हैं तो पूरी ऊर्जा इसी में झोंक दी जाती है कि अनुपालन, मुकदमेबाजी के बोझ और जोखिमों से कैसे बचा जाए। स्पष्ट है कि कारोबारी सुगमता में बाधा समूची आर्थिकी के विकास में बड़ी बाधक बनती है। भारत जैसे देश में तो यह और महत्वपूर्ण हैं, जहां नियामकीय जटिलताएं, कई अनुमतियों की आवश्यकता और अनिश्चित प्रवर्तन उद्यमों के लिए एक छिपे हुए टैक्स की तरह काम करते हैं। इसका परिणाम यह निकलता है कि न केवल आर्थिक गतिविधियों का दायरा सिकुड़ता है, बल्कि जो परियोजनाएं अस्तित्व में भी आना चाहें तो वे देरी के चलते लागत में बढ़ोतरी की शिकार हो जाती हैं।

वर्ष 2014 में केंद्र की सत्ता में हुए परिवर्तन के साथ ही नई सरकार ने इन परेशानियों को समझते हुए कारोबारी सुगमता को बेहतर बनाने के सार्थक प्रयास शुरू किए। सरकार ने व्यवसाय शुरू करने, चलाने और आवश्यकता पड़ने पर उनके समापन को आसान बनाने के लिए सुधारों की एक समग्रतापूर्ण नीति अपनाई है। इस क्रम में कानूनों को सरल बनाया गया है। प्रक्रियाओं का डिजिटलीकरण हुआ है। कई गतिविधियों को आपराधिक दायरे से मुक्त किया गया है, जिससे कुछ प्रक्रियागत कामकाज गैर-आपराधिक हुए हैं।

केवल आवश्यक अनुमतियों के लिए ही प्रतीक्षा करनी पड़ती है और उन्हें प्राप्त करने की प्रक्रिया भी आसान बनाई गई है। गुणवत्ता नियंत्रण से जुड़े नियम भी इतने तार्किक हुए हैं कि उनके चलते लागत पर बोझ न बढ़े। बीते दिनों चार नई श्रम संहिताओं ने सुधारों के इस सिलसिले को नया आयाम दिया है, जिसमें श्रमिकों से लेकर उद्यमियों के हितों को पूरा ध्यान रखा गया है। इन सुधारों को एक लक्षित एमएसएमई एजेंडे के माध्यम से और मजबूती प्रदान की गई है। वृद्धि के लिए आकार या दायरे की सीमाओं को संशोधित किया है। उद्यमों को औपचारिक क्षेत्र के अंतर्गत आने के लिए प्रोत्साहन मिला है। ऋण से लेकर सरकारी खरीद तक की पहुंच बेहतर बनाई गई है। अंतिम कड़ी को जोड़ने पर भी जोर दिया गया है।

उद्यमों का सबसे अधिक वास्ता जिला प्रशासन से पड़ता है। इसे देखते हुए जिला व्यापार सुधार कार्ययोजना (डी-बीआरएपी), 2025 एक शानदार पहल है। इसमें डिजिटलीकरण, समयबद्ध मंजूरियां, जोखिम-आधारित निरीक्षण और निवेशक सुविधा को जिला स्तरीय शासन में समाहित किया गया है, ताकि कारोबार सुगमता केवल नीतिगत आख्यान तक ही सीमित न रहे, बल्कि दैनिक कामकाज में भी महसूस की जा सके। चर्चा है कि सरकार एक जन विश्वास सिद्धांत पर भी काम कर रही है। यह नियामकीय दृष्टिकोण में गहन बदलाव पर केंद्रित है।

इसके मूल में यह है कि विश्वास ही सामान्य दस्तूर होना चाहिए और नियंत्रण अपवाद। इस क्रम में राष्ट्रीय सुरक्षा, सार्वजनिक सुरक्षा, मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण को छोड़कर अन्य तमाम आर्थिक गतिविधियों के लिए पूर्व अनुमति की आवश्यकता नहीं होगी। लाइसेंस स्थायी आत्म-पंजीकरण में बदल जाएंगे, निरीक्षण जोखिम-आधारित और अमूमन तृतीय पक्ष द्वारा होंगे और आपराधिक दंड की जगह भी अनुपातिक सामान्य जुर्माना लगाया जाएगा।

इसमें राज्य की भूमिका ‘आपको किसने अनुमति दी?’ के बजाय ‘आप आगे बढ़ सकते हैं’ को मान्यता देने की हो जाएगी। इसमें कुछ असामान्य परिस्थितियों में ही कड़े विशेष प्रविधान लागू होंगे। यह भारत के नियामकीय दृष्टिकोण में एक बड़े परिवर्तन का संकेत है, जो लाइसेंस राज के उलट है। लाइसेंस राज में अमल से पहले अनुमति की आवश्यकता होती है और उसमें अनुपालन भी स्पष्टता के बजाय डर के कारण अधिक होता है।

नए वर्ष में भारत को अगला कदम यह उठाना चाहिए कि कारोबारी सुगमता सुधार एजेंडे के तहत शासकीय सिद्धांत में परिवर्तित हो, जो जन विश्वास सिद्धांत में निहित हो और संघीय प्रणाली में आंतरिक रूप से समाहित हो। यह भी अनदेखा न किया जाए कि केंद्र सरकार सुधारों की व्यापक दिशा तो निर्धारित कर सकती है, लेकिन किसी भी सुधार की दशा मुख्य रूप से राज्यों, जिला और स्थानीय निकायों द्वारा निर्धारित होती है।

इसलिए 2026 में राज्यों को अपने स्तर पर भी प्रयास करने ही होंगे। उन्हें अनुमतियों के दायरे को घटाने से लेकर नियमों का मानकीकरण भी करना होगा। राज्यों को जोखिम-आधारित निरीक्षण, आत्म-प्रमाणन और तृतीय पक्ष द्वारा आडिट को उस स्तर पर समाहित करना चाहिए, जहां अनुपालन डाटा मजबूत है। गुणवत्ता और सुरक्षा नियमों को घरेलू औद्योगिक तत्परता के साथ सुसंगत बनाया जाना भी बहुत जरूरी है।

भारत को कारोबारी सुगमता को केवल सरकारी प्रक्रिया में सुधार नहीं, बल्कि एक महत्वपूर्ण आर्थिक ताकत के रूप में देखना चाहिए। आज टैरिफ और ट्रेड वार के अलावा भू-राजनीतिक अनिश्चितताओं में कंपनियों के लिए बाजार के दायरे के साथ-साथ नियमों में स्पष्टता और परिस्थितियों के अनुरूप ढलने की क्षमता भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। जो देश तत्परता के साथ नियमों में परिवर्तन करने, कानूनों को विश्वसनीय तरीके से लागू करने और अनावश्यक अड़चनों को दूर रखने में सक्षम होते हैं, वे स्वाभाविक रूप से निवेश को आकर्षित करने में सफल होते हैं।

भारत के लिए इसका स्पष्ट अर्थ है कि केंद्र और राज्य सरकारें निवेश और रोजगार को ध्यान में रखकर काम करें। अनावश्यक और बोझिल नियमों को निरंतर रूप से घटाएं और ‘जन विश्वास सिद्धांत’ को हर स्तर पर नियम बनाने का आधार बनाया जाए। भारत की प्रतिस्पर्धा क्षमताएं केवल बड़े सुधारों की घोषणाओं से ही नहीं, बल्कि इस पहलू से तय होंगी कि उसका नियामकीय तंत्र उद्यमों को वैश्विक अनिश्चितताओं की तुलना में कितनी तेजी से आगे बढ़ाने में सहायक बनता है।

(लेखक लोक-नीति विश्लेषक हैं)