विचार: जाति निर्धारण पर नई दृष्टि, तथ्यों को नहीं किया जा सकता नजरअंदाज
हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने मां की जाति के आधार पर एससी प्रमाणपत्र जारी करने की अनुमति दी, भले ही पिता गैर-एससी हों। कोर्ट ने कहा कि मां की जाति पिता जितनी ही महत्वपूर्ण है। लेख में इस निर्णय पर आशंकाएं और आरक्षण व्यवस्था पर इसके संभावित प्रभावों पर चर्चा की गई है। इसमें बॉम्बे हाईकोर्ट के पिछले फैसलों का भी जिक्र है, जो वास्तविक सामाजिक भेदभाव को महत्व देते हैं। गहन विमर्श की आवश्यकता पर जोर दिया गया है।
HighLights
सुप्रीम कोर्ट ने मां की जाति पर एससी प्रमाणपत्र को मंजूरी दी।
निर्णय से आरक्षण व्यवस्था पर नई बहस और आशंकाएं उत्पन्न हुईं।
वास्तविक सामाजिक भेदभाव ही जातिगत लाभ का आधार होना चाहिए।
डॉ. ऋतु सारस्वत। हाल में शीर्ष अदालत के एक निर्णय ने खूब सुर्खियां बटोरीं और इसे एक ऐतिहासिक निर्णय के रूप में उल्लेखित किया गया। मुख्य न्यायाधीश सूर्यकांत और न्यायमूर्ति जायमाल्य बागची की अध्यक्षता वाली एक पीठ ने पुडुचेरी की एक नाबालिग लड़की को उसकी मां की जाति के आधार पर अनुसूचित जाति (एससी) प्रमाण पत्र प्राप्त करने की अनुमति दी, भले ही उसके पिता गैर-अनुसूचित जाति समुदाय से थे।
पीठ ने टिप्पणी दी कि “मां की जाति उतनी ही महत्वपूर्ण पहचान है, जितनी पिता की।” इस संदर्भ में 5 मार्च, 1964 और 17 फरवरी, 2002 की राष्ट्रपति अधिसूचनाओं को केंद्रीय गृह मंत्रालय के दिशानिर्देशों के साथ पढ़ने पर यह पता चलता है कि जाति प्रमाण पत्र के लिए पात्रता मुख्य रूप से पिता की जाति और किसी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के भीतर व्यक्ति की आवासीय स्थिति द्वारा निर्धारित की जाती है।
उल्लेखनीय है कि याचिकाकर्ता ने यह दावा किया कि था कि उसका पति विवाह के बाद से ही उसके साथ उसके माता-पिता के घर रह रहा है। इस तर्क से इस तथ्य को सुस्पष्ट करना था कि उसके बच्चों ने कभी भी उच्च जाति के कथित सामाजिक लाभों का उपभोग नहीं किया।
इससे पूर्व देश की विभिन्न अदालतों ने मां की जाति के इस्तेमाल के संबंध में जब भी निर्णय दिए तो उसका मूलभूत आधार यह रहा कि क्या बच्चे उच्च जाति के सामाजिक एवं सांस्कृतिक लाभों से वंचित रहे। उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय पर तमाम तर्क-वितर्क के साथ अनेक आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं। पहली आशंका तो यह है कि इससे आरक्षण व्यवस्था के लाभ के लिए एक नई परंपरा स्थापित हो जाएगी, जिसके दूरगामी नकारात्मक परिणाम सामने आ सकते हैं।
इन आशंकाओं को एक सिरे से नकारा नहीं जा सकता, परंतु जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने भी कहा, “हम कानून के प्रश्न को खुला रख रहे हैं…। बदलते समय के साथ माता की जाति के आधार पर जाति प्रमाण पत्र क्यों जारी नहीं किया जाना चाहिए?” इस प्रश्न भरे वक्तव्य के गहरे निहितार्थ हैं, परंतु त्वरित रूप से निर्णय पर पहुंचने से पूर्व इस विषय पर एक गहन विमर्श की आवश्यकता है।
यह महत्वपूर्ण है कि यह निर्णय इस बात को सामान्य सिद्धांत घोषित नहीं करता कि जाति हमेशा मां के माध्यम से ही विरासत में मिल सकती है। न ही यह निर्णय यह सिद्ध करता है कि मात्र जाति के आधार पर भविष्य में सभी अनुसूचित जाति अथवा जनजाति प्रमाण पत्र दावों को बाध्यकारी रूप से स्वीकार किया जाता रहेगा।
इस मामले को अगर समझना है तो हमें उस निर्णय का भी विश्लेषण करना होगा, जो 20 जून, 2025 को बांबे उच्च न्यायालय के ‘सुजल मंगला बिरवाडकर बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य मामले’ में न्यायमूर्ति रेवती मोहिते डेरे और डा. नीला गोखले की खंडपीठ ने दिया था। चंभर (अनुसूचित जाति) श्रेणी के तहत जाति वैधता प्रमाण पत्र की मांग करने वाली एक छात्रा की याचिका को खारिज करते हुए कोर्ट ने कहा था, ‘यद्यपि तलाक के बाद सुजल का पालन-पोषण उसकी माता ने किया, किंतु केवल अनुसूचित जाति के माता का होना जाति-आधारित लाभों का दावा करने के लिए पर्याप्त नहीं है।’
कोर्ट ने पाया कि याचिकाकर्ता का पालन-पोषण विशेषाधिकार प्राप्त वातावरण में हुआ था। उसने केंद्रीय विद्यालय में शिक्षा प्राप्त की और उसे सामाजिक रूप से किसी प्रकार की कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा था। उसकी माता की आर्थिक स्थिति और परिवार की व्यावसायिक पृष्ठभूमि ने उसके दावे को और भी कमजोर कर दिया।
गौरतलब है कि छात्रा ने अपने पिता के गैर-अनुसूचित जाति ‘हिंदू कृषि’ समुदाय से होने के बावजूद अपनी माता की ‘चंभर’ जाति के आधार पर अनुसूचित जाति का दर्जा मांगा था। न्यायालय ने फैसला सुनाया कि जाति-आधारित आरक्षण के लिए केवल जन्म-आधारित संबंध ही नहीं, बल्कि वास्तविक भेदभाव का प्रमाण आवश्यक है। ठीक यही विचार दृष्टि फरवरी 2025 को बांबे उच्च न्यायालय के ही ‘स्वानुभूति जीवराज जैन बनाम महाराष्ट्र राज्य’ मामले में सामने आई।
इस मामले में न्यायालय ने अपने फैसले को स्पष्ट करते हुए यह कहा था कि जातिगत वैधता विवादों से संबंधित कानून को स्पष्ट करते हुए विभिन्न जातियों के माता-पिता से जन्मे बच्चे, जिनमें से माता या पिता में से कोई एक अनुसूचित जाति से संबंधित हों, बिना यह साबित किए कि उन्हें उस जाति से संबंधित वास्तविक सामाजिक भेदभाव, नुकसान या अभाव का सामना करना पड़ा है, स्वतः ही अनुसूचित जाति का दर्जा प्राप्त करने का दावा नहीं कर सकते।
रमेशभाई दभाई नाइका बनाम गुजरात राज्य (2012) के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया कि अंतरजातीय विवाह के मामलों में जाति निर्धारण आसपास के तथ्यों को नजरअंदाज नहीं कर सकता। वास्तव में यह एक तथ्य है कि कई बार परिवेश बहुत असर डालने वाला साबित होता है। जातिगत आरक्षण पर होने वाली बहस के बीच सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय अनेक आशंकाओं को जन्म दे रहा है।
चूंकि इस सत्य से इन्कार नहीं कि भारत के सुदूर हिस्सों में आज भी सामाजिक ढांचा जातिगत भेदभाव के बीच गुंथा हुआ है और अनेक बार जातिगत भेदभाव की अनचाही पीड़ाएं गहरे घाव कर जाती हैं, इसलिए ऐसे गंभीर मुद्दों पर गहन विमर्श के पश्चात ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए।
(लेखिका समाजशास्त्री हैं)













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