डॉ. मनिष दाभाडे। वर्ष 2025 को विदाई देते हुए भारत केवल एक कैलेंडर वर्ष का समापन नहीं कर रहा, बल्कि अपनी विदेश नीति के एक अत्यंत निर्णायक और चुनौतीपूर्ण चरण में कदम रख रहा है। वर्ष 2026 भारत के लिए एक सामान्य कूटनीतिक निरंतरता का वर्ष नहीं होगा, बल्कि यह वह समय होगा जब वैश्विक सत्ता-संतुलन, आर्थिक अनिश्चितता और पड़ोसी क्षेत्रों में अस्थिरता, तीनों एक साथ भारत की रणनीतिक क्षमता की परीक्षा लेंगे।

आज भारत वह देश नहीं रहा, जो वैश्विक घटनाओं पर प्रतिक्रिया देता हो। वह अब एक ऐसा प्रभावशाली शक्ति-केंद्र है, जिसकी नीतियों का प्रभाव क्षेत्रीय ही नहीं, बल्कि वैश्विक स्तर पर महसूस किया जाता है। 2026 में प्रवेश करते समय भारत की विदेश नीति की सबसे तात्कालिक और राजनीतिक रूप से संवेदनशील चुनौती अमेरिका के साथ उसके संबंध हैं। रणनीतिक स्तर पर भारत-अमेरिका संबंध मजबूत बने हुए हैं।

चीन को लेकर साझा चिंताएं, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सुरक्षा सहयोग और रक्षा साझेदारी इसकी पुष्टि करते हैं, किंतु आर्थिक मोर्चे पर स्थिति कहीं अधिक जटिल है। 2025 में भारतीय निर्यात पर लगाए गए भारी अमेरिकी शुल्कों ने यह स्पष्ट कर दिया कि रणनीतिक साझेदारी अब भी आर्थिक संरक्षणवाद की गारंटी नहीं देती। यह केवल व्यापारिक नुकसान का प्रश्न नहीं है, बल्कि उस व्यापक संकेत का भी है कि अमेरिका भारत को एक रणनीतिक साझेदार के साथ-साथ एक लेन-देन आधारित आर्थिक इकाई के रूप में देख रहा है।

भारत के लिए 2026 की दहलीज पर सबसे बड़ी चुनौती यह होगी कि वह अमेरिका के साथ किसी सीमित व्यापारिक समझौते की दिशा में बढ़े, बिना यह संदेश दिए कि वह आर्थिक दबाव के आगे झुकने को तैयार है। अत्यधिक नरमी भारत की वैश्विक सौदेबाजी की विश्वसनीयता को कमजोर कर सकती है, जबकि लंबे समय तक टकराव आर्थिक वृद्धि को प्रभावित कर सकता है, विशेषकर ऐसे समय में जब वैश्विक मांग पहले ही मंद पड़ रही है।

यह संतुलन साधना आसान नहीं होगा, लेकिन भारत के लिए अनिवार्य है। एक और चिंता अमेरिका और पाकिस्तान के बीच संभावित पुनर्संवाद की है। यद्यपि पाकिस्तान अब अमेरिकी विदेश नीति का केंद्रीय स्तंभ नहीं रहा, फिर भी यदि आतंक-रोधी सहयोग या क्षेत्रीय स्थिरता के नाम पर वाशिंगटन इस्लामाबाद के साथ सीमित सामरिक संवाद भी बढ़ाता है तो इसका प्रभाव भारत की सुरक्षा चिंताओं पर पड़ सकता है। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि भारत-पाकिस्तान संबंधों का पुनः ‘हाइफनेशन’ न हो और सीमा-पार आतंकवाद के मुद्दे पर अंतरराष्ट्रीय दबाव कमजोर न पड़े।

वर्ष 2026 में भारत द्वारा ब्रिक्स की अध्यक्षता संभालना अवसर और चुनौती, दोनों है। ब्रिक्स अब केवल उभरती अर्थव्यवस्थाओं का मंच नहीं, यह विभिन्न भू-राजनीतिक प्राथमिकताओं और वैचारिक दृष्टिकोणों का एक जटिल समूह बन चुका है। भारत से अपेक्षा की जा रही है कि वह इस मंच को दिशा प्रदान करे, किंतु चीन का आर्थिक वर्चस्व और रूस की भू-राजनीतिक मजबूरियां सर्वसम्मति को सीमित करती हैं।

कुछ नए सदस्य ब्रिक्स को पश्चिम-विरोधी मंच के रूप में देखना चाहते हैं, जबकि भारत का दृष्टिकोण अधिक व्यावहारिक और संतुलित है। भारत के लिए चुनौती यह होगी कि वह ब्रिक्स को वैचारिक ध्रुवीकरण से बचाते हुए विकास, वित्त, डिजिटल सार्वजनिक अवसंरचना और जलवायु अनुकूलन जैसे मुद्दों पर केंद्रित रखे। यदि ब्रिक्स केवल बयानबाजी का मंच बनता है या पश्चिम-विरोधी राजनीति में उलझता है तो इससे भारत की ब्रिज-बिल्डर की भूमिका को गंभीर आघात पहुंचेगा।

व्यापार कूटनीति 2026 में भारत की विदेश नीति का एक और निर्णायक मोर्चा होगी। वैश्विक व्यापार व्यवस्था तेजी से खंडित हो रही है-संरक्षणवाद, औद्योगिक नीति और चुनिंदा डी-कपलिंग अब अपवाद नहीं, नई सामान्य स्थिति बन चुके हैं। ऐसे में यूरोपीय संघ, ब्रिटेन और हिंद-प्रशांत साझेदारों के साथ भारत के मुक्त व्यापार समझौते केवल आर्थिक नहीं, बल्कि रणनीतिक आवश्यकता बन गए हैं, किंतु इन वार्ताओं में श्रम मानक, पर्यावरण नियम, डाटा शासन और बाजार पहुंच जैसे संवेदनशील मुद्दे शामिल हैं। भारत के सामने यह भी चुनौती होगी कि वह अत्यधिक रक्षात्मक रवैये से बाहर निकले, बिना अपनी घरेलू नीति-स्वायत्तता से समझौता किए।

अत्यधिक विलंब का जोखिम यह है कि भारत उन आपूर्ति शृंखलाओं से बाहर रह जाए, जो चीन के विकल्प तलाश रही हैं। क्षेत्रीय स्तर पर पाकिस्तान भारत की सबसे जटिल चुनौती बना हुआ है। नियंत्रण रेखा पर शांति को किसी संरचनात्मक परिवर्तन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। भारत के लिए जरूरी होगा कि वह विश्वसनीय प्रतिरोधक क्षमता बनाए रखे, बिना ऐसे टकराव में फंसे, जो आर्थिक प्राथमिकताओं को नुकसान पहुंचाए। पाकिस्तान के साथ संबंधों में कोई त्वरित समाधान नहीं है-यह संयम, तैयारी और दीर्घकालिक रणनीति की परीक्षा है।

बांग्लादेश की राजनीतिक दिशा भी भारत के लिए एक महत्वपूर्ण चिंता का विषय है। प्रस्तावित आम चुनावों से पहले ढाका में राजनीतिक ध्रुवीकरण तेज हो गया है और बाहरी शक्तियां भी सक्रिय होती दिख रही हैं। भारत को अपने हितों की रक्षा करनी होगी, बिना यह आभास दिए कि वह बांग्लादेश की घरेलू राजनीति में हस्तक्षेप कर रहा है। चीन से वर्ष 2025 में संबंधों को स्थिर करने के कुछ प्रयास अवश्य हुए हैं, किंतु रणनीतिक अविश्वास गहरा बना हुआ है।

नए वर्ष में भारत के सामने चुनौती यह होगी कि वह चीन के साथ प्रतिस्पर्धात्मक सह-अस्तित्व का प्रबंधन करे-न तो अनावश्यक टकराव की ओर बढ़े, न ही रणनीतिक शिथिलता दिखाए। भारत की वैश्विक महत्वाकांक्षाएं अब उसकी कूटनीतिक और रणनीतिक संरचनाओं पर भारी पड़ने लगी हैं। आने वाला वर्ष यह तय करेगा कि भारत केवल संतुलन साधने वाला देश बना रहता है या वास्तव में अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को आकार देने वाला शक्ति-केंद्र बन पाता है। 2026 में भारत को केवल अपने इरादों से नहीं, बल्कि अपने क्रियान्वयन से आंका जाएगा।

(लेखक जेएनयू में एसोसिएट प्रोफेसर हैं)