सुप्रीम कोर्ट की ओर से उन्नाव के पूर्व विधायक कुलदीप सिंह सेंगर को राहत देने वाले दिल्ली हाई कोर्ट के निर्णय पर रोक लगाने के साथ ही जिस तरह अरावली की पहाड़ियों की परिभाषा से संबंधित अपने ही फैसले को स्थगित किया गया, उससे यही रेखांकित होता है कि जन दबाव ने अपना असर दिखाया।

यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने इन दोनों मामलों में जनता के दबाव को महसूस किया और सवालों से घिरे फैसलों पर रोक लगाई, लेकिन विचार इस पर भी होना चाहिए कि आखिर ऐसे फैसले कैसे दिए गए, जिन्होंने महिलाओं की सुरक्षा और पर्यावरण की रक्षा को लेकर गंभीर प्रश्न खड़े किए? दिल्ली हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के उक्त फैसले केवल विसंगति भरे ही नजर नहीं आ रहे थे, बल्कि इस उक्ति का उपहास भी उड़ा रहे थे कि न्याय होने के साथ ही होते हुए दिखना भी चाहिए।

दिल्ली हाई कोर्ट ने दुष्कर्म के दोषी कुलदीप सिंह सेंगर को केवल जमानत ही नहीं दी थी, बल्कि ट्रायल कोर्ट से मिली उम्रकैद की सजा इस आधार पर निलंबित भी कर दी थी कि जन प्रतिनिधि पाक्सो एक्ट के तहत लोक सेवक की परिभाषा के दायरे में नहीं आते। यह बड़ा ही विचित्र निष्कर्ष था। दुर्भाग्य से इस निष्कर्ष का लाभ पूर्व विधायक को दे दिया गया। इस फैसले ने लोगों को हैरान भी किया और परेशान भी।

इससे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता कि अंततः सवालों से घिरे फैसलों पर रोक लग गई, क्योंकि ऐसे हर मामले न तो चर्चा में आ पाते हैं और न ही उन्हें लेकर लोग विरोध जताने सदैव सड़कों पर उतर पाते हैं। दूरदराज के ऐसे मामले या तो केवल खबर का हिस्सा बनकर रह जाते हैं या फिर अनसुने रह जाते हैं। इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि जैसे उन्नाव दुष्कर्म कांड में दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले का विरोध हो रहा था, वैसे ही अरावली पहाड़ियों के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी आलोचना के घेरे में था।

इसका कारण सुप्रीम कोर्ट की ओर से इस परिभाषा को मान्यता देना था कि सौ मीटर से ऊंची पहाड़ियों को ही अरावली पर्वतमाला का हिस्सा माना जाएगा। इससे अरावली के एक बड़े हिस्से में खनन का रास्ता खुलता दिख रहा था। इससे लोगों का चिंतित होना स्वाभाविक था।

यह राहतकारी है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही फैसले पर रोक लगा दी, लेकिन आखिर अरावली की ऐसी परिभाषा को मान्यता कैसे मिल गई, जो इस पर्वतमाला के अस्तित्व को ही संकट में डाल सकती थी? प्रश्न यह भी है कि यदि उक्त फैसलों के विरोध का केंद्र दिल्ली के स्थान पर देश के किसी अन्य हिस्से में होता तो क्या तब भी उनमें रोक लगती? जो भी हो, न्यायपालिका को यह संदेश भी नहीं देना चाहिए कि वह जन दबाव से ही प्रभावित होती है।