विचार: कई सवालों के जवाब देगा नया साल, 2026 में राजनीतिक मोर्चे पर काफी कुछ दांव पर लगा है
अभिनेता से नेता के रूप में स्थापित होने के प्रयासों में जुटे विजय की पार्टी भी कुछ सीटों पर खेल बिगाड़ सकती है। महाराष्ट्र में बीएमसी के चुनाव में ठाकरे परिवार की प्रतिष्ठा दांव पर लगी होगी। एक लंबे समय के बाद साथ आए उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे अगर साथ मिलकर भी सफलता हासिल नहीं कर पाए तो फिर उनका राजनीतिक भविष्य अधर में अटक जाएगा। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में भी चुनाव से पहले मेल-मिलाप जारी है, लेकिन उससे हासिल क्या होगा? अगला साल ऐसे तमाम सवालों के जवाब लेकर आएगा।
HighLights
अगले वर्ष कई राज्यों में विधानसभा चुनाव, राजनीतिक भविष्य दांव पर।
भाजपा, कांग्रेस, वामदलों के लिए अस्तित्व और विस्तार की चुनौती।
बीएमसी चुनाव में ठाकरे परिवार की प्रतिष्ठा, क्षेत्रीय दलों का भविष्य।
राहुल वर्मा। देश के राजनीतिक परिदृश्य को निर्धारित करने के दृष्टिकोण से अगला वर्ष बहुत महत्वपूर्ण साबित होने वाला है। अगले वर्ष बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में विधानसभा चुनाव होंगे, जिसमें सभी दलों का कुछ न कुछ दांव पर लगा हुआ है। सबसे धनाढ्य नगर निकाय बृहनमुंबई नगर निगम यानी बीएमसी के चुनाव भी होने हैं। कुछ राज्यसभा की रिक्त हो रही सीटों पर चुनाव की स्थिति में भी दलों के बीच खींचतान होती हुई दिख सकती है। अगला साल कई राजनीतिक पहेलियां भी सुलझाएगा। जैसे कि क्या देश भर में बड़े पैमाने पर विस्तार कर चुकी भाजपा अपने लिए राजनीतिक रूप से अनुर्वर साबित हो रहे प्रदेशों में भी अनुकूल स्थितियां बनाकर पैठ बढ़ा पाएगी या नहीं? भारत जोड़ो यात्रा के बाद पटरी पर आई कांग्रेस की जो गाड़ी फिर से बेपटरी हुई, क्या वह वापस पटरी पर आ पाएगी या नहीं? क्या अस्तित्व के संकट से जूझ रहे वामदल अपनी सत्ता के आखिरी दुर्ग को बचा पाएंगे या नहीं? क्षेत्रीय दल किस नियति को प्राप्त होंगे?
भाजपा की चर्चा की जाए तो विधानसभा चुनाव इसकी पुष्टि करेंगे कि नए क्षेत्रों में पैठ बनाने के उसके प्रयासों को कितनी सफलता मिलेगी? जिन राज्यों में चुनाव होना है, वहां केवल असम में ही उसकी सरकार है और पुडुचेरी में उसके समर्थन वाली सरकार सत्तारूढ़ है। दस साल से असम की सत्ता पर काबिज भाजपा के लिए फिर से सत्ता में वापसी की ठीकठाक संभावनाएं तो दिख रही हैं, लेकिन यह तय है कि उसे इस बार गौरव गोगोई के नेतृत्व वाली कांग्रेस से कड़ी चुनौती मिल रही है। अगर कांग्रेस ने राजनीतिक कौशल दिखाया तो भाजपा के समीकरण गड़बड़ा भी सकते हैं। बंगाल में तमाम प्रयासों के बावजूद पार्टी दूसरे क्रम पर ही अटकी हुई है। ममता बनर्जी ने राज्य की सत्ता पर जिस मजबूती के साथ पकड़ बनाई हुई है, उससे भाजपा के लिए राह बिल्कुल आसान नहीं होने वाली। हालांकि बिहार की जीत से उत्साहित भाजपा नई ऊर्जा के साथ बंगाल के रण में उतरने की तैयारी कर रही है। एक रणनीति के तहत बांग्लादेशी घुसपैठियों का मुद्दा भी उसने जोर-शोर से उठाना शुरू कर दिया है।
दक्षिण में केरल और तमिलनाडु भाजपा के लिए दूर की कौड़ी बने हुए हैं। लोकसभा की 39 सीटों वाले तमिलनाडु में भरसक कोशिशों के बावजूद पिछले लोकसभा चुनाव में उसका खाता भी नहीं खुला था। ऐसे में वह यहां गठबंधन सहयोगियों के ही भरोसे है। केरल की दो ध्रुवीय राजनीति में भाजपा फिलहाल तीसरा ध्रुव बनने पर ही ध्यान टिकाए हुए है। तिरुअनंतपुरम के निकाय चुनाव में जीत से उसे थोड़ी ही सही, लेकिन ताकत और हौसला जरूर मिला है। ऐसे में देखना यही होगा कि विधानसभा चुनावों में पार्टी कितनी मजबूती से अपनी चुनौती पेश करती है?
कांग्रेस के लिए अगला साल कम चुनौतीपूर्ण नहीं होने वाला। असम में वापसी की आस लगाए बैठी कांग्रेस बंगाल में तो लगभग हाशिए पर पहुंच गई है। तमिलनाडु में वह द्रमुक की पिछलग्गू बनकर रह गई है। पार्टी की वास्तविक उम्मीदें केरल से जुड़ी हुई हैं, जहां वह वाम दलों के मोर्चे से सत्ता झटकने की व्यूह रचना बनाने में जुटी है। उसके लिए अनुकूल संकेत हैं कि हाल के निकाय चुनाव में पार्टी को आशातीत सफलता प्राप्त हुई है। हालांकि अतीत के कई चुनावों में जीती हुई बाजी हारने के लिए जानी-जाने वाली कांग्रेस के लिए केरल में भी समस्याएं कम नहीं हैं। पार्टी में नेतृत्व को लेकर खींचतान की स्थिति है। स्थानीय इकाई में गुटबाजी के अलावा प्रदेश नेतृत्व को ताकतवर महासचिव केसी वेणुगोपाल को लेकर भी आशंकाएं कम नहीं हैं कि सत्ता मिलने पर वह मुख्यमंत्री बनने के लिए अपना दावा पेश कर सकते हैं। एक समय राज्य में पार्टी नेतृत्व को लेकर स्पष्टता का रुख रहा है, लेकिन एके एंटनी के केंद्र की राजनीति में जाने के बाद से प्रदेश में नेतृत्व को लेकर स्वीकार्यता की स्थिति बनाने में संघर्ष ही करती रही है। इसे यदि समय से नहीं सुलझाया गया तो केरल की सत्ता का सिंहासन उससे दूर ही रह जाएगा।
वामदलों के लिए भी अगला साल अस्तित्व के सवाल से जुड़ा है। लंबे समय से बंगाल और त्रिपुरा की सत्ता पर काबिज रहे वामदल अब इन दोनों राज्यों में राजनीतिक वनवास भोग रहे हैं। अगर केरल की सत्ता से भी उनकी विदाई होती है तो उनके पास कुछ नहीं रह जाएगा। एक ऐसे समय में जब यह विचारधारा भारत में अपने आगमन के सौ वर्षों का सफर पूरा कर चुकी है तो सत्ताशून्यता की ऐसी संभावित स्थिति उसकी वैचारिक प्रासंगिकता पर प्रश्न ही उठाएगी। कुछ अन्य क्षेत्रीय क्षत्रपों के लिए भी अगला साल बहुत कुछ निर्धारित करेगा।
बंगाल में तृणमूल जिस जज्बे के साथ जुटी हुई है, उससे लगता नहीं कि वह प्रतिद्वंद्वी भाजपा को आसानी से राजनीतिक बढ़त बनाने की गुंजाइश देगी। हालांकि भाजपा जिस रणनीति और संसाधनों के साथ चुनाव लड़ती है उसे देखते हुए ममता बनर्जी के लिए भी राह आसान नहीं होगी। तमिलनाडु में द्रमुक का गढ़ कुछ अभेद्य लगता है, क्योंकि जयललिता के निधन के बाद राज्य में जो राजनीतिक निर्वात की स्थिति उत्पन्न हुई, उसकी अभी तक भरपाई नहीं हो सकी। अन्नाद्रमुक में आंतरिक खींचतान ने भी मुख्यमंत्री स्टालिन का काम आसान ही किया है। हालांकि इतने वर्षों के सत्ता विरोधी रुझान और भाजपा के समन्वित प्रयासों से विपक्षी गठबंधन में नई ऊर्जा स्टालिन के लिए चुनौती बढ़ाने का काम जरूर करेगी।
अभिनेता से नेता के रूप में स्थापित होने के प्रयासों में जुटे विजय की पार्टी भी कुछ सीटों पर खेल बिगाड़ सकती है। महाराष्ट्र में बीएमसी के चुनाव में ठाकरे परिवार की प्रतिष्ठा दांव पर लगी होगी। एक लंबे समय के बाद साथ आए उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे अगर साथ मिलकर भी सफलता हासिल नहीं कर पाए तो फिर उनका राजनीतिक भविष्य अधर में अटक जाएगा। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी में भी चुनाव से पहले मेल-मिलाप जारी है, लेकिन उससे हासिल क्या होगा? अगला साल ऐसे तमाम सवालों के जवाब लेकर आएगा।
(लेखक चेन्नई स्थित शिव नादर यूनिवर्सिटी में एसोसिएट प्रोफेसर और सेंटर फार पालिसी रिसर्च, नई दिल्ली में फेलो हैं)













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