नई दिल्ली (ए. सूर्यप्रकाश)। पांच दशक बाद दक्षिण भारत से फिर कुछ गैर-जिम्मेदार आवाजें उठ रही हैं। कुछ दक्षिण भारतीय नेता भारतीय संघ के भीतर ही अलग द्रविड़नाडु बनाने की मांग कर रहे हैं जिसमें दक्षिण के पांचों राज्य शामिल हों। वहीं कुछ नेताओं की मांग है कि इन पांचों राज्यों को भारतीय संघ से अलग हो जाना चाहिए, क्योंकि यहां उन्हें उत्तर भारत की तुलना में कम तवज्जो मिलती है। इसकी शुरुआत अभिनेता से नेता बने कमल हासन ने की जब उन्होंने कहा कि अगर सभी दक्षिणी राज्य एक ‘द्रविड़ पहचान’ के तहत लामबंद हो जाएं तो फिर हमारी आवाज और ज्यादा बुलंद हो जाएगी। द्रमुक नेता एमके स्टालिन ने भी इसमें सुर मिलाते हुए कहा कि उन्हें खुशी होगी अगर सभी दक्षिणी राज्य साथ में आएं और द्रविड़नाडु की मांग करें।

तेलुगु फिल्मों के अभिनेता और जनसेना पार्टी के नेता पवन कल्याण ने भी उत्तर-दक्षिण के बीच बढ़ती खाई को लेकर चेतावनी दी। यहां तक कि उन्होंने तो ‘यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ साउदर्न इंडिया’ का विचार भी पेश कर दिया। इस पर तेदेपा सांसद मुरली मोहन आजादी की बात करके इस बहस को अस्वीकार्य स्तर पर ले गए। उन्होंने कहा कि दक्षिण भारत खुद को भेदभाव का शिकार महसूस करता है और अगर आगे भी ऐसा रहा तो पांचों दक्षिणी राज्य खुद को ‘स्वतंत्र देश’ घोषित कर देंगे। भले ही उत्तर-दक्षिण की यह अदावत पुरानी हो, लेकिन मौजूदा असंतोष 15वें वित्त आयोग के उस नजरिये से भड़कता दिख रहा है जिसमें राज्यों के लिए संसाधनों के बंटवारे की व्यवस्था की गई है। निश्चित रूप से केंद्र की ओर से राष्ट्रीय संसाधनों और कोष से अपने लिए उचित वितरण की मांग करने का दक्षिणी राज्यों को पूरा अधिकार है। इन मुद्दों पर चर्चा या बहस हो सकती है, लेकिन ये भारत से अलगाव की वजह नहीं बन सकते।

दक्षिण के लिए अलग पहचान की ये मांगें असल में हैरान करने वाली हैं, क्योंकि पिछले सत्तर वर्षों में एकीकरण की दिशा में राष्ट्र ने काफी प्रगति की है और अलगाव के पक्ष में उठे सुरों को प्रभावी तरीके से शांत भी किया गया है। आजादी के बाद देश ने पहली बार किसी सार्वजनिक मंच पर अलगाव के पक्ष में आवाज तब सुनी थी जब सीएन अन्नादुरई ने 1 मई, 1962 को राज्यसभा में भाषण दिया। द्रमुक नेता अन्नादुरई ने तमिलनाडु (उस समय मद्रास प्रांत) की आजादी को लेकर अपनी पार्टी की विवादित मांग का तुर्रा छेड़ा। उनकी बातों से तमाम सदस्यों को धक्का लगा।

अन्नादुरई ने कहा, ‘हमें पुनर्विचार करना होगा। निश्चित रूप से हमारे पास संविधान है, लेकिन अब वक्त आ गया है कि हम पुनर्मूल्यांकन और राष्ट्र शब्द की नए सिरे से व्याख्या करें।’ पुनर्मूल्यांकन से अपना आशय स्पष्ट करते हुए अन्नादुरई ने कहा था, ‘मैं अलग परिवेश वाले देश से आता हूं जो मेरे ख्याल से तमाम मामलों में अलग है। मैं द्रविड़ तबके से ताल्लुक रखता हैं और मुझे खुद को द्रविड़ कहने में गर्व महसूस होता है। द्रविड़ों में काफी कुछ अलग है जिनसे एक देश बन सकता है। इसलिए हम आत्मनिर्णय चाहते हैं।’ उन्होंने कहा कि दक्षिण का बंटवारा हुआ तो उसमें भारत के विभाजन जितनी मुश्किलें भी नहीं आएंगी, क्योंकि प्रायद्वीप के रूप में यह एक भौगोलिक इकाई है और विस्थापन और शरणार्थियों की समस्या भी पैदा नहीं होगी।

अन्नादुरई ने विभाजन के दौरान कपूरथला में प्रधानमंत्री नेहरू के एक भाषण का हवाला भी दिया। उसमें नेहरू ने कहा था कि कांग्रेस भारत को एक सूत्र में पिरोने की पूरी कोशिश करेगी, लेकिन अगर कोई भारतीय हिस्सा आत्मनिर्णय की मांग करता है तो कांग्रेस उसका समर्थन करेगी। उन्होंने कहा, ‘इस तरह जब कांग्रेस

आत्मनिर्णय या स्वतंत्रता के सिद्धांत को स्वीकार करती है तो फिर प्रायद्वीपीय भारत को आजादी क्यों नहीं दी जाती।’ अन्नादुरई ने कहा कि भारत को यहां-वहां फैले बेमेल राज्यों का केंद्र बनने के बजाय देशों के सौहार्दपूर्ण समूहों का रूप लेना चाहिए। उन्होंने कहा कि द्रविड़नाडु एक ‘छोटा, सुगठित, सजातीय और एकीकृत देश होगा।’ दूसरे शब्दों में कहें तो अन्नादुरई ने अलग तमिलनाडु की मांग रखी जिसे और व्यापक रूप देते हुए उन्होंने समूचे दक्षिण को समाहित करते हुए अलग द्रविड़नाडु का खाका पेश कर दिया।

अन्नादुरई की इन मांगों पर भारतीय जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने कड़ा विरोध जताया। अन्नादुरई के भाषण के अगले दिन राज्यसभा में उन्होंने कहा, ‘कल हमने इस सदन में खतरे की घंटी सुनी। स्वतंत्रता प्राप्ति और देश के विभाजन के 15 वर्ष बाद फिर से भारत को बांटने की एक आवाज उठी है। विघटन का यह स्वर भारत के विनाश का स्वर है। भारत से अलग होने के और भारत के टुकड़े करने के क्या कारण दिए गए हैं कि मद्रास के साथ न्याय नहीं होता? हम किसी भी राज्य में जाएं तो हमको यह शिकायत मिलेगी। केवल राज्यों में ही नहीं, बल्कि एक राज्य के तो भिन्न-भिन्न हिस्से हैं उनमें भी इस तरह की शिकायत है। इन शिकायतों में कुछ सच्चाई हो सकती है, लेकिन ये शिकायतें हमें इस बात के लिए प्रेरित नहीं कर सकतीं कि हम राष्ट्र के अस्तित्व को चुनौती दें और यह कि हम अपनी स्वतंत्रता की पहली शर्त को समाप्त कर दें और हम यह मांग करें कि भारत टुकड़ों में बंट जाना चाहिए, भारत का वॉलकेनाइजेशन हो जाना चाहिए। मुझे बड़ा खेद है कि यह आवाज आत्मनिर्णय के आवरण को ओढ़ कर आई है। उसे सैद्धांतिक स्वरूप प्रदान करने का प्रयत्न किया गया है और पृथकतावादी मांग को एक ऊंचे धरातल पर रखने की कोशिश की गई है और कहा गया है कि भारत एक राष्ट्र नहीं, राष्ट्रों का समूह है और दक्षिण को इस बात की छूट होनी चाहिए कि वह उत्तर से अलग हो जाए। मैं नहीं मानता कि कोई भी देश इस प्रकार की मनोवृत्ति के साथ समझौता कर सकता है। मुस्लिम लीग ने दो राष्ट्रों के सिद्धांत की बात कही थी और हम उसके खिलाफ लड़े। हमने कभी दो राष्ट्र के सिद्धांत को नहीं माना।’

सदन में वाजपेयी के विचारों को तमाम सांसदों का समर्थन मिला जिनमें कई दक्षिण भारत के भी सांसद थे। एक साल बाद चीनी आक्रमण के दौरान जब राष्ट्रीय एकता पहली प्राथमिकता बन गई तब द्रमुक ने अपनी यह मांग वापस ले ली। वह चुनावी तंत्र से जुड़कर मुख्यधारा की पार्टी बन गई और 1967 में उसने राज्य में सरकार भी बनाई। इसके साथ ही लगा कि एकता की हिमायती ताकतों को मजबूती मिली।

राज्यसभा में उस बहस के छप्पन साल बाद हमें फिर से वैसे ही स्वर सुनाई पड़ रहे हैं। इसमें आजादी की बातें भी हो रही हैं जिन पर चर्चा करना भी बेतुका है। भारत की एकता और अखंडता पर कोई समझौता नहीं किया जा सकता। देश को एक सूत्र में बांधे रखने के लिए बीते सात दशकों में भारतीयों की तीन पीढ़ियां खप गईं। दुनिया में हमारे जितना कोई भी लोकतांत्रिक और विविधता भरा समाज नहीं नहीं है और कुछ क्षुद्र हितों की पूर्ति के लिए हम विविधता में एकता की इस गौरवमयी यात्रा पर विराम नहीं लगा सकते। वाजपेयी के 1962 के भाषण की बातें आज भी उतनी खरी हैं। हमें भारत की एकता को लेकर उनके आह्वान पर विचार करते हुए अखंडता को चुनौती देने वाली आवाजों को जवाब देना चाहिए।

(लेखक प्रसार भारती के चेयरमैन एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)