न्यायपालिका के अंदर से ही जवाबदेही और पारदर्शिता की आवाजें उठना स्वागतयोग्य है। पहले मद्रास उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने अपने कामकाज का विवरण सार्वजनिक करते हुए न्यायपालिका में जवाबदेही की जरूरत को रेखांकित किया। इसके बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर कोलेजियम व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करते हुए साफ तौर पर कहा कि हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट में न्यायाधीशों की नियुक्तियों में परिवारवाद और जातिवाद का बोलबाला है।

यह पहली बार नहीं जब कोलेजियम व्यवस्था को लेकर सवाल उठे हैैं, लेकिन यह उल्लेखनीय है कि अब ऐसे सवाल उच्चतर न्यायपालिका के जज ही उठा रहे हैैं। देखना है कि इन सवालों पर सुप्रीम कोर्ट गौर करता है या नहीं? वह इसकी अनदेखी नहीं कर सकता कि न्यायाधीशों की नियुक्ति में पक्षपात के आरोप थमने का नाम नहीं ले रहे हैैं। कोलेजियम व्यवस्था का विकल्प बनने वाले राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्त आयोग को खारिज करते समय सुप्रीम कोर्ट ने यह तो माना था कि इस व्यवस्था में खामियां हैैं, लेकिन उन्हें दूर करने का काम अब तक नहीं हो सका हैै।

यह न्यायसंगत नहीं कि जिस कोलेजियम व्यवस्था की खामियों को खुद सुप्रीम कोर्ट ने स्वीकार किया हो उसके आधार पर ही न्यायाधीशों की नियुक्तियां होती रहें। ऐसा होना इसलिए भी ठीक नहीं, क्योंकि दुनिया के किसी भी लोकतांत्रिक देश में न्यायाधीश ही न्यायाधीश की नियुक्ति नहीं करते। आखिर जैसा दुनिया के अन्य लोकतांत्रिक देशों में नहीं होता वैसा भारत में क्यों होना चाहिए? यह वह सवाल है जो न तो सुप्रीम कोर्ट का पीछा छोड़ने वाला है और न ही सरकार का।

जरूरी केवल यही नहीं है कि न्यायाधीशों की ओर से अपने साथियों की नियुक्ति की अलोकतांत्रिक व्यवस्था खत्म हो, बल्कि यह भी है कि न्यायिक क्षेत्र में इस तरह के सुधार बिना किसी देरी के किए जाएं कि समय पर न्याय मिलना संभव हो सके। न्याय में देरी और लंबित मुकदमों के बोझ का उल्लेख एक अर्से से अवश्य किया जा रहा है, लेकिन कोई नहीं जानता कि लोगों को समय पर न्याय कब सुलभ होगा? न्याय में देरी के सिलसिले के कारण करोड़ों लोग न्याय से ही वंचित नहीं हैैं, बल्कि विकास के काम भी बाधित हैैं।

न्याय में देरी से भारतीय समाज कानून के शासन के प्रति वैसा प्रतिबद्ध नहीं दिखता जैसा उसे दिखना चाहिए। केवल इतना ही नहीं, न्याय में देरी की समस्या समाज को अनुशासित बनाने में भी बाधक बन रही है। बेहतर होगा कि न्यायपालिका, कार्यपालिका और साथ ही विधायिका यह महसूस करें कि न्यायिक तंत्र की मौजूदा स्थिति देश के अपेक्षित विकास में रोड़े अटकाने का काम कर रही है।

आज चाहे आम लोग हों या खास, वे इस पर भरोसा नहीं कर पाते कि अदालतों से उन्हें समय पर न्याय मिलेगा। भरोसे की यह कमी न्यायपालिका की प्रतिष्ठा और गरिमा पर एक सवाल ही है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश ने जो कुछ कहा उस पर केवल चर्चा ही नहीं होनी चाहिए, बल्कि ऐसे कदम भी उठाए जाने चाहिए जिससे न्यायपालिका भरोसे की कमी के संकट से मुक्त हो। बेहतर होगा कि न्यायिक नियुक्त आयोग के गठन की पहल नए सिरे से की जाए।