प्रकाश सिंह। कश्मीर के पुलवामा की भयंकर आतंकी घटना आजकल देश-विदेश में चर्चा का विषय है। इसमें केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के 40 जवान शहीद हो गए थे। घटना क्यों हुई और हमारी सुरक्षा व्यवस्था में कहां कमजोरी रही? इस पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। सच तो यह है कि कश्मीर में हम 1948 से ही गलतियां करते चले आ रहे हैं। गलतियों का घड़ा जब भरने लगता है तो उसका खामियाजा हमें इसी प्रकार की जघन्य घटनाओं के रूप में देखना पड़ता है। 

संक्षेप में देखें तो नेहरू जी का कश्मीर मसले को संयुक्त राष्ट्र ले जाना ही एक गलत कदम था, क्योंकि उस समय भारतीय फौज पाकिस्तानी और कबायली आक्रमणकारियों को खदेड़ रही थी और यदि उसे कुछ समय और मिल जाता तो संपूर्ण कश्मीर भारत के अधिपत्य में होता। बाद में नेहरू जी का यह कहना भी अनावश्यक था कि कश्मीर के भविष्य का अंतिम निर्णय वहां के लोगों की इच्छा जान लेने के बाद होगा। 

1965 में पाकिस्तान को हराने के बाद भी भारत ने जीते हुए, सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण कुछ भू-भाग, पाकिस्तान को लौटा दिए, जैसे हाजी पीर की पहाड़ी। 1971 में पाकिस्तान को पराजित करने के बाद भी इंदिरा गांधी ने शिमला में ऐसी गलती की जो उनके स्वभाव से एकदम विपरीत थी। पाकिस्तान के 90 हजार फौजी हमारे कैद में थे और जुल्फिकार अली भुट्टो इंदिरा गांधी से दया की भीख मांग रहे थे। यदि इंदिरा गांधी ने दृढ़ता दिखाई होती तो कश्मीर की समस्या का शिमला में ही स्थाई समाधान हो जाता। 

1989 में प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह ने रुबैया सईद को छुड़ाने के लिए आतंकियों को रिहा किया। आतंकियों को लगा कि एक अपहरण से उन्होंने भारत सरकार को घुटने टेकने के लिए मजबूर कर दिया। 1999 में भी एक शर्मनाक घटना तब हुई जब भारत सरकार ने इंडियन एयरलाइंस के यात्रियों को छुड़ाने के लिए तीन आतंकियों को कांधार ले जाकर रिहा कर दिया। इनमें जैश-ए-मोहम्मद का सरगना मसूद अजहर भी था। इससे स्पष्ट होता है कि आतंकवाद से निपटने में कमजोरी का कालांतर में कितना भयंकर दुष्परिणाम हो सकता है।

जम्मू-कश्मीर में भाजपा और पीडीपी की सरकार के दौरान सुरक्षा बलों पर जो अंकुश लगाया गया, उससे उनके मनोबल पर बुरा प्रभाव पड़ा। सोशल मीडिया पर अनेक वीडियो देखे गए जहां लड़के सुरक्षा बलों को दौड़ा रहे थे। सुरक्षा बलों को संयम बरतने के आदेश थे। इन घटनाओं से पत्थरबाजी करने वालों का दुस्साहस बढ़ता गया। कश्मीर के बिगड़े हालात हमारी नीतियों के बराबर ढलान पर होने का चरमोत्कर्ष हैं। 

सवाल यह है कि भारत सरकार को अब करना क्या चाहिए? अभी तक सरकार ने दो कदम उठाए हैं। पहला यह कि पाकिस्तान को दिया हुआ सर्वाधिक अनुकूल राष्ट्र का दर्जा वापस ले लिया। यद्यपि विशेषज्ञों का मानना है कि इसका पाकिस्तान पर कोई खास असर नहीं पहुंचेगा। दूसरा यह कि अलगाववादी नेताओं को प्रदान की गई सुरक्षा वापस ले ली गई। उनको सुरक्षा देना आस्तीन के सांप को दूध पिलाना जैसा था, परंतु सरकारें बड़े प्रेम से ऐसा करती रहीं। ये दोनों कदम सही होते हुए भी अपर्याप्त हैं। भारत सरकार को निम्नलिखित दस सूत्रीय कार्यक्रम के अंतर्गत काम करना चाहिए।

पहला, कश्मीर समस्या वास्तव में घाटी तक ही सीमित है। लद्दाख एवं जम्मू क्षेत्र आतंकवाद या अलगाववाद से प्रभावित नहीं हैं। उचित होगा यदि कश्मीर को तीन प्रदेशों में विभाजित कर दिया जाए। लद्दाख को केंद्रशासित प्रदेश भी घोषित किया जा सकता है। ऐसा करने के बाद कश्मीर घाटी में देश विरोधी तत्वों से एक सीमित क्षेत्र में निपटना आसान हो जाएगा।

दूसरा, आंतरिक सुरक्षा के ढांचे को हमें और सुदृढ़ बनाना होगा, विशेष तौर से आतंक प्रभावित क्षेत्रों में। सुरक्षा बलों को जिन संसाधनों की आवश्यकता हो वे उन्हें उपलब्ध कराए जाएं। उनके बीच अच्छा समन्वय और अभिसूचना का पर्याप्त आदान-प्रदान भी हो।

तीसरा, हमारी लड़ाई अलगाववाद और आतंकवाद से है, आम कश्मीरी से नहीं। यह हमें सदैव याद रखना होगा। कश्मीरी युवा, जो इस्लामिक स्टेट के दर्शन की ओर आकर्षित हो रहे हैं या लश्कर या जैश के सिपाही बनने को तैयार हैं, वे ऐसा क्यों कर रहे हैं, इसका सही विश्लेषण कर उनका निदान करना होगा।

चौथा, पाकिस्तान कैसे आतंकियों को धनराशि एवं अन्य संसाधनों द्वारा मदद करता है, इसकी समुचित जानकारी फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स यानी एफएटीएफ को दी जाए ताकि वह पाकिस्तान को ब्लैक लिस्ट कर सके।

पांचवां, प्रशासनिक व्यवस्था में विशेष सुधार हो। लोगों में असंतोष सामान्यत: प्रशासनिक अव्यवस्था के कारण होता है, विशेष तौर से जब सरकारी तंत्र भ्रष्ट या संवेदनहीन हो जाता है।

छठा, संविधान की धारा-370 के बारे में भी बहुत दिन से मंथन हो रहा है। अब शायद समय आ गया है कि इस धारा को समाप्त कर दिया जाए, क्योंकि इससे केवल अलगाववाद को ही बल मिल रहा है। कश्मीरियों को उनका हक अवश्य मिलना चाहिए, परंतु उनकी बेजा मांगों पर गौर करने की कोई आवश्यकता नहीं है।

सातवां, सिंधु नदी समझौते पर भी पुनर्विचार हो। नेहरू जी की उदारता के कारण हम पाकिस्तान को उसके हक से अधिक पानी दे रहे हैं। समझौते पर पुनर्विचार करने में समय लग सकता है, क्योंकि यह विश्व बैंक के तत्वावधान में हुआ था, परंतु क्या दंडात्मक कार्रवाई के रूप में हम एक महीने तक पाकिस्तान को जाने वाला पानी बंद नहीं कर सकते? यह पाकिस्तान की हिंसा का एक अहिंसक जबाव होगा।

आठवां, आतंकवाद और अलगाववाद से हमारी लड़ाई लंबी चलेगी। दुर्भाग्य से आतंकवाद से लड़ने वाले कानून को पिछली सरकारें बराबर कमजोर करती गई हैं। पहले ‘टाडा’ था, बाद में उससे कमजोर ‘पोटा’ आया और वर्तमान में और लचर ‘अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन एक्ट’ यानी यूएपीए है। इस एक्ट को और धार देना उचित होगा।

नौवां, पाकिस्तान से संबंध सुधार के लिए हमने सब कुछ किया, परंतु जैसा कि अंग्रेजी में कहा जाता है कि ‘इथोपियन अपनी चमड़ी का रंग नहीं बदल सकता और न ही तेंदुआ अपने शरीर के दाग’। पाकिस्तान भी अपनी हरकतों से कभी बाज नहीं आएगा। इसका एक ही उपाय है, जो खेल पाकिस्तान कश्मीर में खेल रहा है वही खेल हम उसके सिंध एवं बलूचिस्तान में खेलें। पाकिस्तान को जब तक यह नहीं लगेगा कि उसका अस्तित्व ही खत्म हो सकता है तब तक वह नहीं सुधरेगा।

दसवां, चीन के प्रति भी हमें अपने रुख को नए ढंग से परिभाषित करना होगा। किसी ‘बुली’ से निपटने का केवल एक ही तरीका है कि उसके आगे झुका न जाए। चीन अगर मसूद अजहर पर अपना रवैया नहीं बदलता तो उसकी टेलीकॉम कंपनियों को अगर बाहर न किया जाए तो कम से कम इतना दबाव तो डाला जाए कि चीन को पसीना आ जाए। 

युद्ध वर्तमान परिस्थितियों का विकल्प नहीं है। बिना तलवार निकाले भी पाकिस्तान के होश ठिकाने लाए जा सकते हैं और चीन को भी सही रास्ते पर लाया जा सकता है।

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(लेखक सीमा सुरक्षा बल एवं उत्तर प्रदेश पुलिस के महानिदेशक रहे हैं)